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सुकोशल मुनि
परमपूज्य मुनि महाराज नयन्धर तीर्थंकरों की जन्म भूमि अयोध्या में विहार करते हुए पधारे है । नगर जन यह समाचार मिलते ही प्रसन्नता से भर उठे । मुनि दर्शन के भाव उमड़ पड़े । जनसमुदाय उनके दर्शन प्रवचन से लाभान्वित होने के लिए उद्यान की ओर उमड़ रहा था । यह तो इस नगर का ,नगर वासियों का सौभाग्य था कि उन्हें मुनि-दर्शनों का लाभ प्राप्त हो रहा था ।
उद्यान श्रोताओं से भर गया था । नगर के राजा, मंत्री, वरिष्ठ अधिकारी, श्रेष्ठीजन ,जिज्ञासु, धर्मिष्ठ श्रावकों का मेला ही जुड़ गया था ।
महाराज नयन्धर का मुख मंडल ज्ञान और तपकी आभा से आलोकित था । ब्रह्मचर्य का तेज निखर उठा था । चेहरे की शांति आँखों का करूणा ,वाणी के वात्सल्य रस से लोग श्रद्धा से नतमस्तक थे । धर्मलाभ का आशीर्वाद पा रहे थे । अवधिज्ञानी मुनि महाराज उच्चासन पर विराजमान थे । उनकी गिरि-गंभीर-गिरा गूंज उठी
"धर्मप्रेमी श्रोताओ ! संसार में समस्त प्राणी सुख के आंकांक्षी हैं । और सुख शुभ कर्मों का ही परिणाम है । सुख और दुख मनुष्य के कृत्यों पर आधारित हैं । यद्यपि दोनों भव भ्रमण के कारण हैं । पर दुखसे छूटकारा पाकर सुख की प्राप्ति यह प्रथम प्रयत्न होता है । ज्ञानी पुरूष मुमुक्षु जीव इस सुख को जो भौतिक हैउसे भी त्याग कर सच्चे आत्मसुख को ही लक्ष्य बनाता है । हम जिन सुखों की आकाक्षा करते हैं वे सभी कर्माधीन हैं । उत्तमज्ञान, दर्शन,चारित्र ,लम्बीआयु ,शरीर सौन्दर्य, उच्चगोत्र आदि सभी कर्मों के कारण भूत हैं । धन-जन की प्राप्ति आदि '. उसी के कारण है । पर याद रखना ये साधन हैं-साध्य नहीं । साध्य होना चाहिए
मोक्ष की कामना । जन्म-मरण से मुक्ति । जबतक हम मोह के बंधन से बंधे रहेगे तबतक समस्त दूषणों से घिरे रहेंगे । यही मोह कमों का राजा है । जो संसार से छुटने ही नहीं देता । अत: मोह को बंधन जान कर उससे मुक्ति का प्रयास करते रहो । " मुनिश्री के वचनों से मानों अमृत झर रहा था । श्रोतागण मंत्र-मुग्ध होकर श्रवण कर रहे थे । कईयों की आत्मज्ञान की आँखे खुल रही थीं ।
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