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Xxxxx परीषह-जयीXXXXXXXX संकट में हो। और फिर इसे सीखने के लिये त्याग-तप एवं जिनेश्वरी दीक्षा लेना आवश्यक है।"
यद्यपि उस समय यह सद्यः संभव नहीं हुआ पर उसके मन में मुनिराजों के ज्ञान, तप-चारित्र्य के प्रति गहरी श्रद्धा ने जन्म लिया। वह जैनत्व का विश्वासी बन गया।
अग्निभूति को वह सुयोग भी मिल गया। उनके मामा सूर्यमित्र जो जैनेश्वरी दीक्षा ले चुके थे, वे विहार करते-करते कौशांबीनगरी में पधारे। अग्निभूतिने उनकी पूजा-वंदना की, भक्तिपूर्वक उन्हें आहार कराया और धर्मोपदेश श्रवण किया। जैनधर्म में उसकी श्रद्धा और भी दृढ़ हो गई।
"भैय्या वायुभूति! यह हमारा सौभाग्य है कि हमारे नगर और द्वार पर जैनमुनि पधारे हैं। हमारा नगर और घर पवित्र हो गया। आप भी उन्हें आहार देकर पुण्यार्जन करें।" अग्निभूति ने अपने भाई को प्रेरित करना चाहा।
. "बेवकूफ ! मैं तुझ जैसा नहीं। अपने परंपरागत वैदिक धर्म को छोड़ तू इन नंगों के धर्म में फंस गया है। अरे! ये नंगे तो बड़े बदमाश होते हैं। गंदे होते हैं।" इसप्रकार के अनेक कटुवचनों से उसने मुनि-निंदा की और अपना क्रोध, क्षोभ एवं विरोध व्यक्ति किया।
"भैय्या ! तुम क्यों ऐसे दुर्वचनों से दुर्गति का बंध कर रहे हो। अरे ये तो पावन जंगम तीर्थ हैं।" अग्निभूत ने पुनः समझाने का प्रयास किया।
इससे वायुभूति का क्रोध भड़क उठा उसने भलाबुरा कहने के साथ अग्निभूति ' पर प्रहार भी किये।
अग्निभूति ने इसे दुष्कर्म का प्रभाव मानकर सहन कर लिया। वह प्रतिदिन अधिकांश समय मुनिराज सूर्यमित्र के साथ बिताने लगा। उसका मन उत्तरोत्तर संसार से विरक्त होने लगा। और एकदिन उसने महाराज से निवेदन किया "महाराज !मैं इस स्वार्थी, मरणधर्मा संसार को देख चुका हूँ। मैं इससे मुक्त होकर जिनेश्वरी दीक्षा धारण करना चाहता हूँ।"
"वत्स! यह योग्य निर्णय है।" मुनिजी ने उसे दीक्षित कर दिया। अब अग्निभूति राजपुरोहित नहीं थे। अपितु निग्रंथ मुनि थे।
अग्निभूति की पत्नी सोमदत्ता ने जब यह समाचार सुना तो अपना सिर पीट लिया। पर इसका कारण उसने अपने देवर वायुभूति को माना।।
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