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XXXXXXXXपरीपह-जयीXXXXXXXX
श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। तत्त्व मूलतः सात हैं। इनमें पूरी सृष्टि का तत्त्व और सत्त्व समाहित है। इनके अलावा अन्य तथ्यों को मानना स्वयं को अंधकार में ले जानास्वयं को धोखा देना है। ये सात तत्त्व हैं जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा
और मोक्ष।" महाराजश्री ने लगभग एक घंटे तक तत्त्वों की विवेचना की । श्रद्धालुओं ने श्रद्धा से श्रवण किया। प्रवचन पूर्ण होने पर भक्ति से उनको वंदन कर लोग जाने लगे। आज श्रोताओं में अग्निभूति भी बैठे थे। प्रवचन के पश्चात उन्होंने महाराज श्री के चरणों में नमोस्तु कहा। उनके चहेरे की रेखायें स्पष्ट बता रही थीं कि वे किसी गहरी चिंता में डूबे हैं। इसी चिन्ता के समाधान हेतु तो वे यहाँ आये थे। वे जानते थे कि महाराजश्री अवधिज्ञानी हैं। अग्निभूति ने विनय पूर्वक बैठते हुए महाराज से हृदय की व्यथा कही-"महाराज कल संध्याकाल जब मैं सूर्य को अर्घ्य समर्पित कर रहा था उससमय मेरी उँगली से रत्नजड़ित राजमुद्रिका तालाब में गिर गई। बहुत खोज कराई पर नहीं मिली। वह राज्य मुद्रा है। उसका खो जाना मेरे लिए संकट का सूचक है।" कहते-कहते अग्निभूति महाराजश्री के चेहरे पर टकटकी लगाकर देखने लगा। उसे विश्वास था कि महाराज अवश्य बतायेंगे कि मुद्रिका कहाँ है और कब मिलेगी।
"पुरोहितजी! आपकी मुद्रिका आप जब अर्घ्य दे रहे थे उससमय आपकी ऊँगली से निकलकर एक खिले हुए कमल में गिर गई थी । सूर्यास्त होते-होते कमल पत्र बंद हो गये। और मुद्रिका उसी में बंद हो गई। प्रात:काल आपको मिल जायेगी।" अपनी कोमल वाणी से महाराज ने बताया।
महाराजश्री को वंदनकर अग्निभूति उसी स्थान पर गया जहाँ कल संध्यावंदन कर रहा था। जाकर देखा तो कमल दल पर पत्तों के बीच मुद्रिका जगमगा रही है। मुद्रिका को पुनः प्राप्त कर उसका हृदय भी जगमगा उठा।
अग्निभूति को आश्चर्य हुआ कि महाराजश्री ने यह कैसे जान लिया। दूसरे दिन अग्निभूति महाराजश्री के पास पहुँचा वंदना की और विनयपूर्वक बोला "महाराज आपका कथन शत- प्रतिशत सत्य निकला। मेरी मुद्रिका मुझे प्राप्त हो गई। कृपया मुझे भी यह विद्या सिखाने की कृपा करें।"
"पुरोहितजी जैनधर्म की विद्या में किसी चमत्कार या स्वार्थहेतु नहीं सीखी जाती। इनका प्रयोग तो तभी किया जाता है जब कोई व्यक्ति राष्ट्र या समाज गहरे
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