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समकालिक 'सद्धम्मसंगह' (तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी) में भी पालि' शब्द का . प्रयोग इमी अर्थ में किया गया है।'
उपर्युक्त उद्धरण ‘पालि' शब्द के अर्थ-निर्धारण में बड़े महत्व के हैं। चौथी शताब्दी ईसवी से लेकर चौदहवीं शताब्दी ईसवी तक जिन अर्थों में पालि' शब्द का प्रयोग होता रहा है, उसका वे दिग्दर्शन करते हैं। अतः उनसे हमें एक आधारमिलता है, जिसका आश्रय लेकर हम चौथी शताब्दी ईसवी से पहले 'पालि' शब्द के इतिहास पर विचार कर सकते हैं। त्रिपिटक में तो 'पालि' शब्द मिलता नहीं। त्रिपिटक को आधार मान कर लिखे हुए साहित्य में भी बुद्धघोष की रचनाओं या 'दीपवंस' के समय से पूर्व किसी ग्रन्थ में पालि शब्द का निर्देश नहीं मिलता ! फिर आचार्य बद्धघोष ने किस परम्परा का आश्रय ग्रहण कर पालि' शब्द को उपर्युक्त अर्थों में प्रयुक्त किया, यह हमारे गवेषण का मुख्य विषय है। दूसरे शब्दों में, बुद्धघोष के समय से पहले ‘पालि' शब्द का इतिहास हमें जानना है । भाषाओं के विकास में, स्थान और युग की विशेष परिस्थितियों के कारण, शब्दो के रूपों, अर्थों और ध्वनियों में नाना विकार होते रहते हैं। ध्वनि, रूप और अर्थ के उन विकारों को हमें ढूंढना है, जिनका अतिक्रमण कर ‘पालि' शब्द बुद्धघोष के ममय तक 'बुद्ध-वचन' या 'मूल त्रिपिटक के पाठ' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा और फिर तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक उसी अर्थ को धारण करता रहा। उसके बाद के अर्थ-विकार की बात तो बाद में । उपर्युक्त महत्वपूर्ण उद्धरणों में पालि' शब्द के जो अर्थ व्यक्त किये गये हैं, उन्हीं को आधार मानकर कुछ आधुनिक विद्वानो ने 'पालि' शब्द की निरुक्ति के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थापनाएँ की हैं, जिनमें तीन अधिक प्रभावशाली हैं। पहली स्थापना इस बात को प्रमुखता देकर चलती है कि बुद्धघोष की अट्ठकथाओं में चूंकि पालि' शब्द 'बुद्ध-वचन' या 'मूल त्रिपिटक के अर्थ को व्यक्त करता है, इसलिये उसका मूल रूप भी कोई ऐसा शब्द रहा होगा जो बुद्ध-काल में इसी अर्थ को सूचित करता हो। दूसरी स्थापना इसी प्रकार 'पालि' शब्द के 'पाठ' अर्थ को प्रमुखता देकर चलती है । तीसरी स्थापना संस्कृत शब्द पालि' जिसका अर्थ पंक्ति है. को प्रधानता देकर उसे बुद्धघोष आदि आचार्यो
१. पृष्ठ ५३ (सद्धानन्द द्वारा सम्पादित एवं जर्नल ऑव पालि टेक्स्ट सोसायटी,
१८९०, में प्रकाशित संस्करण)