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पि पालि' (ऐसा भी पाठ है) कह कर पालि' शब्द से मूल त्रिपिटक के 'पाठ' को द्योतित किया है, जैसे 'सुमंगलविलासिनी'की सामञफलसुत्त-वण्णना में 'महच्चराजानुभावेन' पद को व्याख्या करते हुए पहले उन्होंने उसका अर्थ किया है ‘महता राजानुभावेन' और फिर पाठान्तर का निर्देश करते हुए लिखा है 'महच्चा इति पि पालि' अर्थात् 'महच्चा ऐसा भी पाठ है। यहाँ 'पालि' का अर्थ निश्चित रूप से 'पाठ' ही है, यह इस बात से प्रकट होता है कि समान प्रसंगों में 'पालि' के समानार्थ वाची शब्द के रूप में 'पाठ' शब्द का भी प्रचुर प्रयोग आचार्य बुद्धघोष ने किया है। कुछ एक उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। “सेतकानि अट्ठीनि ... सेतठ्ठिका ति पि पाठो” (समन्तपासादिका--वेरञ्जकण्डवण्णना) तथा “अपगतकाळको.....अपहतकाळको ति पि पाठो' (समन्तपासादिका-वेरजकण्डवण्णना)
आचार्य बुद्धघोष के कुछ ही समय पूर्व लंका में लिखे गये 'दीपवंस' ग्रन्थ में भी जा चौथी शताब्दी ईसवी की रचना है, 'पालि' शब्द का प्रयोग बुद्ध-वचन के अर्थ में ही किया गया है ।' आचार्य बुद्धघोष के बाद भी सिंहल देश में 'पालि' शब्द का प्रयोग उपर्युक्त दोनों अर्थों में होता रहा। आचार्य धम्मपाल (पाँचवीं-छठी शताब्दी ईसवी) ने अपनी परमत्थदीपनी' (खुद्दक-निकाय के कतिपय ग्रन्थों की अट्ठकया) में भी ‘पालि' शब्द का प्रयोग मूल त्रिपिटक के 'पाठ' के अर्थ में किया है, यथा “अयाचितो ततागच्छोति ....आगतो ति पि पालि"। इसी प्रकार 'बुद्धवचन' के अर्थ में भो ‘पालि' शब्द का प्रयोग वहाँ उपलक्षित होता है। 'चूलवंस (तेरहवीं शताब्दी) में भी , जो 'महावंस' (छठी शताब्दी) का उत्तरकालीन परिवद्धित अंश है, 'पालि' शब्द का प्रयोग बुद्ध-वचन, अटठकथा से व्यतिरिक्त मल पालि त्रिपिटक, के अर्थ में ही किया गया है। उसका एक अति प्रसिद्ध वाक्य है--"पालिमत्तं इधानीतं नत्थि अट्ठकथा इध"२ (यहाँ केवल 'पालि' ही लाई गई है, 'अट्ठकथा' यहाँ नहीं है)। इसी प्रकार 'पालि महाभिधम्मस्स' अर्थात मल विपिटक के अन्तर्गत अभिधम्म का' ऐसा भी प्रयोग वहीं मिलता है। उसी के.
१. २०१२० ( ओल्डनबर्ग का संस्करण ) २. ३७४२२७; मिलाइये वहीं ३३३१०० (गायगर का संस्करण) ३. ३७५२२१ (गायगर का संस्करण)