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पवनंजय अभी क्यारे हैं तभी से वे बहत अनुरोध-आग्रह कर रहे हैं। वे तो अपनी ओर से निश्चय ही कर चुके हैं। कहते हैं कि विवाह मानसरोवर के तट पर ही होगा और तभी यहाँ से दोनों राजकुल चल सकेंगे।..."
और बीच-बीच में मौं हर्षित होकर स्वाकृति दे रही हैं।
लक्ष्यहीन कुमार झील के तट पर आतुर पैरों से भटक रहे हैं। लहरों के गम्भीर संगीत में अन्तर की वह आकुल पुकार अशेष हो उठी है और चारों ओर सन्ध्या की उस 'आह' को खोज रही है।
"देखो न प्रहस्त, कैलास के ये वैडूर्य मणिप्रभ थवलकूट, ये स्वर्ण-मन्दिरों की ध्वजाएँ, मानसरोवर की यह रत्नाकर-सी अपार जलराशि, हंस-हसिनियों के ये मुक्त विहार
और वे दूर-दूर तक चली गयीं श्वेतांजन पर्वत-श्रेणियाँ, क्या इन सबसे भी अधिक सुन्दर है वह विद्याधरी अंजना?"
कुमार के हृदय का कोई भी रहस्य, प्रहस्त से छुपा नहीं था। बालपन से ही वह उनका अभिन्न सहचर था। मार्मिक मुसकराहट के साथ प्रहस्त ने उत्तर दिया
म.और कौन जाने, कुमार पवनंजय उसी रूप के झरोखे पर चढ़कर ही न इम अपार सौन्दर्य के साथ एकतान हो रहे हो?"
"विनोद मान रहे हो प्रहस्त! उस रूप को देखा ही कब है, जो तुम मुझे उसका बन्दी बनाना चाहते हो। हाँ, उस सन्ध्या में वह 'आह' जो दिगन्त में गूंज उठी यो-उसका पता जरूर पाना चाहता हूँ! पर इर यही है कि अंजना को पाकर कहीं उसे न खो दूं..."
"उस रूप को पा जाओगे पवन, तो ये सारी भ्रान्तियाँ मिट जाएँगी!"
"भूलते हो प्रहस्त, पवनंजय रुकना नहीं जानता! सौन्दर्य का प्रवाह देश और काल की सीमाओं के ऊपर होकर है। और रूप? वह तो अपने आप में ही सीमा है-यह बन्धन है, प्रहस्त । कैलास की इन खत्तुंग चूड़ाओं पर जाकर भी मेरा मन बिसम नहीं पा सका है। और तुम अंजना के रूप की बात कर रहे हो...?"
"पर उस महल पर का वह उड़ता हुआ नीलाम्बर, वह मृदु मुख, और वह दिगन्तभेदिनी 'आह', वह सब क्या था पवनंजय?"
"नहीं, वह रूप नहीं था-बह सीमा नहीं थी, प्रहस्त, वह अनन्त सौन्दर्य प्रवाह का आकर्षण था कि मैं विरुद्ध-गामिनी लहरों से जूझता हुआ लौट आया। वहीं परिचयहीन चिरआकर्षण, कहाँ हैं उसकी सीमा-रेखा?"
"पन के इस मान-सम्भ्रम को त्याग दो पवन, और आओ मेरे साथ, उस सीमा
पुक्तिद्त : 29