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पाकर कुमार को सन्तोष नहीं है। वह निर्माण कहाँ है? कितनी दूर? वह शिखरों की प्रभा जो अभी तिरोहित हो जाने को है : उसके ऊपर होकर फिर यात्रा कैसे
होगी:
कि अचानक कुमार को दृष्टि दूर के उन फेनोग्ज्वल महल पर पड़ी। उत्तके वातायन की मेहराब में होकर वह अपार नील जल-राशि लहराती दिखाई पड़ी। कुमार हर्षाकुल होकर चल पड़े। इधर लहरों पर खेलना ही पवनंजय का प्रिय उद्योग हो गया है। बिना किसी से कहे, संगी-सेवकविहीन अकेले ही तट पर जा पहुँचे। नाव पर आरूढ़ होकर तर की सांकल खोल दी-और खूब तेज़ी से डाँड़ चलाने लगे। तट से बहुत दूर, झील के बीचोंबीच, ठीक उस महल के सामने ले जाकर नाव को लहरों के अधीन छोड़ दिया। हवा के कोरे प्रबल से प्रबततर हो रहे हैं। उखाले खाती हुई तरंगें नाब पर आ-आकर पड़ रही हैं। कुमार का उत्तरीय हवा के झोंकों से यकसा उड़ रहा है। डॉड़ फेंककर आप पैर-पर-पैर डाले, हाथ बाँधकर बैठे हैं। लहरों के गर्जन और आलोड़न पर मानो आरोहण किया चाहते हैं। विविध पंगिमा में आती हुई तरंगों को भुजाओं में समेट लेना चाहते हैं, पर जैसे उन पर उनका यश नहीं हैं। और इसलिए वे बालक की ज़िद-से तुल पड़े हैं कि हार नहीं मानेंगे। नाव का भान उन्हें नहीं है। वे तो बस लहरों के लीला-क्रोड़ में खो गये हैं। उड़ते हुए तरंग-सीकरों से साँझ की आखिरी गुलाबी प्रभा झर रही है।
अब तो कमार जा रही भी नहीं दिष्टई पाङ्गता, नगद भी नहीं दिखती केवल वे आकाश की और उठी हुई भुजाएं हैं, जिनमें अनन्त लहरें खेल रही हैं।
और एकाएक एक अति करुण कोमल ‘आइ' ने स्तश्च दिशाओं को गुंजा दिया। कुमार की दृष्टि ऊपर उठी। उस महल की सर्वोच्च अटारी पर एक नीलाम्बर उड़ता दिखाई दिया और वेग से हिलते हुए दो आकुल हाथ अपनी ओर बुला रहे थे। सन्ध्या की उस शेष गुलाबी आभा में कोई मुखड़ा और उस पर उड़ती हुई लटें...
नाव पर से छलाँग मारकर कुमार पानी में कूद पड़े। लहरों की गति के विरुद्ध जूझते हुए पवनंजय ने डेरे की राह पकड़ी और लौटकर नहीं देखा!
पहर रात जाने तक भी कुमार आज सो नहीं सके हैं। इधर प्रायः ऐसा ही होता है। तब वे भ्रमण को निकल पड़ते हैं। आज भी ऐसे ही शय्या त्यागकर चल पड़े। महाराज के डेरे के पास से गुजर रहे थे कि कुछ बातचीत का स्वर सुनाई पड़ा। पास जाकर सुना, शायद पिता ही कह रहे थे
"...उन सामने के महलों में विद्याधरराज महेन्द्र ठहरे हैं। दन्तिपर्वत की तलहटी में स्थित महेन्द्रपुर नगर के वे स्वामी हैं। रानो हदयरोगा, अरिन्दम आदि साँ कुमार और कुमारी अंजना साथ हैं। अंजना अब पूर्णयौबना हो चली है। महाराज महेन्द्र उसके विवाह के लिए चिन्तित हैं। जब से उन्हें पता लगा है कि कुमार
५४ :: मस्तिदूत