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वनों में वासन्ती खिली है। चारों ओर कुसुमोत्सव है। पुष्पों के झरते पराग से दिशाएँ पीली हो चली हैं। दक्षिण पवन देश-देश के फूलों की गन्ध उड़ा लाता है; जाने कितनी मम-कधाओं से मन भर आता है। आम्र-घटाओं में कोयल ने प्राण-प्राध्य की अन्तःपीड़ा को जगा दिया। चारों ओर स्निग्ध, नवीन हरीतिमा का प्रसार हैं। दिशाओं को अपार नीलिमा आमन्त्रण से भर उठी है।
नवयुवा कुमार पवनंजय का जो इन दिनों घर में नहीं है। जब-तब महल की छत पर आ खड़े होते हैं, और सचमुच इस इक्षिण पवन पर चढ़कर उस नीली क्षितिज-रेख को लाँघ जाना चाहते .
तभी फागन का आष्टाहिक पर्व आ गया। देव और गन्धर्व अपने विमानों पर चढ़कर, अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना करने नन्दीश्वर-द्वीप की ओर उड़ रहे हैं। भरतक्षेत्र के राजा और विद्याधर, भगवान ऋषभदेय की निर्वाण-भूमि कैलास-पर्वत पर, 'भरत चक्रवर्ती के बनवाये स्वर्ण-मन्दिरों की वन्दना को जा रहे हैं।
कुमार पवनंजय ने अपने पिता, आदित्यपुर के महाराज प्रसाद से कैलास जाने की आज्ञा चाही। पिता प्रसन्न हुए और सपरिवार स्वयं भी चलने का प्रस्ताव किया। कुमार के स्वच्छन्द भ्रमण के सपने को ठेस लगी, पर क्या कहकर इनकार करते? सिर झुकाकर चुप हो रहे । रानी केतुमती, कुमार और समस्त राजपरिवार सहित महाराज कैलास की वन्दना को गये। पूजा-वन्दन और धर्मोत्सव में आष्टाहिक पर्च सानन्द बीता। लौटते हुए, राजपरिवार ने मानसरोवर के तट पर कुछ दिन वसन्त-विहार करने का निश्चय किया।
एक दिन सवेरे उठकर क्या देखते हैं कि बहत दुर मानसरोवर के कछार में एक फेनों-सा उजला महल खड़ा है। अनुमान से जाना कि विद्यानिर्मित पहल है; जान पड़ता है कोई विद्याधर राजा वहाँ आकर ठहरे हैं।
कैलास की परिक्रमा करके लौटे हैं, पर कुमार पवनंजय का मन विराम नहीं पा रहा है। यह लौटना और यह विश्राम क्यों है? प्राण की जिज्ञासा और प्राकण्ठा का अन्त नहीं है। अन्तहीन यात्रा पर चल पड़ने को उसका युवा मन आतुर है। कैलास की उत्तुंग चोटियों पर स्वर्ण-मन्दिरों के वे शिखर दिखाई पड़ रहे हैं । अस्तंगत सूर्य की किरणों में वा प्रभा मानो वझ रही है। ऋषभदेव की निर्वाण-भूमि को
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