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मेवाड़ के जैन तीर्थ भाग 2
(प्रकाश स्तम्भ)" का निर्माण करवाया जिसके प्रकाश के माध्यम से गोली-बारूद का प्रयोग करते थे। इस प्रकाश बिन्दू को नष्ट करने के लिए चित्तौड़ शासक द्वारा इसे तोप से उड़ा दिया । दीपक तो नष्ट हो गया पर वह स्तम्भ आज भी खण्डहर के रूप में विद्यमान है।
भारतीय इतिहास में यह स्थल महत्वपूर्ण है। सर ए.सी.एल. कार्लाईल ने सन् 1887 में नगरी (मझमिका) का एक सर्वेक्षण कर यह बताया कि यह नगरी भागवत धर्म से भी प्राचीन है तथा खनन से प्राप्त सिक्कों पर ब्राह्नमी लिपि से वि. संवत् तीसरी शताब्दी पूर्व के लेख उत्कीर्ण हैं इस पर मलि सिकाय शिविपदस् (शिविदस) अंकित है, जो मझमिका का सिक्का था इसके अतिरिक्त भी कार्लाईल ने यहाँ के शवघरों से प्राप्त राख, अस्थियाँ, घड़े तथा अन्य सामग्री का अध्ययन किया जिसका वर्णन हिस्ट्री आफ इण्डियन आर्कियोलोजी द्वारा चक्रवती दिलीप में है। इससे यह स्पष्ट है कि चित्तौड़ महाकाव्य के समय का था। नगरी में रहने वाले मूलत: पंजाब के रहने वाले थे, जो बाद में राजस्थान (मेवाड़) में रहने लगे। इसको पुरातत्व विभाग ने स्पष्ट किया है। इसके अतिरिक्त पंतजलि के महाभाष्य में मध्यमिका इण्डो यूनानी आक्रमण का वर्णन
चित्तौड़ (मेवाइ) के संबंध में 22 फरवरी 1902 को जोन मार्शल (भारतीय पुरातत्व के निदेशक) ने डॉ. डी.आर. भण्डारकर को सर्वेक्षण कार्य सुपुर्द किया। सन् 1915-16 में मध्यमिका नगरी उत्खनन कर इसके प्राक् व आद्य (प्रारम्भिक व उत्तर इतिहास) का वर्णन किया है।
__डॉ. वी.एन. मिश्र ने गम्भीरी नदी के पेटे से 242 पाषाण उपकरणों (हस्त कुल्हाड़ी, छिलनी, फलक) के नमूने एकत्रित किये इसके आधार पर पुरातत्व विभाग ने सिद्ध किया कि पंजाब की हड़प्पा व मोहनजोदड़ो तथा मद्रास (चैन्नई) की हस्त कुल्हाड़ी संस्कृति के मध्य स्थापित की है। (प्री.एण्ड प्रोटो हिस्ट्री ऑफ बेइच वेली पृष्ठ 35-36) व (इण्डियन आर्कोयोलोजिकल रिव्यू 1963-64 पृष्ठ 36) इससे यह पुष्टि होती है कि उस समय पाषाण की संस्कृति विद्यमान थी तथा पाषाण के परिवर्तन से पुरा, मध्य व उत्तरा पाषाण को देखा गया जो कालीबंगा, हड़प्पा संस्कृति के साथ की स्थापित होती है। इस संस्कृति को गणेश्वर व आहाड़ संस्कृति जो स्वतंत्र संस्कृति रही है, जो हड़प्पा संस्कृति के पूर्व की थी।
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