Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

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Page 11
________________ समाधान किया । पण्डित प्रभृति सर्वजनों के आश्चर्य का पार नहीं रहा ! ! ! उस वक्त इन्द्र महाराज ने वीर कुमार की आत्मशक्ति का परिचय दिलाते हुए कहा मनुष्यमात्रं शिशुरेष विप्र! । नाशंकनीयो भवता स्वचित्ते । विश्वत्रयोनायक एष वीरजिनेश्वरो वाङ्मपारदृश्वा ॥ १ ॥ इनका विचारशील मन बालकपनसे ही पृथ्वी के वास्तविक लाभों के प्राप्त करनेमें था । दीनात्माओं की दुर्दशा को देख आपके उदारमन पर बडा आघात होता था । उस वक्त के आडम्बरों को देख आप समझते थे कि यह धर्म नहीं किन्तु धर्म के नाम से अज्ञता है, परन्तु सब कार्य देशकाल की अनुकूलता को पाकर ही सुधरते हैं । ___ आपको संसार का उद्धार करना सदा से प्रिय था, अत: आपने सुख को तिलाञ्जलि देकर जगत को सुधारना तथा शान्ति देनी ठान ली, इस विचार को दृढ करके आपने राज्य-स्त्री-परिवार-मालमिलकतस्वजनबन्धुओं-का परित्याग कर के-तीन अबज-अठासी कोड-अस्सी लाख-सोनाहियों का दान देकर संसार को छोड दिया । ॥ आत्मभोगपर सत्यसन्धा। छापका सिद्धांत था कि-"यदाराध्यं यत्साध्यं, यद्धयायं यच्च दुर्लभम् । तत्सर्व तप साध्य, तपो हि दुरतिक्रमम् ।। १ ।। " जो चीज आराधना करने योग्य है, जिसकी साधना मे तन मन धन की आहुति दी जाती है, जो योगियों के भी ध्यान करने योग्य है, जो चीज संसारमें अति दुर्लभ है. वह सब तपोबल से साध्य है, तप निकाचित कर्मकी गति को भी रोक सकता है, परंतु तपकी शक्तिको कोई नहीं रोक सकता, तपसे आत्मा की अनन्त शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, अर्थात् तपस्या के करने से मनुष्यको केवल ज्ञान केवल दर्शनकी प्राप्ति भी हो सकती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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