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है कि कोई किसी प्रकारसे और कोई किसी प्रकारसे परन्तु संसार की पटडी पर मनुष्यामात्र, संप्रदायमात्र, मूर्तिपूजक, बुतपरहस्त है । जो लोग बाहिरी तौरसे बुतपरस्ती को बुरा भी समझते हैं उनके घरों में उनकी सामाजिक संस्थाओं में उनके धार्मिकग्रन्थों पर, उनके पून्यगुरुओंकी मूर्तियां दीख पडती हैं । दृष्टान्तके तौर पर समझिये, कि आर्गसमाज लोग मूर्ति पूजाके कट्टर विरोधी हैं, परन्तु उनके विद्यालयोंमें, उपदेशभवनों में “ स्वामी दयानन्दजीके" फोटो भीतों पर लटकाए हुए मिलते हैं । वह लोग व्याख्यान देते समय बडे आदरमावसे,पूज्यबुद्धिस हाथ लम्बा लम्बा कर बताते हैं, कि यह “सत्यधर्म के प्रचारक" यह मिथ्याडंबरोंके निवारक यह " संसारके उद्धारक " स्वामी दयानन्दसरस्वती अपने बनाये हुए अमुक ग्रन्थके अमुक पृष्ठ पर यह बात लिखते हैं।"
अब समझना चाहिये कि जिस मूर्ति के सामने हाथ लम्बाया जाता है, बिते स्वामीजीके इशारेसे बताया जाता है, वह क्या स्वामीजीकी देह है ? क्या वह स्वामीजीका वजूद है ? क्या उसमें स्वामीजीकी आत्मा विराजमान है ? उसते किसी किसमकी स्वामीजीकी गरज सर सकती है? नहीं किसी तरह भी नहीं इसी । प्रकार संसारके सम्पूर्ण संप्रदायों में किसी न किसीरूप मूर्तियोंका मानना सिद्ध है। जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव स भी प्राचीन समयसे मूर्तियोंके पूजक हैं । उसमें विशेष कर जैनधर्म में मूर्तिपूजा बडे आदर सत्कारसे की जाती है । परन्तु इतना तो अवश्य कहना पडेगा कि जैनसंपदाय मूर्तिको मूर्तिमान कर पत्थरके पुतले मानकर नहीं पूजा किन्तु वह जिस देव या गुरु की मूर्ति है उसकी अनुपस्थितिम उसको उस मूर्ति के द्वारा स्मर्ण करके उसमूर्तिवालेके गुणोंको पूजता है। न कि सामने दिखाई देते उस बुतको । उस मूर्तिके द्वारा मूर्तिवाले महात्माकी जीवन चय्याको स्मर्ण करके उन अतीतकालकी घटनाओको हृदयमें स्थान देकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com