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जय करके सोलह हजार मुकुटबन्धराजाओं को अपनी आणा मना कर उन सर्व भूपतियोंसे परिवृत हो कर उज्जयणीमें आया, तब लोगोंने बड़े आडम्बर पूर्वक उसका प्रवेशोत्सव कराया । सर्व राजा प्रजाको यथोचित प्रीति दान देकर सर्वके उतारों की व्यवस्था कर जब अपनी पूज्य माताको प्रणाम करने गया तब माताने उसके आनेपर किसी भी प्रकारका हर्ष प्रकट न किया । सम्प्रति ने फिरसे नमस्कार कर के पूछा, पूज्य माता आधे भरत क्षेत्र को स्वाधीन करके मैं कई वर्षोंसे तुम्हारे चरणोंमें आया हूँ तथापि तुम्हारे चेहरे पर जैसी चाहिये वैसी खुशी न देख कर मु मेरे किसी अपराधकी आशंका होती है । परन्तु बारम्बार स्मरण करनेपर भी मुझे मेरा कोई दोष याद न आनेसे हृदय बड़ा व्याकुल हो रहा है । अगर अज्ञानता से जो कोई दोष मुझसे हुआ हो तो आप पुत्रवत्सला हो मुझे क्षमा प्रदान करो । माताने गंमीर स्वरसे जवाब दिया, पुत्र आज तूं संसारमें पूरा पुण्यवान है । तेरी भाग्यरेखा प्रतिदिन चढती है, तेरी कीर्ति यह मेरी ही कीर्ति है, परन्तु " नरकान्तममू राज्यम् स्मृतम् "इस वाक्यको मूल कर तेरा मन आरंभमें मशगूल है यह मेरी उदासीका कारण है | अगर तूं दिग्विजय के क्षेत्रोमें प्रतिग्राम प्रति नगर एक २ चैत्य भी बंधाता रहता तोभी तेरा आरंभजन्य पाप अल्प होता रहता, और मुझे तेरा मुख देख कर खुशी भी होती । इस बातको सुनकर राजाने निमित्तियोंको बुलाकर पूछा मेरा आयु कितने वर्षोंका है? निमितियोंने राजाका आयु १०० वर्षका बतलाया । राजाने आज्ञा दी कि. १०० वर्षके ३६००० दिन होते हैं, मेरे आयुके दिनो जितने जिन चैत्य मेरे राज्यमें तैयार होने चाहिये ।
मंत्रियोंने वैसा ही करना शुरू किया। प्रसिद्ध है कि-कमसे कम एक मन्दिर रोज नवीन तैयार कराके राजा अपनी माताके चरणोंमें बन्दना किया करता था, और नया समाचार दे कर उनके आदेशका पालन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com