Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

View full book text
Previous | Next

Page 88
________________ [६ स्थानक] (६२) जीव-आत्मा-चैतन्य है । (६३) और वह नित्य है । (६४) जीव कोका कर्ता है । (६५) जीव कर्मों का भोक्ता है | (६६) निर्वाण-मोक्ष है । (६७) और उसका उपाय भी है । (२) सम्यक्त्व एक प्रकार, दो प्रकार, तीन प्रकार, चार प्रकार, और पांच प्रकार होता हैं । .) वीतराग जिनेश्वर देवके कथन किये तत्त्व पदार्थ पर एक प्रकार । श्रद्धाका होना एक प्रकारका सम्यक्त्व कहा जाता है। सम्यक्त्व. जैसे मार्ग भूला हुआ कोई आदमी विनाही किसीक मार्म दो प्रकार । > बताये फिरता फिरता स्वयमेव मार्गपर आ जाता है और सम्यक्त्व. व. कोई मार्ग ज्ञाताके मार्ग के बतानेसे मार्गपर हो जाता है। इसी प्रकार कितनेक जीवों को स्वाभाविक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, उस सम्यक्त्वको 'नैसर्गिक' सम्यक्त्व कहते है और कितनेक जीवोंको गुरु महाराजके उपदेशसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है उस सम्यक्त्वको 'औपदेशिक' सम्यक्त्व कहते हैं । एवं सम्यक्त्वके दो प्रकार हैं । अथवा 'निश्चय सम्यक्त्व' और 'व्यवहार सम्यक्त्व' की अपेक्षा सम्यक्त्व दो प्रकारका है । आत्मा का वह परिणाम कि जिसके होनेसे ज्ञानादि मय आत्माकी शुद्ध परिणति होती है उसको 'निश्चयसम्यक्त्व' कहते हैं और कुदेव, कुगुरु, कुमार्गको त्याग कर सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का स्वीकार करना उसको 'व्यवहारसम्यक्त्व' कहते हैं । अथवा वीतराग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108