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[२८] वीतरागस्तोत्र
[२९] पांडवचरित्र इत्यादि अनेक ग्रंथोंकी अनेक प्रती लिखाकर रानाने भारतवर्षके अनेकानेक गाम नगरोंके ज्ञानमंडारोंमे रखवाई थी ।
इसके अतिरिक (११) अंग (१२) उपांग (१०) प्रकीर्णक, (६) छेद, (४) मूल, नंदि, अनुयोगद्वार, इन ( ४५) ही आममों की एक एक प्रति सोनहरी अक्षरोमें, और अनेक प्रतें स्याहीसे लिं खाके मुपतिने खंभात, धोलका, करणावती, चंद्रावती, डूंगरपुर वीजापूर, प्रल्हादनपुर, राधनपूर, पादलिप्तपुर ( पालीताणा ) बीर्णदूर्ग, ( जुनामढ) मांडवगढ, चित्तोडगढ, जयसलमेर, बाहडमेर, दर्भावती, वडोदरा, आकोला, उज्जैण, मथुरा, प्रमुख उत्तम उपयोगी स्थानेमें रखवादी थी । ___ इसके आलावा-कर्णदेव, सिद्धराज, भीमदेव, वीसलदेव, सारंगदेव, वीरधवल सेमसिंह अदिराजाओंने मी जैन ज्ञानभंडारोंकी वृद्धिमें पुष्कळ मदद दी है।
और मंत्री उदयन, बाहढ, अंबड, वस्तुपाल, तेजपाल, काशाह, समरासाह, छाडाशाह, मोहनसिंह, साजनसिंह आदि अनेक राजमान्य मंत्रियोंने तो अपनी संपत्तिका प्रायः उपयोग ज्ञान और जिनचैत्योंके अंदर ही किया है । परंतु बडे दुःखकी वात है कि देश और समाजके दुर्दैवसे कुमारपाल आदि के पुस्तक सैंकडो वर्ष पहले ही नष्ट हो चुके हैं। इसका कारण प्रायः प्रसिद्ध ही है कि जो लोग अपने प्राणोंको हाथकी हयेलीमें लेकर सैंकडों वर्षोतक इधरसे उधर और उधरसे इभ मारे मारे फिरे हैं वह इन पुस्तकालयोंको सर्वथा कैसे बचा सकते थे।
कुमारपालके लिखाये पुस्तकोंका नाम तो उसके उत्तराधिकारी - बयपालने ही कर दिया था. ईस्वीसन ११७४-७६ में गुबरातके मकयदेव नामक एक शैवराजाने राज्यपर आतेही बढी निर्दयतासे जैनोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com