Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविठकमान्य सोसायटी महावीर शासन पं. श्रीललितविजयजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ आत्मतिलक प्रन्यसोसायटी, पुस्तक नं. २७ म हा वी र शासन लेखकश्रीमान् वल्लभविजयजी महाराजके शिष्यरत्न पंन्यास श्रीललित विजयजीमहाराज मारवाड के सादडी सहर-निवासी शा. सहसमल्ल पुनमचंद और शा. दल्लीचंद मेघाजी, तथा मुंडारागांव निवासी शा. चैनमल्ल गंगाराम प्रदत्त द्रव्य महायसेवि সন্ধাঙ্কआत्मतिलक ग्रंथसोसायटी ठि. भारत जैन विद्यालय, पूना, सीटी वीर सं. २४४८] मूल्य छ आना [विक्रम सं. १९७८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लक्ष्मण भाऊराव कोकाटे यांनी पुणे पेठ सदाशिव घ. नं. ३०० येथे आपल्या 'हनुमान' छापखान्यांत छापिले. - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर राज्यान्तर्गत 'बीजापुर ' (परगना 'बाली' ) के निकटवर्ती 'हस्ति तुण्डी' प्रसिद्ध नाम 'राता महावीर' नानक प्राचीन जैन तीर्थस्थ जिन मन्दिर । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudhar हस्ति तुण्डी तीर्थस्थ भगवन्मूर्ति । bhandar-Umara, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री॥ महावीरदेव. मेरे ख्यालसे वीरप्रमु के चरित के कहने के पूर्व इस बात का परामर्श करना ठीक होगा कि महावीर देव के पूर्व भारतवर्ष की दशा कैसी थी । आजसे असंख्य वर्ष पहले नवम और दशम तीर्थंकर देव का मध्यसमय मारतवर्ष के धार्मिक इतिहासमें कलङ्करूप था । उस समय श्रीआदिदेव ऋषमनाथ स्वामी की स्थापन की हुई और तत्पश्चात् हुए हुए अजितनाथादि तीर्थंकरों की परिपुष्ट की हुई-धार्मिकमर्यादा लुप्त होगई थी | भरतचकी द्वारा निर्मित आर्यवेदों की शिक्षा का हास ही नहीं बल्कि अमाव ही होगया था | जिस भारतभूमिमें करुणारूप त्रिपथगा का विमल प्रवाह असंख्य वर्षोंसे चला आ रहा था, वहां उस समय दुर्वासनाओं की धूली उड रही थी। ___ जिस पवित्र निर्वाणजननी क्रिया को अनन्तज्ञानियों ने स्थापन किया था, उस का स्थान आडम्बरों से भरी हुई पुरोहितों ( याज्ञिको ) की शिक्षाओं ने ले लिया था, अतः वह उत्तम किया पैशाचिकरूपको धारण किये चली जाती थी । वेदवेत्ता पण्डितजन मी वेदऋचाओका अर्थ मूलते जा रहे थे। ___ सर्व साधारण और श्रेष्ठ विद्वान् बाह्मण-पण्डित-वेदशामाभ्यासी बाह्याडम्बरों में और स्वर्गसुखों के प्राप्त करने की लालसाओं में मुग्ध हुए पड़े थे। उस वक्त भारतवर्ष का जीवनप्रवाह कर्मकाण्ड-नास्तिकता अथवा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञान की तर्फ झुक रहा था, ब्राह्मणलोग प्राचीन काल के सुखों का स्वप्न देखते हुए और समय को न विचारते हुए दूसरी जातियों के स्वत्वों को छीन कर अपने अधिकार को बढाने का यत्न कर रहे थे । परमार्थमार्ग और अध्यात्मविद्या को थोडे से इने गिने मनुष्य भी जानते हों इसमें भी पूर्ण शंका थी। प्रवाहमार्ग ॥ आत्मनिरीक्षण-निरीहक्रिया -अन्तरदृष्टि-ज्ञानयोग-अपवर्ग कामनादि विशुद्ध मानव कर्तव्यों को छोडकर यज्ञपूजा-संसार वृद्धिनिबन्धन पशुवध आहूति प्रदानादिः क्रियाएँ सुखकर, सुगम और शास्त्रविहित मानी जाती थीं । ज्ञानप्राप्ति में उदासीनता होतीजाती थी, ज्ञानयोग के विपरीत कर्मकाण्ड का यथोचित पालन उनको स्वर्ग का देनेवाला प्रतीत होता था, परन्तु-वह यह नहीं समझते थे कि. दयाधर्मनदीतीरे, सर्वे धर्मास्तृणाकुराः तस्यां शोषमुपेत्तायां, कियत्तिष्ठन्ति ते चिरम् ? ॥ १ ।। सारांश यह कि स्वार्थरत और अज्ञान अधित हिन्दुओं की दशा उस समय अत्यन्त शोचनीय थी। जब जनता का हृदय इतना संकुचित हो तब वह कदापि श्रेष्ठतत्त्वों का अनुसरण नहीं कर सकती । ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्य कर्मकाण्ड के यज्ञमें झूठे मोहसे स्वर्गकामना के लालची हुए हुए अपने आत्मिक सुखों के पराङ्मुख होकर आत्मा की ही आहूति दे रहे थे | आत्मोन्नति का रास्ता वह मुला बैठे थे | जडवाद की महत्ता और असंयतियों की पूजा चारों तर्फ अपना महत्त्व जमा रही थी । अखिल जनसमाज को अपनी दृष्टि-अपना हृदय--अपना मन-और अपनी आत्मशक्ति-ब्राह्मणों की सेवा में ही लगा रखने की जबरदस्ती फर्ज समझो जाती थी । यही लोगोंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का परमधर्म समझा जाता था । " वर्णानां ब्राह्मणो गुरु: " इस वाक्यको ईश्वर वाक्यसमान अटल अबाध्य माना जाता था । ॥अवतारी का आगवन ।। उस समय बब कि मारतवर्ष की धार्मिक तथा सामाजिक अवस्था बगै ही बुरी थी । सुधारे का बालसूर्य दुर्दशारूपी रात्रीका नाश करने के, लिये उदय हुआ ! ! ! । क्षत्रियकुंण्ड नगर जो कि इक्ष्वाकु राजाओं की राजधानी थी, वहां विक्रम संवत् से ५४२ वर्ष पूर्व सिद्धार्थ राजा की स्त्री त्रिशला की कुक्षिसे एक प्रतापी बालक का जन्म हुआ, जिसको भारतवर्षमें ही नहीं बल्कि त्रिलोकी भरमें धर्म की-शुभकर्म की नीति की-आर्य रीति की-पारमार्थिक सुखों की एवं शुभवासनाओं की वृद्धि करनी थी। उस बालक का नाम “ वर्धमानकुमार रक्खा गया, परन्तु वह बाल्यावस्था में प्रसन्नतासे परीक्षापूर्वक इन्द्रादि देवताओं के दिये हुए वीर अथवा महावीर नाम से ही अपने जीवन के अन्त तक प्रसिद्ध रहा | महात्मा महावीर चन्मसे ही सूर-बीर-व गंभीर-मातापिता के परम भक्त-प्रजावत्सलदानशौण्ड और वदान्य थे । ___ आप तीन ज्ञानसंयुक्त थे, सर्व विद्यापारंगत थे, तथापि मोहवशीभूत होकर आपके मातापिता आपको शास्त्राध्ययन कराने के लिये किसी पाण्डित के पास ले गये, आप मनमें अहं कृति न कर सब कुछ देख रहे थे. जब यह घटना इन्द्रमहाराजने देखी तो वह मनही मन हसते हुए वहां आये जहां कि वीर कुमार पण्डित के मकान पर पा रहे थे, इन्द्र ने अपने ज्ञान से देखा कि इन इन बातोंका पण्डित को जन्म से संशय है तो, उन्हीं बालों की वार परमात्मा से पृच्छा की, परमात्मा तो अपौस्वेयज्ञानी थे अर्थात् सामान्य मनुष्यों से असंख्य गुणाधिक ज्ञानशक्ति के धारक थे, इन्द्र के पूछने पर बड़ी गंभीरता से उन प्रश्नों का आपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान किया । पण्डित प्रभृति सर्वजनों के आश्चर्य का पार नहीं रहा ! ! ! उस वक्त इन्द्र महाराज ने वीर कुमार की आत्मशक्ति का परिचय दिलाते हुए कहा मनुष्यमात्रं शिशुरेष विप्र! । नाशंकनीयो भवता स्वचित्ते । विश्वत्रयोनायक एष वीरजिनेश्वरो वाङ्मपारदृश्वा ॥ १ ॥ इनका विचारशील मन बालकपनसे ही पृथ्वी के वास्तविक लाभों के प्राप्त करनेमें था । दीनात्माओं की दुर्दशा को देख आपके उदारमन पर बडा आघात होता था । उस वक्त के आडम्बरों को देख आप समझते थे कि यह धर्म नहीं किन्तु धर्म के नाम से अज्ञता है, परन्तु सब कार्य देशकाल की अनुकूलता को पाकर ही सुधरते हैं । ___ आपको संसार का उद्धार करना सदा से प्रिय था, अत: आपने सुख को तिलाञ्जलि देकर जगत को सुधारना तथा शान्ति देनी ठान ली, इस विचार को दृढ करके आपने राज्य-स्त्री-परिवार-मालमिलकतस्वजनबन्धुओं-का परित्याग कर के-तीन अबज-अठासी कोड-अस्सी लाख-सोनाहियों का दान देकर संसार को छोड दिया । ॥ आत्मभोगपर सत्यसन्धा। छापका सिद्धांत था कि-"यदाराध्यं यत्साध्यं, यद्धयायं यच्च दुर्लभम् । तत्सर्व तप साध्य, तपो हि दुरतिक्रमम् ।। १ ।। " जो चीज आराधना करने योग्य है, जिसकी साधना मे तन मन धन की आहुति दी जाती है, जो योगियों के भी ध्यान करने योग्य है, जो चीज संसारमें अति दुर्लभ है. वह सब तपोबल से साध्य है, तप निकाचित कर्मकी गति को भी रोक सकता है, परंतु तपकी शक्तिको कोई नहीं रोक सकता, तपसे आत्मा की अनन्त शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, अर्थात् तपस्या के करने से मनुष्यको केवल ज्ञान केवल दर्शनकी प्राप्ति भी हो सकती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस वास्ते आपने साढे बारां बर्व १५ दिन वो घोर तप किया कि जिसको सामान्य आदमी एक दिन तो क्या ? बल्कि एक घडीभर भी न कर सके । तप करते हुए आपने ६=६ महिने तक अन्न और पानी नहीं लिया । साढे बारां तक क्या रात और क्या दिन, प्रायः खडेही खडे निकाल । लोगोंने आपके पाओको चुल्हा बनाकर रसोई बनाई आपके कानोके साथ हिंसक मांसाहारी पक्षियों के पिंजरे बांध कानो में कोले गाडे, आंख नाक कान वगैरह कोमल मर्मस्थानोमें धूल भरदी. देवताई मानुषिक-सपादिकृत जिन उपद्रवों को आपने सहन किया है उनके सहन का बल आत्मधैर्य सहिष्णुभाव आपके सिवाय अन्य प्राकृतिक मनुष्य का न हुआ है और न होगा, इतना करते हुए भी निराशारूपी अंधकार उन्हें अंशस भी घेर नहीं सका । स यरूपी प्रकाश का उदय हुआ किकेवल ज्ञान कहीं दूर नहीं था। आप वीतराग हुए, सर्ववित् हुए, सर्वज्ञसर्वदशी हुए, और संसारको अपनी शिक्षा देने का उद्यम करने लगे । [सार और साफल्य ] बापकी शिक्षा थी कि प्रत्येक मनुष्य-चाहे वइ उच्च जाति का हो चाहे नीच जातिका हो मोक्षका अधिकारी है, जो मनुष्य पवित्रतापूर्वक जीवन व्यतीत करता है और अनाथों अनाश्रितोंपर दया करता है उसको यज्ञाद्वारा देवताओंकी प्रसन्नता करने की अपेक्षा इस क्रियासे अधिक लाम है, और अधिक लाभ भी धिर्फ अनादिके दानकी वृत्तिको लेकर हे वरन् पशुवध तो घोर दुःख का हेतु है । फिर आपका करमान था कि मनुष्य की वर्तमानदशा उपोके कर्मोका फल है, यह कर्म चाहे इस जन्म के किये हो चाहे पूर्वजन्म के । अव्यात्म दशाके विचारसे अपका फरमान था कि जीवनका अविकांश दुःखल्प है चाहे वह अपने को कितना भी सुखी क्यों न मानवा हो । इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये मनुष्य को वह कार्य करना चाहिये कि जिससे वह पुनरागमनसे सदाके लिये मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त हो जाय, अर्थात् सांसारिक कदर्थनाओं से सदा के लिये छूट जाय । यह फल यज्ञों की सबल कियाओं द्वारा अथवा अनाथ पशुओं को निर्दय होकर अग्निमें झोक देने से कमी नहीं मिल सकता । हाँ पवित्रतापूर्वक जीवन गुजारने से और वासनाओं के दबानेसे हो सकता है। राजा और किसान, ब्राम्हण और शूद्र, आर्य और अनार्य, अमीर और गरीब, सबही वीर परमात्मा की शिक्षाओं को प्रेम से सुनते थे, आपके ज्ञानकी प्रभा विजली की तरह मनुष्यों के हृदयपर तत्काल असर कर जाती थी। जो लोग सिर्फ तमाशा ही देखनेको आते थे, आपके अपूर्वज्ञानके चमत्कार से चकित हो जाते थे । अद्धालुओं की तरह उन मनुष्योंपर भी आपका प्रभाव पडता था | [॥ परिवार परिचय ।।] परमात्मा महावीर देवने पहले पहल अपापा नगरी में उपदेश किया था, वहाँ इन्द्रभूति १ अग्निभूति २ वायुमृति ३ वगैरह ११ विद्वान् ब्राह्मण यज्ञक्रिया के करने के लिये एकत्र हुए हुए थे, उनको प्रमुने सत्यमार्ग सम झाकर अपने आद्य शिष्य बनाये । ये सर्व पण्डित ४४००--शिष्यों सहित प्रमुके चरणारविन्दोंमें आकर दीक्षित हुए थे। प्रमु खुद राज्य त्याग कर मुनि हुए थे इसलिये जिन का नाम आगे लिखा जायगा वह चेडा, श्रेणिक, उदायन, वगैरह राजा प्रभुके भक्त बने थे। ___ परमात्मा के संसागसारतादर्शक उपदेशको सुनकर ९९ कोड सोना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरें ३२ त्रियां का त्याग कर शालिभद्र उनके शिष्य हुए थे । शालिमद्र के अलावा और भी अनेक राजपुत्र जैसे कि मेघकुमार अभय. कुमार आदि, अनेक श्रेष्ठिपुत्र जैसे कि धन्नाकुमार और धन्नाकाकंदी, प्रमुचरणोंमें दीक्षित हुए थे । __ आपके पांचकन्याणक जिन का वर्णन आगे लिखा जायगा उनमें ६४ इन्द्र सहपरिवार हाजिर हुआ करते थे, परन्तु उनपरभी आपको बासक्ति नहीं थी। आपका मुख्य सिद्धांत था कि संसारक्षेत्रमें सत्यमार्ग खोजनेवालेको अपना जीवन उच्च बनाना चाहिये । उन्होंने अपने शिष्यों को इस कदर उपदेशद्वारा स्थिर किया था कि मरणान्तकष्टके आनेपर भी वह धर्मसे विचलित नहीं होते थे । आपके संप्रदायमें अनादि स्वभावके अनुसार स्त्री और पुरुष समी कल्याणमार्गको अखत्यार कर सकते थे । दीक्षित पुरुष-आर्य, मुनि, साधु, तपस्वी, ऋषि, भिक्षुक, निर्यन्य, अनगार और यति आदिके नामों से पहचाने जाते थे, और दीक्षित स्त्रिया-आर्या, भिक्षुणी, साध्वी, तपस्विनी निर्ग्रन्थी आदि नामों से पहचानी जाती थी । आपके निर्वाण के बाद भी गौतमादि आपके शिष्योने, उसमे भी खास करके सौधर्म स्वामीने आपकी शिक्षाओं का याथातप्यरूपसे प्रवाह प्रचलित रक्खा था । परमात्मा के आगम अर्धमागधी भाषामें थे, और १४ पूर्वो की विद्या संस्कृत भाषा में थी। आपके निर्वाण के बाद कितना ही अरसा बीतजानेपर आपके वाक्योंकी होती हुई छिन्नभिन्न दशाको अच्छे रूपमें स्यापन करनेके लिये मथुरा नगरीमें और वल्लभीमें सभाएँ हुई थीं, मथुरा की सभामें मुख्य नियामक स्कन्दिलाचार्य थे, और वल्लभीपुरकी सभामें मुख्य नियन्ता देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके शासन की ध्वजा संप्रति नरेशने और कुमारपाल सोलंकीने बहुत दूरतक फरकाई थी। [ प्रासंगिक रथ चक्रके समान गतिवाले इस संसारमें जिस जिस समय धर्म कियाओंका हास होता है उस उस समय भव्यात्माओं के पुण्य प्रकर्षसे संसार में उत्तम पुरुषोंका जन्म होता है । वह उत्तम जीवात्मा तीर्थकर तीर्थनाथ विश्वनायक कहे जाते हैं । जिन विशुद्धात्माओं ने इस पदवी पाने के तीन भव पहिले प्रकृष्ट तप आदि बीस अथवा उनमें से कतिपय सत्कृत्यों को सतत सेवन करके तीर्थकर नामकर्म दृढ बांधा हुआ होता है वही महापुरुष इस पदवी को हासिल कर सकते हैं । __ये अवतारी पुरुष जिस जन्मदात्री माता की कुक्षि में गर्भरूपसे स्थित होते हैं, वह माता इन भावी भाग्यशालियों की सूचनारूप चतुर्दश स्वप्नोंको देखती है। तीर्थकर देवों की पांच अवस्थाओं का नाम कल्याणक है, जिन के नाम यह हैं (१) यवनकल्याणक, २-जन्मकल्याणक, ३-दक्षिाकल्याणक, ४-केवलज्ञानकल्याणक, ५-निर्वाणकल्याणक । ___ इन पांचही कल्याणकों में देवेन्द्रादि असंख्य देव देवी आकर देवाधिदेव परमात्मा के गुणग्राम भक्ति शुश्रूषा करते हैं । ___ जन्मकल्याणक के समय सर्व इन्द्र परमेश्वर को सुमेरु पर्वत पर ले जा कर उन का स्नात्र महोत्सव करते हैं और बडी भक्ति से पूजा रचाते हैं । तदनन्तर बडी हिफाजत से उन्हें माता के पास रखकर अपने उपकारी के जन्म की खुशिये मनाते अपने २ स्थानों में चले जाते हैं | अन्य भी अनेक प्रसंगों पर देवेन्द्र, महर्द्धिक देव, और देविये प्रमु के दर्शन और सदुपदेश का लाभ लेने को आया करते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल ज्ञान के बाद जब समवसरण की रचना होती है तब देवेन्द्र चक्रवर्ती सपरिवार उपासना भक्ति में हाजिर होते हैं । ऐसे धर्म साम्राज्यशाली देवाधिदेव एक एक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालमें चौबीस चौवीस होते हैं । वर्तमान चौवीसीमें-१-श्रीक्रषभ देवी, २-श्रीअजितनाथजी, ३-श्रीसंभवनाथजा, ४-श्री अभिनन्दनजी, ५-श्रीसुमतिनाथजी, ६-श्रीपद्मप्रभुजी, ७-श्रीसुपार्श्वनाथर्जा, ८-श्रीचन्द्रप्रमुजी, ९-श्रीमुविधि नाथजी, १०-श्रीशीतलनाथजी, ११श्रीश्रेयांसनाथ जी, १२-श्रीवासुपूज्यजी, १३-श्रीविमलनाथजी, १४श्रीअनंतनाथजी १५-श्रीधर्मनाथजी, १६-श्रीशान्तिनाथजी, १७-श्रीकुंथुनाथजी, १८-श्रीअरनाथजी, १९ श्रीमल्लिनाथजी, २०-श्रीमुनिसुवतस्वामीजी, २१-श्रीनमिनाथजी, २२-श्रीनेमिनाथजी, २३-श्रीपार्श्वनाथजी, २४-श्रीवर्द्धमानस्वामी । ___ इनमें से जो अन्तिम तीर्थकर वर्द्धमान स्वामीजी हैं, उनका प्रसिद्ध नाम है महावीरदेव, वर्तमान कालमें जो शासन चलता है, इस के संचालक यही प्रमु हैं । इस देवाधिदेव के एकादश गणधर थे, जिनके नाम १-इन्द्रभूति ( गौतम स्वामो) २-अग्निभूति, ३-वायुभूति, ४व्यक्त, ५-सुधर्म, ६-मण्डित, ७-मौर्यपुत्र, ८-अकंपित, ९-अचलम्राता, १०-मेतार्य, ११-प्रभास, यह ११ ही मुनि श्रीमहावीर के मुख्य शिष्य थे | महावीर परमात्मा के निर्माण के दूसरे ही दिन गौतमस्वामी को केवल ज्ञान पैदा हुआ था । कुछ वर्षों के पीछे सुधर्मा स्वामी को केवल शान पैदा हुआ था। ___ इन्द्रभूति (गौतम) और सुधर्मास्वामी के अलावा नव ही गणघर महावीर प्रमु की हयाती में ही मोक्ष चले गये थे । गौतमस्वामी की अपेक्षा मी श्रीसुधर्मस्वामी दीर्घायु थे इस लिये प्रमुने गण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसुधर्मस्वामीजी के ही सुपुर्द किया था । गौतमस्वामी और शेष सभी गणधर राजगृही नगरी के रहनेवाले चौदह विद्याविशारद ब्राह्मण थे । [॥ तत्त्वज्ञानियोंकी आत्मकथा ॥1 जब श्रीमहावीर परमात्मा को केवल ज्ञान पैदा हुआ उसवक्त वे सब मिलकर नगर के बाहिर यज्ञ कर रहे थे । उसी अवसरमें महावीरको केवल ज्ञान पैदा हुआ था अत एव महा वीर प्रभुका ज्ञानोत्सव करने के लिये आकाश मार्गसे उतरते हुये देवता ओं को देखकर गौतमादि ब्राह्मण और उनके शिष्य पंक्ति के ४४०० ब्राह्मण इस बात की निहायत खुशी मनाने लगे कि हमारे किये इस यज्ञ के प्रभाव से ये सब देवता आ रहे हैं । परन्तु वे जब सर्व यज्ञ पाटक को छोडकर आगे बढे तो सबको संशय हुआ कि ये देवता कहाँ जाते हैं ? लोगोंसे पूछा तो मालम हुआ कि ये सब सर्वज्ञ को वन्दना करने जारहे हैं । यह सुनकर इन्द्रभूति को बडा आमर्ष हुआ । वह सोचने लगा-संसार में आज मेरे सर्वज्ञ होने पर भी दूसरा सर्वज्ञ है कि जिसके पास ये सब दौडे जारहे हैं ? बडे आश्चर्य की घटना तो यह है कि इस वक्त परमपवित्र यज्ञमण्डप भी इन्हे नजर नहीं आता ! ! क्या जाने क्या कारण है कि यज्ञपर इनको अन्तर प्रेम ही नहीं जागता ? | अस्तु जैसा वह सर्वज्ञ होगा वैसेही ये देवता भी होंगे । भ्रमर को सुगन्धित फूलोपर और कौओंको निम्बकी निंबोलियों पर ही प्रेम हुआ करता है । ___परमात्माके दर्शन कर वापिस लौटते हुए लोगों को इन्द्रभूति ने कुछ हंसकर पूछा क्यों भाई ! सर्वज्ञ देखा ? कैसा है ? जवाबमें उन्हों ने सिर हिलाकर कहा-क्या पूछते हो ? तीन लोक के सर्व जीवात्मा गिनती करने लगें, आयुकी समाप्ति न हो ! गणित को पराधसे भी आगे बढाया जाये तो भी उस ज्ञानसागर के गुणों की गणना करना असंभव और अशक्य है । अरे आश्चर्य । महदाश्चर्य ! ! वाहरे धूर्त ! ! किसीने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ मूर्ख मनुष्यों को ठगा, किसीने स्त्रियों को, किसीने बाल और गोपालों को परन्तु तूने तो चतुर मनुष्यों को, और बिबुध कहलाते हुये देवताओं को भी जाल में फंसाया ! अच्छा खद्योत और चन्द्र का प्रकाश सूर्यके मागे कितनी देर ठहरेगा ? । अभी आता हूं, तेरे साथ विवाद करकेतुझे परास्त करता हूं । एक म्यान में दो तलवारे, एक ही गुफामें दो सिंह, या एक गगन में दो सूर्य, कभी किसीने देखे या सुने हैं ? | इस प्रकार विविध आडम्बरों को दिखाता हुआ इन्द्रमूर्ति अपने पांचसो ५०० शिष्यों को साथ लेकर प्रभुके पास आया । प्रभु अपने ज्ञानसे उसका नाम गोत्र और गुप्तरहा हुआ उसके मनका संशय जो कि उसने सर्वज्ञत्व की क्षति के भयसे किसी के पास आज तक जाहिर नहीं किया था उसे भी जानते हैं । गौतम आकर जब सम्मुख खडा रहा तब " हे गौतम ! इन्द्रभू त्वं सुखेन समागतोसि ? " इस तरह प्रभु उसको बुलाते हैं । महावीर के मुख से अपने नाम और गोत्र को सुनकर गौतम ने विचार किया, अरे ! यह तो मेरे नाम गोत्र को भी जानता है । अथवा जगद्विख्यात मेरे नाम को कौन नहीं जानता ? अगर यह मेरे मनोगत सन्देह को कहे तो जानूं कि यह सच्चा सर्वज्ञ है । गौतम के मनोगत माव को जानकर त्रिकालवित् महावीर देव कहते हैं हे विद्वन् ! तेरे मनमें " जीव है या नहीं ? " इस बात का संशय है और उसका कारण वेदमें रही हुई. - " विज्ञान घन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवाऽनुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति " और ―" सवै अयं आत्मा ज्ञानमयः " इत्यादि । तथा - " द द द " अर्थात् - दमो दानं दया इतिदकारत्रयं यो जानाति स जीवः ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दो ऋचाएँ हैं । पहिली ऋचासे जीव का सर्वथा अभाव प्रतीत होता है, और दूसरीसे जीव की सिद्धि भी हो सकती है । साधक और बाधक प्रमाणों के मिलनेसे तुहारा मन संशयान्दोलित होर हा है, परन्तु इन ऋचाओं का यथार्थ अर्थ तुम्हारे ख्यालमें नहीं आया, सुनो हम तुमको इनका परमार्थ समझाते हैं । ___“ विज्ञानघन" यह आत्मा का नाम है | जब आत्मा घटपटादि किसी भी चीज को देखती है तब वह उपयोग रूप आत्मा इन्द्रियगोचर पदार्थों को देखती सुनती है या किसी भी तरहसे अनुभव गोचर करती है, उसवक्त उन अनुभवगोचर पदार्थोसे ही उस उस उपयोगरूप से पैदा होती है और उन पदार्थों के नष्ट होजानेपर या दूर होजानेपर वह उसरूप अर्थात् घटपटादि पदार्थ परिणब आत्मा उस उस उपयोग से हट जाती है, उस हालत को लेकर कह सकते हैं कि उन उन घटपटादि भूतों से अर्थात् भूतविकारों से उपयोगरूप वह आत्मा उत्पन्न होती है, उनके विखर जाने पर उनमेंही लय होजाती है । ___ "न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति " पहिले जो घटपटादि उपयोगात्मक संज्ञा थी, फिर वह कायम नहीं रहती, उन पदार्थों से हटकर आत्मा अन्यान्य जिन र पदार्थों में उपयोगरूप से परिणत होती है उस उस पदार्थ के रूपसे नई संज्ञा कायम होती है, इस समाधान से और प्रमुके जगदद्वैत साम्राज्य के देखनेसे इन्द्रभूति (गौतम ) ने दीक्षा स्वीकार करली । इन्द्रभूति वीर परमात्माके प्रथम शिष्य हुए । इस बात को सुनकर अग्निभूति, वायु ति आदि सर्व पण्डित अपने अपने परिवार को लेकर आये । मनोमत संशयों को निवृत्त करके उन सबने जगद्गुरु महावीरदेव के पास संयम अखत्यार किया । प्रमुने इन एकादश मुख्य पंडितों को अपने गणघर कायम किये । और गच्छ का मालिक सुधर्मा स्वामीको ही बनाया | ___ मौतमस्वामी प्रमुके निर्वाण के दूसरे ही दिन केवली होकर १२वर्षतक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारमें अनेक उपकारों को करते हुये भूमंडलपर विचरते रहे और पमुके निर्वाण के २० वर्ष पीछे सिद्धि गति को प्राप्त हुए । सुधर्म स्वामी के पाटपर श्रीजम्बूस्वामी बैठे । बस जम्बूस्वामी महाराज ही अन्तिम केवली कहे गये हैं । ___ जम्बूस्वामी का इतिहास परिशिष्ट पर्व भाग पहिले से और साहित्य संशोधक भाग तीसरे से जान सकते हैं । पहले इस बात का सामान्यतया उल्लेख हो चुका है कि-जैनधर्म के प्रवर्तक हरएक तीर्थकर की पांच अवस्था विशेष को जैन पारिभाषिक शब्दोंमें कल्याणक कहते हैं । वीर परमात्मा का जीवात्मा नयसार के भवमें सम्यक्त्व से वासित होकर २६ भव अन्यान्य गतियोंमें भोगकर सत्ताईसवें मवमें त्रिशला राणी की कुक्षिमें आकर पैदा हुये, इतने वृत्तान्तका नाम च्यवनकल्याणक है | अनादि काल के अवासित प्राणीने पहिले पहिल मुनि का दर्शन करके किस उच्च आशय से उनका सत्कार किया है किस धर्मप्रीति से वह उनसे वर्ताव करता है, उसका अनुभव करनेवालों के लिये हमारे परमोपकारी गुरुमहाराज की बनाई “ महावीर पंचकल्याणक " पूजा की पहिली ढाल यहां लिखी जाती है (दोहा) जब से समकित पाइये, तब से गणना आय । वीरजीव नयसार के, भव में समकित पाय || १ ।। (सारंग कहरवा हमे दम दे के चाल ) समकित आतम गुण प्रगटाना, | टेक । समकित मूल धरम तरु दीपे । विन समकित न चरण नवि ज्ञाना || स० १ ।। अपर विदेहे नृप आदेशे । काष्ठ लेने नयसार का जाना ।। स० २ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ भोजन समय में निरखत अतिथि पुण्ययोग युग मुनि हुओ आना || स० ३ ।। धन्य भाग्य मुझ मन में चिंती । निरवद्य आहार पानी दिया दाना || स० ४ ।। जोग जानी मुनि देशना दीनी, पाया समकित लाभ अमाना || स० ५ ।। द्रव्य मारग बतलाया मुनि को । भाव मारग किया आप पिछाना || स० ६ ।। आतम लक्ष्मी कारण समकित हर्ष धरी वल्लभ मन माना || स० ७ ॥ जिनेश्वर देव का माता की कुक्षिसे जन्मना, संसार भर के जीवों को उस समय आह्लादित होना, इन्द्रासनों के चलायमान होनेपर असंख्य देव देवियों का राजा सिद्धार्थ के घर आना, लोकाधार उस बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाना, और जन्मोत्सव करना, पीछे जाकर बालकको माता के पास रखना, मंदार प्रभृति के पुष्पों से प्रभुकी अर्चा करना, धनधान्य से प्रमु के माता पिताओं के निवासगृह की पूर्तिकरना, माता पिता कृतजन्मोत्सव, नामस्थापना, पाठनविधि का उपक्रम तथा युवावस्था में माता पिता के स्वर्गारोहण के पश्चात् अपने बडे भाई नन्दीवर्धन से पूछकर दीक्षा लेने के पहिले पहिल का महावीरका जितना वृत्तान्त देखो उसको जन्मकल्याणक के अन्दर ही समझना चाहिये । जन्मकल्याणक की शुरूआत नीचे की ढाल से होती है । ( दोहा ) 1 जन्म समय जिनदेव के जनपद सुखिया लोक | वायु सुखकारी चले, आनन्द मंगल ओक ॥ १ ॥ चैत्र शुक्ल तेरस मली, ऋक्ष उत्तरा जोग । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ मध्यरात्रि जिन जनमिया, पूर्ण पुण्य फल भोग ।। २ ।। शान्त दिशा सब दीपती, त्रिमुवन हुओ प्रकाश । छप्पन दिशि कुमरी मिली, आई चित्त हुलास ।। ३ ।। [देश-त्रिताल-लावणी] जनमें जिनदेव-मति-श्रुत-अवधि-ज्ञानी पूरण जस पुण्य की अद्भुत एह निशानी ।। ज० मड थान से छप्पन दिशि कुमरी मिल आवे, देखी प्रमु झगमग ज्योति अति हर्षावे । अधोलोक की आठ संवर्तक वायु चलावे, एकयोजन भूमि अंदर अशुचि उडावे । वरसावे आठ ऊर्ध लोक कुमरी फूल पानी ।। ज० १ ।। पूरख दक्षिण पश्चिम उत्तर इम चारे, कम से अठ अठ कुमरी निज काज संभारे । दर्पण कलशालि पंखा चामर धारे, चउ विदिशि की चउ दीप धर उजीयारे । चउ मध्य रुचक की आवे कुमरी सयानी ।। ज० २ ।। कदलीघर तीन बनाय विधि से करती, मर्दन पूरवघर स्नान दक्षिणे धरती | उत्तर पर रक्षा बन्धन को अनुसरती, जिन जिन अम्बा नमी माव पाप को हरती । जीवो चिरकाल जिनंद वदे मुख वानी ।। ब० ३ ।। इम छ-पन दिशि कुमरी प्रमुके गुण गाती, करके निजकल्प अनादि सदन निज जाती । घन्य देवजन्म हम प्रमुमक्ति से मनाती, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आतम लक्ष्मी कारण समकित चमकांती | हर्षे वल्लभ प्रभु देख मुख सुख दानी || ज० ४ ॥ नन्दीवर्धन की अनुमति, वरसीदान, पंचमुष्टिलाच, चतुर्थज्ञान की प्राप्ति, साढे बारह वर्ष की अति कठिन तपस्या, विहार और भयंकर परीषह, उपसर्गों की तितिक्षा यावत् केवलज्ञान से पहिले पहिले का जितना वर्णन है वह सब तीसरे दीक्षाकल्याणक में ही समझना चाहिये | विशेष स्पष्टता के लिये नीचे लिखे पाठ को पढो । (दोहा) जाने निज दीक्षा समय, पिण लोकान्तिक देव । कल्पकरी प्रभु बूझवे, करते प्रभुपद सेव ।। १ ॥ जय जय नंदा मद्द है, जगगुरु जगदाधार । धर्म तीर्थ विस्तारिये, मोक्षमार्ग सुखकार ॥ २ ॥ ( लावणी ) वरसी दान देवे जिन - राज महा दानी रे | टेक अंचली ॥ अनुकंपा गुणधार, जन को द्वारिद्र टार | जिन हाथे दान ग्रहे भव्य तेह मानी रे ।। व० १ ।। एक कोडी आठ लाख, एक दिन दान आख । संवछर तक इसविधि दान मानी रे || व० २ ॥ वर्ष दोय होए पूरे, पूरे प्रतिज्ञा में सूरे । हवास वर्ष तीस रहे प्रभु ज्ञानी रे ।। व० ३ ॥ नगर सजावे राय, थावे इन्द्र हाजर आय | विधि से करावे स्नान इन्द्र इन्द्रानी रे || व० ४ ॥ देव के कलश सारे नृप के कलश धारे । स्नान नन्दिवर्धन करावे हर्ष आनी रे || व० ५ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर प्रमु सज होवे, आतम लक्ष्मी जोवे । वल्लभ हर्षमन दीक्षा जिन पानी रे ।। व० ६ ।। अनेकानेक प्रकार के दुस्सह कष्टों को समतापूर्वक सहन करके केवलज्ञान का पाना, देव देवेन्द्र, राजा, महाराजा, सेठ, साहूकार और १२ ही पर्षदाओं का एकत्र होना, धर्मोपदेश द्वारा तीर्थस्थापना का करना, अन्यान्यदेशों में फिर कर अनन्त बहिरात्माओंको अंतरात्मा बना . कर उन के हृदयों में धर्मवीजका बोना, यावत् निर्वाण के पहिले पहिले के चरितांश का नाम केवलज्ञान कल्याणक है । सुनिये-ध्यान दीजिये ( दोहा ) संयम शुद्ध प्रभाव से, तीर्थकर भगवान । दीक्षा समये ऊपजे, मनपर्यव शुभ नाण ॥१।। विचरे देश विदेश में, कर्म खपावन काज । परिषह अरु उपसर्ग को, सहते श्री जिनराज ।।२।। गोसाला गोवालिया, चंड कोसिया नाग । सूलपाणि संगम दिया, सहिया दुःख अथाग ।।३।। सुदि दशमी वैशाख की, उत्तर फाल्गुन जान । शाल वृक्ष नीचे हुओ, निर्मल केवल भान ।। ४ ।। (वसंत-होई आनन्द बहार ) आज आनन्द अपार रे प्रभु केवल पाया । केवल पाया घाती खपाया । आज० अंचली ।। उग्रविहारी जगत में रे, जिनवर जग जयकार रे ।।प्र० १।। धर्मध्यान घोरी बनी रे, ध्यान कुशल लिया लार रे ।।प्र० २।। ध्यान ध्येय ध्याता मिली रे , काढे घाती चार रे ॥प्र० ३।। प्रगटे केवल ज्ञानके रे. प्रगटे आतम सार रे ।। प्र० ४ ॥ आतम लक्ष्मी पामीया रे , वल्लभ हर्ष अपार रं ।। प्र० ५ ॥ बस तीस वर्ष गृहस्थावस्थाके, साढे बारह वर्ष १५ दिन छद्मस्थावस्थाके, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पंद्रह दिन कमती साढे उनतीस केवली अवस्था के कुल ७२ सालकी सर्वांयु पूर्णकर वीर परमात्मा अपापापुरी में आते हैं। योगनिरोध करनेके पहिले अन्तिम धर्मोपदेश को फरमाते हैं । अन्तिम क्रिया जिसका नाम योगनिरोध है उसके बलसे योगातीत हालत को प्राप्त कर विनश्वर शरीर को त्याग कर प्रमु निर्वाण पधारते हैं। गौतम स्वामीका विलाप, इन्द्र और देवोंका घोर शोक, नन्दीवर्धनका रुदन प्रभुका अग्निसंस्कार करके इन्द्रोंका नन्दीवर्धन को दिलासा देकर प्रमुकी दाढाओं को लेना, नन्दीश्वरतीर्थकी यात्रा करके देवदेबियों का अपने स्थानों पर जाना, यह सब निर्वाण कल्याणक की क्रिया है । - पहिला कल्याणक आषाढ सुदी ६ दूसरा चैत्र सूदी १३ तीसरा मार्गशीर्षवदी १० चौथा वैशाख सुदी दशमी १० पांचवाँ कार्त्तिकवदी १५ | खुलासा नीचे दर्ज है ( दोहा ) तीस तीस घर केवली, छद्म अधिक कुछ बार | पूर्णायु प्रभु वीर का, बार साठ निरधार ॥ १ ॥ वसुधातल पावन करी, ऊन वर्ष कछु तीस । निकट समय निर्वाण को; जानी श्रीजगदीश ।। २ ।। पचपन शुभफल के कहे, पचपन इतर विचार | प्रश्न करे छत्तीस का, बिन पूछे विस्तार ॥ ३ ॥ ( कव्वाली ) प्रभु श्रीवीरजिन पूजन, करो नरनारी शुभभावे ॥ अ० || किया उपकार जो जगमें, कथन से पार नहिं आवे | तजी भवी मान सब अपना, नमन करी नाथ गुण गावे ||१|| सहस छत्तीस साधवीयां, सहस चउद साधु गण थावे । केवली वैक्रिय सत सत सो, वादी सय चार कह लावे ।। २ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओही मन पर्यन ज्ञानी, तेरांसो पांचसो मावे । पूरव चउदधारी शत तीनो, चउदसो साध्वी शिव जावे ॥ ३ ॥ श्रावक एक लाख व्रत धारी, एगुण सठ सहस बतलावे । श्राविका लाख तिग सहसा, अठारा सूत्र परमावे ॥ ४ ॥ प्रमु परिवार परिवारिया, अपापा नगरी दीपावे । अमा कार्तिक रिख स्वाति, प्रमु निर्वाण सुख पावे ।। ५ ।। आतमलक्ष्मी पति स्वामी, हुए निबरूप उपजावे । अटल संपत् प्रमु पामी, वल्लभ मनहर्ष नहीं मावे ॥ ६ ॥ [च्च जीवात्माओंके उच्च जीवन की उच्च घटनायें] ॥ दया दृष्टि और दीनोद्धार. ।। परमात्मा चारित्र लेकर देशदेशान्तरोंमें विहार कर रहे हैं । उन्होंने देखा कि अमुक विकट अटवीके अमुक स्थलमें “ चंडकौशिक " नामक दृष्टिविष सर्प रहता है । उस क्रूराशयवाले अज्ञानी जीवने आज तक असंख्य निरपराधी जीवोंकी जीवनयात्राको समाप्त कर दिया है । उसकी तीव्र दृष्टिज्वालासे भस्मसात् होकर पक्क फलोंकी नाइं पक्षिगण धडा घड नीचे गिर रहे हैं । इस मयसे उस जगहका आकाशमार्ग भी बन्द हो चुका है । संख्यातीत जीवोंके प्राणोंका शत्रु होकर, वह बिचारा निपट नरकातिथि हो रहा है । यह सोचकर प्रमु उसके उपकारके लिये उसी कनखल आश्रमकी तरफ जहाँ कि वह सर्प रहता था चल पडे । मार्गमें जाते समय ग्वालोंने उनको रोका और संपूर्ण वृत्तान्त उस सर्पका कह सुनाया, और साथमें यह भी कह दिया कि इस मार्गके बदले दूसरा मी मार्ग है बो थोडा बाँका होकर जाता है, आप उधर होकर जाइये जिससे आपको शारीरिक आपत्ति न भोगनी पडे । ___महावीरने शानद्वारा जान लिया कि यह पामर जीव पूर्वकृत दुष्कृतोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावसे सर्वमक्षी हो रहा है " परोपकारः पुण्याय" यह सनातन पथ मुख्य तया हमारे लिये ही है | अन्तमें आप निभींकावस्थासे उसी रास्ते होकर चण्डकौशिकके बिल पर जा खडे हुए । सर्प मनुष्यका आमा देखकर क्रुद्ध हुआ और बिलसे बहिर निकल कर सोचने लगा | अरे ! जहाँ मेरे भयसे आकाशमार्ग भी बन्द हो रहा है वहाँ यह मनुष्य ! स्रो मी मेरे द्वार पर !! - बस कहना ही क्या था ? एक तो सर्प और वह भी दृष्टिविष । पहिले तो उसने लाल आँखें करके प्रभुपर आँखोंका जहर छोडना शुरू किया । और जब इस क्रियासे थक गया, तब महावीर प्रमुके चरण पर डंक मारा । भगवद्देव उस दुःखसे जराभी दुःखी नहीं हुए, जरा नहीं घबराए । सत्य कहा है “ कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन किं मन्दराद्रि शिखरं चलितं कदाचित् ? | " परिणाम यह हुआ कि उस उत्कटरोषी महा अपराधी सर्पको परमेश्वरने शान्त किया । जमवत्सल प्रमुके प्रभावसे उसे जन्मान्तरका ज्ञान हुआ । परमात्माके समक्ष पन्द्रह दिनकी महा तपस्या करके प्रभुके सुधामय उपदेशको सुनकर वहक्रूर काय सर्प १५ दिन के पश्चात् इस रौद्र शरीरका त्याग कर आठवें देवलोक में पहुंचा। " सिक्तः कृपासुधा वृष्ट्या, वृष्ट्या भगवतोरगः । पक्षान्ते पञ्चतां प्राप्य; सहसारदिवं ययौ ।। १ ।।" (त्रिशष्ठिश पु. च.) पूज्य-पूजक समाज. प्रमुकी हयाती में अठारह देशके राजा जैनधर्म के प्रतिपालक थे। श्री महावीर प्रमुके मामा चेटक (चेडाराजा ) जो कि विशाला नगरीके ____ * “ अवश्यं चैष बोधाई इति बुद्धया जगद्गुरुः । आत्मपीडा मगणय न्नृजुनैव पथा ययौ ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुकुटबद्ध राजा थे, उन्होंने प्रमुके समक्ष गृहस्थाश्रमके योग्य श्रावकके बारह व्रत धारण किये थे । मगध देशके स्वामी श्रेणिकराजा तो आप के परमभक्त ही थे । उनका लडका कूणिक (अशोकचन्द्र) जो कि बापकी मृत्युके बाद चंपानमरीमें राज्य करने लगा था, बडा प्रतापी साम्राज्यशाली शुद्ध जैनधर्मी राजा था ।। २ ।। उज्जैनी का नरेश चन्डपद्योत महावीर देव का गाढ भक्त था । पंजाब के पश्चिम भागमें “ वीतभयपत्तन " जिसे आज कल मेरा कहते हैं एक बडा आबाद और अकलीम शहर था वहाँ का राजा उदयन शुद्ध श्रावक था | कूणिक ( अशोकचन्द्र ) का उत्तराधिकारी उदायी राजा जैनधर्ममें बडा ही चुस्त था, और महावीर भगवानकी शिक्षाओंको पूर्णप्रेम से पालता था । अन्तमें प्रमुके पास दीक्षा लेकर मोक्षाधि कारी हुआ था | प्रदेशीराजा प्रमु को बढे जलूस के साथ वन्दन करनेके वास्ते आवा था |राजा दशार्णभद्र जहाँ तक गृहस्थाश्रम में रहा पूर्णप्रेम से प्रमुसेवा मे तत्पर रहा, और अन्तमें जगद्गुरु महावीर परमात्माकी दीक्षा लेकर कल्याणमाजन हुआ । मगवद्देवके निर्वाण समय अपापा नगरी में किसी कारणवशात् अठारह राजा एकत्र हुए थे, ये सब जैन धर्मा थे । ॥महधिक श्रावक । ( १ ) वाणिज्य ग्रामका रईस आनन्द नामा जमीनदार आपका श्रावक था, इस के पास बारह करोड सुवर्ण मुहरें और चालीस हजार गायें थीं। यह व्यापार कर्ममें बहा प्रवीण था | इसके पाँचसौ जलयान् (जहाज ) समुद्रमार्गसे भ्रमण किया करते थे। और पाँचसौ गाडि ये लकरी घास वगैरह के लिये रहती थीं । (२) कामदेव श्रावक जो कि चंपानगरीका रहनेवाला था इसके यहाँ १८ कोट अशरफियाँ और ६० हजार गाये थीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ( ३ ) बनारस का चुलनीपिता नामक श्रावक भी १२ व्रतवारी पास मी २४ कोड सुवर्ण मोहरें और ८० हजार था, इस के गायें थीं । . ( ४ ) सुरादेव श्रावक भी बनारस का ही रहनेवाला था । उसके यहाँ १२ क्रोड़ सुवर्ण मोहरे और २६००० गायें थीं । (५) चुल्लशतक श्रावक आलंभिका नगरी का एक प्रसिद्ध व्यापारी था उसके पास १२ क्रोड सुवर्ण मोहरोंकी और ६००० गौओकी संपत्ति थी | ( ६ ) कुण्ड कोकिल श्रावक कांपिल्यपुर का रहने वाला था । उसकी हैसियत १२ क्रोड सुवर्णमोहरोंकी और ६००० गौओकी थी । ( ७ ) पोलासपुर नगर का रहनेवाला सद्दालपुत्र ( कुंभार ) प्रभुका श्रावक था, तीन क्रोड अशरफियें और ५०० मट्टी के बरतनोंकी दुकानें इसकी दौलत थी | f यह राजगृही का गायें थीं | इस्र · ( ८ ) आठवें श्रावक का नाम महाशतक था । रहीस था, इसके पास २१ क्रोडसोनैयें और ८००० श्रावक की १३ स्त्रियाँ थीं । प्रधान स्त्रीका नाम रेवती था । यह एक वढे दौलतमंदकी लडकी थी । इसको इसके बापकी तरफसे ८ क्रोड सोनैये और ८००० गायें दहेज में मिली थीं । ( ९ ) ऐसे ही सावत्थीका रहनेवाला नन्दिप्रिय श्रावक भी बढा खानदान और दौलतमन्द था । ( १० ) सावत्थीका रहनेवाला तेतलीपिता भी १२ क्रोड सोनैयो की और ४००० मौओं की हैसियत भोगता था । इसके अलावा धन्ना, शालिभद्र, धन्नाकाकंदी वगैरह अबजपति साहूकार महावीर प्रमुके सेवक थे । जंबुकुमारने ९९ कोटि सोनैये छोड कर ५२६ स्त्री पुरुषोंके साथ प्रमुके शिष्य सुधर्मा स्वामी के पास दीक्षा ली थी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ परमात्माका संदेश ॥ श्रूयतां धर्मसर्वस्वं; श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।। १ ।। संसार में प्राणिमात्र को सुख इष्ट है, और दुःख अनिष्ट है । विकलेन्द्रियसे लेकर इन्द्रपर्यंत सर्व प्राणी सुख के अमिलाषी हैं, परन्तु सुख की प्राप्तिके साधनों को कैसे संपादन करना, इस बात का समझना जरा कठिन है । कितनेक विचारे मोहमूढ पुदगलानन्दी जीव अपने सुख के लिये दूसरे को दुसमें डालने के उपाय करते हैं । कोई एक धनके नष्ट होनेपर अन्याय चोरी आदि अनाचार करते हैं । कितने ही प्रथम झूठ बोल कर जब किसी प्रसंग में खूब तंग हो जाते हैं तो फरेब कर मुक्त होना चाहते हैं । निःपापको सपाप और पापीको निष्कलङ्क बनानेका उद्यम करने में अपना कौशल प्रकट करते हैं | अपने माथे पर चढ आये हुए आपत्तिके बादल जब दूसरे किसी पर बरस जाते हैं तो धर्महीन अज्ञ खुशी मनाते फूले नहीं समाते हैं । परन्तु वे यह नहीं समझने कि अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम् । नक्षीयते कृतं कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।। १ ।। ( बल्कि.) राग द्वेष के दृट आवेश में आकर धर्म से सर्वथा निरपेक्ष होकर यदि पापाचरण किया जावे तो उस कर्मका परमाणु मात्रसे मेरु होडर मी छूटना कठिन हो जाता है । अपने दोषको न देखकर सिर्फ दूसरे धीवात्माको संताप देकर और आप खुद अकृत्यसे निवृत्त न होकर अपने अमूल्य जीवनको व्यर्थ करने में मी मनुष्य पीछे नहीं हटता !! ऐसी. दशामें उसे उपदेश का देना, सन्मार्गका बतलाना व्यर्थ है । इस विषयमें आचार्य श्री हरिमद्र सूरिजीका एक सूत्र मनन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ करने योग्य है उन्होंने योग्य मनुष्य को उपदेश देनेका अधिकार वर्णन करते समय कह दिया है कि “ ये वैनेया विनयनिपुणैस्ते क्रियन्ते विनीताः, नावैनेया विनयनिपुणैः शक्यते संविनेतुम् । दाहादिभ्यः समलममलं स्यात्सुवर्ण सुवर्ण, नायस्पिण्डो भवति कनकं छेददाहक्रमेण ।। १ ।।” अर्थः- जो मनुष्य स्वभावसे ही विनयनिपुण होगा उसे ही उपदेष्टा विशेष ऊंचे दर्जेपर चढा सकता है । जो स्वभाव से ही कठोर परिणामी है, छला है, छिद्रान्वेषी है, परवंचक है, उसे कोटि उपदेश भी मार्गगामी नहीं कर सकते ! इस बात पर आचार्य एक प्रत्यक्ष दृष्टान्त देते हैं कि जा सुवर्ण कुछ अन्य कुधातुओंसे मिश्रित है परन्तु है जातिका सुवर्ण उसी को तेजाब वगैरह के योग से शुद्ध कुन्दन बनाया जा सकता है | परन्तु जो है ही लोहेका टुकडा उसको छेद - दाह - ताडन, तापनादि अनेक उपाय कर के भी कोई सुवर्ण नहीं बना सकता । कहावत है कि " सौमन साबन मलके धोवे गर्दभ गाय न थाय " ॥ संसार स्वरूप || ध्यान हुताशन में अरि ईंधन, झोक दियौ रिपु- रोक निवारी | शौक हर्यो भविलोकन कौ वर, केवलज्ञान मयूख उघारी || लोक अलोक विलोक भये शिव, जन्म जरा मृत पंक परकारी । सिद्धन थोक बसे शिव लोक, तिन्हें पग धोक त्रिकाल हमारी ॥ | १ || किसी भी राष्ट्र समाज या धर्मकी उन्नति का प्रधान कारण तद्वि षयक शिक्षा ही है । सुशिक्षितों को ही अपने अपने देश समाज धर्मकी यथार्थ परिस्थितिका भान हो सकता है । वही उसका उपाय सोच सकते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । ऐसे सुशिक्षित मनुष्य जिस जातिमें जितने ज्यादा होंगे उतना ही अपना-अपने राष्ट्रका समाज का या कुटुम्बका भला कर सकेंगे। ___ वर्तमान समयमें देखो जापान जो एशिया के हर्ष का वर्द्धक हो रहा है । उसका कारण आज शिक्षाप्रणाली के सिवाय अन्य क्या माना जा सकता है ? जैसे सूर्य तुम्हारे सामने चक्कर लगाता हुआ दृष्टिगोचर होबा है ठीक उसी प्रकारसे सारा संसार नीचेसे ऊपर ऊपरसे नीचे उदयसे अस्त अस्तसे उदय इन पर्याय धर्मों का वेदन करता चला जा रहा है। ___ संसार का कोई पदार्थ स्थिर नहीं सृष्टि क्रम यह बता रहा है । समय यह कह रहा है कि वह एक न एक दिन नीचे आयेगा, गिरेगा, उसकी जरूर अवनति होगी जो ऊपर गया है, इस विकराल कालकी चालसे बचे हैं तो परमात्मा बचे हैं, बाकी सर्व संसारी जीवोंका चाहे वह इन्द्रसे भी ऊपरके अहामन्द्र क्यों न हों ? एक रास्ता है । ___ संसार और संसारी जीवात्माका ऊपर जाना नीचे आने ही के लिये है । जैसे उन्नति का अन्त अवनति पर ठहरा हुआ है वैसे ही अवनति के बाद अवश्य उन्नति है । ____ इस नियमका उल्लंघन वह कर सकता है जो संसारसे मुक्त होगया है, वरन् संसार उसीका नाम है जो कोई इस नियम का उल्लंघन न कर सकता हो | कवियों की मान्यता है कि जो जल समुद्र से उठकर माप होकर बादल बन कर अहंकार से मत्त हुआ हमारे ऊपर आकाश में घूम रहा है, इतना ही नहीं, बल्कि-गर्जना और तर्जना कर रहा है, कौन नहीं जानता कि वह एक न एक दिन नीचे आवेगा, और वहाँ बायेगा जहां से आया था । बस यह संसार ही नहीं किन्तु संसार चक्र मी है । आपने अब इसका मतलब अच्छी तरह समझ लिया होगा, अधिक कहना श्रोताओं की बुदिकी अवज्ञा करना है । कवि कालिदासने लिखा है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ " यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरौषधीना___ माविकृतोऽरुणपुरस्सर एकतोऽर्कः । तेजोदयस्य युगपद् व्यसनोदयाभ्यां : लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु ॥१॥" प्रिय बन्धुओ ! जो गिरा हुआ है उसकी अवश्य उन्नति होगी, मान लो कलियुग इसी लिये आया है कि सतयुग का मार्ग साफ और निष्कप्टक बनजाय । समय की परिस्थिति। देखो कालकी गति कैसी विचित्र दीख पडती है, जब यहां दिन होता है तो अमेरिका में रात होती है । ठीक इसी प्रकार से जब उन्नति का सितारा भारत वर्षपर चमकता था तो अमेरिका वगैरह का कोई नाम भी नहीं जानता था । शासन नायक वीर प्रमु के निर्वाणके कुछ वर्ष पीछे अशोक राजा का पौत्र सम्प्रति नरेश हुआ कि जिसने अपने अखंडशासन के बलसे अमेरिका प्रभृति देशों में भी " स्याद्वाददर्शन" का प्रचार किया । उन उन देशों में अपने सुशिक्षित उपदेष्टाओं को भेज कर जैन धर्मके उन गूढ तत्वों को समझाया जो उन के लिये अश्रुत पूर्व थे । आज भी उन देशों में से निकलती हुई तीर्थंकर देवों की प्रतिमायें इस सत्य घटना की बराबर सत्यरूप से गवाही दे रही हैं । विद्या और दान इस वक्तव्य का सारांश यही निकला कि - संसार का (संसार वर्तिपदार्थ मात्र का) परिवर्तन स्वभाव है । जिस जनपद का नेता न्यायशील होगा, जहां की जनता अपने हेयोपादेय की समझने वाली होगी, उम्र का अवश्य उदय होगा | प्राचीन समय में लोग विद्याव्यसनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते थे, धन व्यय करने में उदारता प्रकट करते थे, इससे वह अपने समाज के ह्रास के कारणों को देखते ही बत्काल उपाय करलेते थे । आज कल यद्यपि लोग धनसम्पत्ति से सुखी हैं तो भी तादृशज्ञान सम्पदा के न होने से देशका जैसा चाहिये वैसा भला नहीं हो सकता । हालां कि आज मी भारत के दानवीर दान देने में अपनी प्राचीन उदारता से पीछे नहीं हटे | ऐतिहासिक साधन साक्षी देते हैं कि हमारा मह प्रम्य संसार पैसा खर्चने में किसी तरह से भी हाथ पीछे नहीं हटाता। आदर्शजीवन ।। यदि कोई हमसे पूछे कि जीवन का अलङ्कार क्या है ? तो हम निःसंकोच होकर कह सकते हैं कि चरित्र ही जीवन का एक मात्र अलं कार है। चरित्र आत्मा की एक विशेष शक्ति है, इसी शक्ति के प्रमाव से हमारी नीच भावनाओंका दमन होता है, हृदय के अपवित्र भाव दूर होते हैं, हम पवित्रता प्राप्त करनेके लिये व्याकुल हो उठते हैं, और सत्यकी खोज में प्राण तक देनेको तैयार हो जाते हैं । इसी शक्तिबल के प्रभाव से हम भीषण प्रलोभनोंका सामना करने के लिये खडे होजाते हैं, सम्राट की अपकृपा से भी विचलित नहीं होते, और कठोर जीवन संग्राम में जयलाभ प्राप्त कर सकते हैं । संसार में जितने प्रतिष्ठित व्यक्ति होगये हैं वे सब इसी अद्भुत शक्तिबल के प्रभाव से पूज्य हुए हैं । धन और ऐश्वर्य द्वारा किसी व्यक्ति ने किसी कालमें भी महत्ता प्राप्त नहीं की। चरित्र ही महत्ता प्राप्त करने का एक मात्र सोपान है । यह ईश्वर प्रदत्त शक्ति है, यही विश्वका नियंता है, इसी के मयसे चन्द्र सूर्य उदय होते हैं, वावु संचालन करती है, इसी से निर्मल पवित्रता का स्रोत प्रवाहित होकर पापमय जगत को स्वर्गभूमि में परिणत कर देता है। वही इस अद्भुत शक्ति का जन्मदावा है। नहीं तो क्षीण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय दुर्बल ममुष्य किस बलसे बलवान् होकर वह सारे स्वार्थों और अपने प्राणोंतक के विसर्जन कर देने में भी कातर नहीं होता | एक न्यायका अनुष्ठान करने से सारा संसार तुम्हारी सहायता करने के लिये तैय्यार हो जावेगा। उस न्यायानुष्ठान के प्रतिष्ठिति करने में तुम्हारा सर्वस्व ही क्यों न चला जावे तो भी तुम्हारे हृदय में लेशमात्र भी कष्ट न होगा किन्तु एक अन्याययुक्त आचरण करनेसे तुम्हें सौ बिच्छुओंके काटने समान पीडा होगी। तुम्हारा हृदय अशान्तिका घर बन जावेगा और तुम संसारको नरक के समान भीषण स्थान समझोगे, तब तुम सोचोगे कि तुम संसार में अकेले हो, सारा संसार तुम्हारी ओर घृणापूर्ण दृष्टि से देख रहा है, कोई भी तुम्हें आश्वासन द्वारा शान्ति देनेके लिये प्रस्तुत नहीं । संसारके संपूर्ण व्यक्ति गण तुम्हारी पापमय संगति से दूर भागना चाहेंगे । इसी प्रकार न्याय और अन्याय में भी भेद है, भगवान का भक्त भारी विपत्ति में भी अन्याय का परित्याग कर के न्याय का अनुसरण करता है, इस का और कोई कारण नहीं वह न्याय के बीच परमात्माकी शक्ति देखकर ही उसपर अनुराग करता है। ॥ शिक्षा का प्रयोजन ॥ अनेक मातापिता अपने पुत्रको इस आशा से पाठशाला में भेजते हैं कि मेरा बेटा पढलिख कर कोई ऊंचा पद प्राप्त करेगा, किन्तु उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि उनका पुत्र चरित्र गठन ही से ज्ञानी बन सकत है। इस विषय की उपेक्षा करना अपनी संतान पर घोर अन्याय करना है। चरित्र गठन ही शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिये । यह बात सत्य जान पडती है कि विद्वान् होने से उच्च पदको प्राप्ति होती है, किन्तु चरित्र के अभाव में वह उच्चपद सुरक्षित नहीं रह सकता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ अत एव पुत्रको चरित्रवान् बनाने के लिये चरित्र गठन पर ध्यान रखना मातापिताका प्रधान कर्तव्य है । सम्राट से लेकर एक सामान्य किसान के बालक को अपने व्यवसाय में सफलता प्राप्त करने के लिये ज्ञान और चरित्र की अत्यन्त आवश्यकता है । इतने विवेचन से सिद्ध हुआ कि क्या राजकुमार और क्या किसान के बालक दोनों को शिक्षित होना बहुत आवश्यक है । 1 अनेक व्यक्तियोंकी धारणा है कि पैतृक व्यवसाय अथवा किसी अन्य व्यवसाय में शिक्षा की आवश्यकता नहीं हैं । मैं पूछता हूँ कि मानव समाज को अज्ञान के घोर अन्धकार में रखनेका किसे अधिकार है १ किसान के बालक और राजकुमार के अन्तःकरण में जिस प्रमाण से ज्ञानप्रभा प्रकाशित होती है उसी परिमाणानुसार हमारे कार्यकी सिद्धि होती हैं । चरित्रवान किसान का बालक क्या चरित्रवान् राजकुमारके समान सुन्दर नहीं हैं ? तब फिर एक को शिक्षा देकर दूसरे को उससे वंचित रखनेवाले तुम कौन हो ? यह बात अवश्य स्वीकार की जा सकती हैं कि व्यवसायसंबंधी शिक्षा सबको एकही सी नहीं दी जासकती । राजकुमारको राजनीतिसंबंन्धी, और किसान के बालक को कृषिसंबन्धी ही शिक्षा देना उचित हैं, किन्तु जो शिक्षा ज्ञानवान् बनाती और चरित्र गठन करती है वह सब एक ही ढंगकी देना उचित है, इसी शिक्षा का नाम शिक्षा है । ॥ परमार्थ और देशसेवा || खान की मिट्टी जिसको खान में से खोदकर उसके टुकडे टुकड़े किये जाते हैं, इतना ही नहीं नरन् उसको गधों पर चढाया जाता है; पानीमें मिजो कर उसे पैरोनीचे मन्थन किया जाता है, चक्रपर चढाकर खूब घुमाया जाता है तो भी शाबासी है उस सहनशील जाति को कि जो इतने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाटो को सहन करती हुई भी पात्र बन कर संसारकी स्वार्थसिद्धि करती है। ___ और भी सुनिये, कपास के डोडोंको तोड कर घूप में और घूल में फैंक देते हैं, उसकी अस्थिये तोडकर सार निकाल लिया जाता है, उस सारमूत कपास. को भी घूप में फेंक कर खूब तपाया जाता है । मार मार कर इसके पीछे पीछे जुदे किये जाते हैं, यंत्र में वीली जाती है, पिता-पुत्र का आजन्म वियोग किया जाता है, लोहे की शूलीपर चढाया जाता है, अनेक औजारों से मारी पीटी जाती है तो भी वह उपकारी पदार्थ वस्त्र बन कर कुल संसार भरके नरनारियोंके गुप्त प्रदेशों को ढकती है । तो अरे-निसार ! अरे संसारसार जीवन ! मनुष्य ! सचेतन होकर अमूल्य मानवभव से कुछ भी निज पर का उपकार न करेगा तो तुझे और क्या कहें ? एक कविता नीचे दर्ज है उसे सुनता जा बाद तेरी मरजी मनुष्य जन्म पाय सोवत विहाय जाय, खोवत करो रनकी एक एक घरी है ॥ किसीने यह लुकमान से जाके पूछा जरा इसका मतलब तो समझाइयेगा। जमाने में कुत्ते को सब जानते हैं, वफादार भी उसको सब मानते हैं, ये करता है जो अपने मालिक पे कुरबाँ, खिलाना है बच्चों का घर का निगाहबाँ ।। भरा है यह खूने महब्बत रगों में, न देखा सगों में जो देखा सगों में ।। पडे मार खाकर भी यह दुम दबाना, कि दुशवार हो जाय पीछा छुडाना ।। जगत्में है मशहूर इसकी भलाई । मगर नाममें है क्या इसके बुराई ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी भादमीको कहें हमजो कुत्ता । तो मुंहपर वहीं दे पलटकर तमाचा । कहा उससे लुकमान ने बात यह है ।। ___ खुली बात है कुछ मुइम्मा नहीं है । यह माना है बेशक वफादार कुत्ता ।। बडा जाँ नीसार और गमसार कुत्ता । फकत आदमी पर है यह जानेसारी ।। मगर कौमकी कौम दुश्मन है मारी । यह रखता है दिलमें मुहब्बत पराई ।। खटकते हैं इसकी निगाहोंमें माई । नजर आवे इसको अगर गैर कुत्ता ।। तो फिर देखिये इसका तौरी बदलना ।। न जिसने कमी कौमको कौम माना । कहे क्यों न मरदूद उसको जमाना ?॥ बुरा क्यों न मानेगे अहते हमीयत । कि-औरोंसे उलफत सगोंसे अदावत ।। ॥ विमर्श--परामर्श.॥ भारत वर्षमें शुमकार्यों के लिये रुपये की कमी नहीं है, किन्तु है.. लोगों में देशमक्ति तथा परोपकारी मनुष्यों का अभाव है, जिनके विना हम लोगोंको समितियों तथा सुधारके कार्योंमें बाधा पडती है । "शाम्रो" में विद्यादान सबसे उत्तमदान कहा गया है इसी लिये जो लोग इस पुण्यकार्य अर्थात् सार्वजनिक शिक्षा प्रदान का यत्न करेंगे वह वास्तव में धर्मात्मा कहे जा सकते हैं। मारत सन्तान अपने दान एवम् उदारता के लिये प्रसिद्ध है । पुराने भनमन्दिर आदि चारो ओर ढहादामला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ "L रहे हैं ! और नये मन्दिरो और धर्मशालाओं के बनाने में एवं परस्परके खिलाने पिलाने में अनुचित रीति से " देश का अपरिमित धन व्यय किया जा रहा है। यदि वही धन उचित रीतिसे शिक्षा की उन्नति में व्यय किया जाय अर्थात् देशको उन्नति के शिखर पर पहुंच जाने में अधिक काल नहीं लगेगा । साधारण गणना से प्रतीत होता है कि इस समय महाराजाओं, राजाओं जागीरदारों रइसों तथा साधारण मनुष्यों " के दानकी संख्या प्रतिवर्ष सत्तर करोड से कम नहीं है । इस अनन्त धन का उचित रीतिसे व्यय होना चाहिये ! इस कार्य की सिद्धि के निमित्त प्रत्येक देशवासी को उचित है कि अपनी लेखनी द्वारा लेख प्रकाशित कर तथा उपदेशोकी सहायता से जनसमूह तथा रइसों का उपकार करें । साम्प्रदायिक नियंत्रणा किसी भी सम्प्रदाय के ऐतिहासिक वर्णनों का अवलोकन करने से प्रायः इस बात का पता लगता है कि सम्प्रदाय की डोरी नेताओं के ही हाथ में रही है। नेताओं से हमारा आशय धर्म प्रचारकों से है । और विशेष कर यह लोग साधु; संन्यासी; पोप पादरी; पण्डित; राजगुरु प्रभृति नामों से विविध वेशों से पहिचाने जाते हैं । उन में से जिस किसीने जिस धर्मको अपना मानकर स्वीकृत किया है वह उसकी हर प्रकार से रक्षा करता है जिस प्रकार कृषक बडी सावधानी से अपने क्षेत्र की निगहबानी रखता हुआ अन्यान्य पशुपक्षियों तथा यात्रियों से बचाने की योजना करता है । इसी प्रकार वह धर्मनायक भी अपने सम्प्रदाय को बलिष्ठ बनाने के प्रयत्न में लगा रहता है । हां ? इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि भारत वर्ष में छप्पन लाख साधुओं की संख्या मानी जाती है और इन का मार विशेष कर गृहस्थों पर ही है । इनमें से सन्मार्ग का सदुपदेश देनेवाले कितने हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अनर्गलशब्दों का प्रयोग कर तथा उत्तम पदार्थों को खाकर मानव . जीवनको इतिश्री तक पहुंचाने वाले कितने हैं ? पहिले समय के साधु अपने कर्मक्षेत्र-तप जप ज्ञान ध्यान-ब्रह्मचर्य -आतापना विनय आदि योगों में विचर कर अनेकानेक तरह की सक्तियाँ प्राप्त करते थे और उनके बलसे अपने शासनकी ध्वजा पताका फहराते थे। । आत्मशक्ति ॥ शास्त्रोमें प्रसिद्ध है कि चार ज्ञान के धारक उसी जन्म में जिनकी मोक्ष होनेवाली है, ऐसे श्रीगुरु गौतमस्वामी जब सूर्य की किरणोंका सहारा लेकर अष्टापद पर चढे तब वहां जो १५ सौ तपस्वी तप कर रहे थे, उन्हों ने उनके चमत्कार को देखकर श्रद्धापूर्वक उन को प्रणाम कर अपने गुरु मान लिये | नीचे उतरने पर उन सबने हाथ जोडकर पूछा प्रमु! हम १५ सौ तापम ५००-५०० सौ कि टुकडी करके यहां विजन जंगल में रहते हैं। अनेक प्रकारकी तपस्या करके सूखे फल फूल खाते हैं, तो भी१-२-३पावडीसे ऊपर नहीं जा सकते । और हमारे देखते ही देखते आप तुच्छ सी वस्तु का सहारा लेकर ३२ कोसके ऊंचे इस पहाड के शिखर पर कैसे चढ गये १ । क्षीराव लब्धिसंपन्न गणधर महाराज ने बड़े प्रेमसे सकाम और निष्काम तपका स्वरूप समझाकर कहा-जो तप सिर्फ आत्मकल्याणके लिये किया जाता है, और जिसमें ज्ञानयोग की मुख्यता होती है, उस निष्काम अर्थात् इच्छारहित तपके प्रभाव से जीव में अणिमा; महिमा गरिमा, लघिमा, प्रामि, प्राकाम्य, ईशत्व, वर्शित्व, यह आठ प्रकारकी लब्धियां उत्पन्न होती हैं ! अणिमा महिमा चैव, गरिमा लधिर्मों तथा । प्राप्तिः प्राकाम्य॑मीशत्वं भवन्ति चाष्टसिद्धयः ।। १ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस बात को सुनकर वह सबके सब तपस्वी श्रीगुरु गौतम स्वामीजी के पास दीक्षित हुए गणधर महाराज ने सिर्फ एक ही पात्र में क्षीर लाकर उन सब को खिलाई । उन १५०० मनुष्यों को गौतम गुरुने उतने पात्रकी खीर से ही तृप्त कर दिया । इस बनाव को देख कर उन्होंने बहुन लाभ उठाया । ऐसे ही कहते हैं राजा विश्वामित्र अपने सैनिकों को साथ लेकर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में मये | ऋषिने राजाको भोजन देना चाहा, राजान इनकार करते हुए कहा मैं अपने सहचारियोंको भूखा रखकर अकेला भोजन नहीं करूंगा | वशिष्ट बोले हम तुम सबको अपना अतिथि बनाते हैं, राजा ने हंस कर कहा आप इस छोटीसी झोपडीमें रहकर असंख्य मनुष्य और पशुपक्षियों को क्या खिलायेंगे?, वशिष्ठ ने कहा तुम निश्चित रहो हम सभी अतिथियोका सत्कार करेंगे । निदान सभीने ऋषिका न्यौता स्वीकार करके स्नान किया । इधर ऋषिजीने अपनी छोटी झोंपडीमेंसे विविध प्रकार के स्वादिष्ट, रोचक, पाचक भोजन देकर राजाको और उनके साथके असंख्य मनुष्यों को तृप्त किया | सिंहावलोकन। पूर्वकालके साधु संन्यासी लोग ऐतिहासिक विज्ञान में, पौराणिक विज्ञान में, पदार्थ विद्यामें, षट् दर्शनोंके स्वरूप परिज्ञानमें, धर्मोपदेश देने में, नये नये ग्रन्थों के निर्माण करने में, योग विद्या, ब्रह्म विद्या, छात्रकला, नक्षत्रचाल, भूतप्रेतों की विद्या, संपत्तिशास्त्र, कृषिवाणिज्यकौशल्य, नीतिशास्त्र, राशिविद्या, सादिविषापहारि मणिमंत्रौषधि परिज्ञान, देवाकर्षणविद्या, प्राणायाम, राजयोग,-पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष द्वारा, वाद जयपराजय, संसारयात्रा, तीर्थयात्रा, वगैरह सत्कार्योंमें लगे रहते थे, आज उन सर्व बातों को ताला लग रहा है । विद्याओं के बदले व्यापार, ऐति हासिक शास्त्रों के बदले नवल कथायें, पौराणिकादि परिज्ञान तो नामशेष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ हो रहा है, पदार्थविद्या तो अंग्रेजों के घरों में, दर्शनशास्त्रों को उदेही खा रही है, उनका भाव ही कौन पूछे ? धर्मोपदेश हैं तो संसारमें अपनी बढाई और महत्ता बढ़ाने के लिये, ग्रन्थ निर्माण के बदले अगर प्राचीन ऋषियों के बनाये पढ़े वांचे ही जावे तो भी बस है । कहां तक कहा - जाय ? प्रायः सारा ही चक्र ऊंधा चल रहा है, जिन के रर्वजोंने अपने विविध विज्ञान द्वारा राजा महाराजा श्रेष्ठ रईस लोगों को सन्मार्गगामी बनाया था, आज वह अपने पूर्वजों की कीर्तिरूप जायदाद को खा खा कर पापी पेटकी वेठ उतार रहे हैं । इध बात का स्पष्टीकरण नीचे के पद्योंसे भली भांति हो सकेगा । - स्वतंत्र वाद के सुना गया है कि भगवान् श्रीमन् - " महावीर स्वामी के समय में ३६३ मत थे, परंतु वर्तमानकाल के सतव में उन मतोंकी संख्या भी ३६३ से बढ पहुंच गई है । कर आज कल ३००० तक अवधून संसार में साधु संन्यासी - उदासी चारी - वापस तपस्त्री - नागे इत्यादि नाम धारक मनुष्यों की संख्या सुनी जाती है । निर्मले - वैरागी - ऋषी-मुनि-ब्रह्म संत यति - भिक्षु महंत जगत् में ५६ लाख जितनी - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ― [ विशेष के लिये देखो देशदर्शन, वे भूरि संख्यक साधु, जिनके पंथ भेद अनन्त हैं । अवधूत यति नागा उदासी, संत और महन्त हैं ।। हा ! वे गृहस्थोंसे अधिक हैं, आज रागी दीखते । अत्यल्प ही सच्चे विरागी, और त्यागी दीखते ।। १ ।। जो कामिनी - काञ्चन- न छूटा, फिर विराग रहा कहां ! । पर चिन्ह तो वैराग्य का, अब है जटाओंमें यहां || भूखो मरे कि जटा रखाकर, साधु कहलाने लगे । www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिमटा लिया भस्मी रमाई, मांगने खाने लगे ॥ २ ॥ संख्या अनुद्योगी जनोकी, हीनतासे बढ़ रही । शुचि साधुता पर भी कुयशकी, कालिमा है चढ़ रही ।। भस्म लेपन से कहीं, मनकी मलिनता छूटती । हा ! साधुमर्यादा हमारी, अब दिनोदिन टूटती || ३ ।। यदि ये हमारे साधु ही, कर्तव्य अपना पालते । तो देशका बेड़ा कभी का, पार यह कर डालते ।। पर हाय ! इन में ज्ञान तो, सब रामका ही नाम है । दमकी चिलममें लौ उठाना, मुख्य इनका काम है ।। ४ ॥ ( मैथिलीशरण गुप्त ) एक महापुरुष का कथन है कि दुन्नि विसय पसत्ता, दुन्निविहु धणधन्न संगहसमेया । सीसगुरुसमदोसा, तारिजइ भणसु को केण १ ।। १ ।। ( भावार्थ ) संसारी जीव-जगत्में-साधुओं के निमित्तसे, उनके सपनसे प्रतिवर्ष (६० ) क्रोड रुपया व्यय होता है । [ देखो “ संसार नामक मासिक पत्र "] जो साधुसंतकी सेवा करते हैं उन के बतलाये हुये रास्ते पर चलने हैं, उनके कहनेसे लाखों करोडों रुपये खर्च करते हैं। वह किस वास्ते ? साधुओं के साथ उनका क्या नाता है ? क्या सम्बन्ध है ? कहना होगा कि धर्म | सिवाय धर्म के जहां और किसी मी किस्म का संबन्ध होगा वहां दोनों को ही हानि ही पहुंचेगी । अतएव सिद्ध हुआ कि संसार में साधु महात्माओं का संचय परिचय गृहस्थ को अनादिकाल की दुर्वासनाओं से बचानेवाला है, हटाने वाला है । परन्तु साधु अपने साधुधर्म में कायम होना चाहिये । अगर ऐसा न होगा तो होगा क्या ? शिष्य अर्थात् गृहस्थ के एक पत्नी, अर्थात् गृहस्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ तो अपनी एक ही स्त्री पर से तुष्ट है और जिसको गुरु माना है, उससे कृष्णलीला मनाई जाती है । गृहस्थ के पास बारह महीने के गुनारे के वास्ते दश बीस मन अनाज होगा और गुरुजी के वखारे भरी होंगी। और मन में उनके यह ही भावना वर्वती होगी कि एक समये का एक सेर अनाज होजाय तो हम करोड़पति होजायें । ऐसी हालत में कहना चाहिये कि तरनेवाला तो काष्ठ है मगर नाव लोहेकी है । वह उसे किसी प्रकार तार नहीं सकती । एक घडी आधी घडी, आधीमें पिण आध । "तुलसी" संगति साधुकी, कटे कोटि अपराध ॥ १ ।। शीतरितु-जोरै अंग सबही सकोरै तहां तनको न मारै नदी धोरै धीरजे खरे । जेठकी झको” जहां अंडा चील छोरै पशु, पंछी छांह लोरै गिरिकोरै तप वे धरे ।। घोर धन घोरै घटा चहुं ओर डोरै ज्यौं ज्यौं, चलत हिलोरै त्यै त्यौं फोरै बलये अरे । देह नेह तो परमारथ सौं प्रीति जोरें, ऐसे गुरुओरै हम हाथ अंजुली करे ।। २ ।। यह जो महात्मा तुलसीदास का और कवि-मुदर दासजी का महिमा वचन है वह कैसे साधुओंके लिये है ? उनके लक्षण यह हैं जोयुं विवेक विचारथी संसारमा कांई नथी, स्त्रीपुत्रने परिवार कली रामारमा काई नथी । हो नगरके वन विजन जेहने उमय एक समान छे ते मोहजेता साधुना मना तमा कांई नथी ।। १ ।। "सुखे दुःखे भवे मोक्षे साघवः समचेतसः" । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पर्वपर्यालोचन ॥ प्रथम वर्णन किया जा चुका है कि अपने विषद विद्याबलसे, बिशुद्ध तपोबलसे, अप्रमत्त कियाकाण्डसे, अप्रतिबद्ध विहार से सत्य उपदेशोंसे, विविध तितिक्षाओंके परिशीलन से, महात्मा पुरुषोंने प्रथम अपने उच्च निर्मल, निष्काम, निर्विकार, एवम् निर्दोष जीवनसे संसारको अपना अनुरायी किया है और तत्पश्चात् ही उनको धर्मोपदेश द्वारा मार्मानुगामी किया है । ऐसे ही संसारके अग्रगण्य गृहस्थ महानुभावोंको भी आवश्यक है कि वह दूसरे को आदर्श बनाने के प्रथम अपने जीवनको असाधारण बनाने का दृढ प्रयत्न करें, बस संपूर्ण संसार उसका दास है। यह बात भी अवश्य स्मरण रखनी चाहिये कि केवल शिक्षा ही काफी नहीं है, चतुर आदमी दुराचारी भी हो सकता है, धर्महीन मनुभ्य जितना चतुर होगा उतना ही अत्याचारी होगा, अत एव शिक्षा की नीव धर्म और सच्चरित्रता पर स्थित होनी चाहिये, कोरी शिक्षा किसी भी कामकी नहीं, उससे बुरी वासनायें दूर नहीं हो सकतीं । बुद्धि की वृद्धि का (साधारणतया) सच्चरित्रता पर बहुत थोडा प्रभाव पडता है । बहुतेर लिखे पढ़े मनुष्य अदूरदशी अपव्ययी और आचारभ्रष्टदेखने में आते हैं, अत एव यह अत्यन्त आवश्यक है कि शिक्षा धार्मिक और नैतिक सिद्धांतों पर स्थित हो । [ इसका अधिक विस्तार मितव्यबताते देखो ___ अब देशसेवा के हिमायतियों को गौर कर के सोचना चाहिये कि ऐसा अवसर फिर आना मुश्किल है “स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् । बाकी तो विदेशी शिक्षा पाकर भी विदेश भ्रमण करके भी अगर देशसवा नहीं की तो भाई ! तुझे क्या कहें ? कविरत्न का कहना हैShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर कनों के पात्र जूटे, साफ कर पंडित हुए | सच्चे स्वदेशी मानसे, फिर भी नहीं मंडित हुए ।। दृष्टान्त बनते हैं अधिक, वह इस कहावत के लिये । बारह वरस दिल्ली रहे, पर भाडही झोका किये ।। जर्मनी में सैनाविभागवाले लोग और वाणक लोग कबूतरों तथा अन्य पालित चिड़ियों को शिक्षित करने आर कई तरह से अपने काम के योग्य बनाने की चेष्टा कर रह हैं । वे इनके गले में चिट्ठी तथा पत्रों को रूमाल से बान्धकर एक जगह से दूसरी जगह लेजाने की शिक्षा देने हैं । वणिक लोग अपनी शाखाओं में जो किसी नदी के पार हैं नौका मादिकी प्रतीक्षा न कर अति आवश्यक पत्रों को इन्ही पक्षियों के द्वाल भेजा करते हैं । उसी तरहसे सेना विभाग भी युद्धके समय शिक्षित कबूतरों से संवाद भेजने का काम लेता है । समाचार पत्रों में पढ़े लिखे लोगों को यह संवाद मिला होगा कि हाल में जो प्रदर्शनी जर्मनीमें हुई थी उसमें १०, ००० शिक्षित कबूतर लाये गये थे जो निश्चित स्थानो पर सम्वाद पहुंचाते थे । इन कारणों से जमनीमें एक कबूतर का मास्त वर्ष के मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्य है । जैन धर्ममें गृहस्थाश्रमके पांच नियम । १-निष्कारण निरपराधी जीव को जानकर न मारना । और जिस ने अपना अपराध किया है जहां तक हो सके उसपर भी क्षमा करनी। २-अव्वल तो सर्वथा झूठ न बोलना, अगर निर्वाह न होसके ते कन्या, गौ, भूमि, इन तीन चीजों के विषय में तो झूठ न बोलना और अमानत गुम्म न करना, ४ झूठी गवाही न देना । ३-मालिक की इजाजत के सिवाय किसी की चीज पर अपनी मालिकी न करना अर्थात् चोरी न करना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ४ स्वस्त्री संतोष कर - परस्त्री गमन का त्याग करना | ५–धनसम्पति का सन्तोष-- इच्छानिरोध तृष्णा का घटाना । जैनधर्म की प्रौढ, और प्रकृष्ट शिक्षा यह ही है कि सर्व जीवात्माओं को चाहे वह छोटे हों चाहे बडे हों, अमीर हो या गरीब हों, सबका मानो । विना प्रयोजन "" भला करो, सब को अपने आत्मा के समान किसीको मत सताओ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् जिसको तुम सताओगे वह कभी न कभी तुम्हारा भी नुकसान करेगा, बस वक्त तुमको बहुत बड़ा क्लेश होगा । "" बदन सोचे जेम गर दू गर कोई मेरी सुने । है यह गुम्मज की सदा जैसी कहे वैसी सुने || " ( १ ) जैनधर्म को स्वीकार कर के कुमारपाल जैसे राजाओं ने देशों में यूका जैसे क्षुद्र प्राणियों की भी रक्षा की है, मगर जब देश रक्षण का काम पडा तत्र तलवार लेकर मैदान में भी उतरे हैं । कवि दलपत - , रामने लिखा है कि “जैनो की दयाने संसार को कमजोर कर दिया है " मगर यह सरयाम भूल है, जैन के इतिहास पुस्तकोंसे बराबर सिद्ध होता है कि महावीर के परम भक्त द्वादश व्रत धारक श्रावक राजा चेटक ( चेडा) ने १२ वर्षतक कूणिक राजा से संग्राम किया है । उदायी राजा ने मालवेस उज्जयनी पति चंड प्रद्योतन को जीता है। संप्रति राजाने त्रिखण्डभूमिका विजय किया है। कुमारपालने सपादलक्षके राजाको ( शाकंभरी ) सांभर के नरपतिको, चन्द्रावनी के राजा सामन्तसिंह को जीता है । इतना ही नहीं वल्कि उनके जैनमंत्रि भी लडाइयों में विजय पाते रहे हैं, कुमारपालका मुख्य प्रधान उदयन लडाई में ही मारा गया था | कुमारपाल के पूर्व गुजरात के राजा देव हो चुके हैं, उन. का मंत्री विमलशाह बडा बहादुर था, तीर और तलवार को लेकर शत्रुओ को उत्साहसे पराजित करता था । मिन्ध की चढाई में विमल की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com " Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहादुरी से ही सिन्धपति पकडा गया था । प्रसिद्ध मंत्री वस्तुपाल तेजपाल ने कई बार गुजरात की तरफ आते हुए यवनों को परास्त कर के पीछे लौटाया था । मेवाड केशरी महाराणा प्रताप जब सब तरह से हारकर मुगल बादशाह से सन्धि करने को तैयार हुवे थे तब उन को सहायता देकर फिरसे उत्साहित करनेवाला भामाशाह पोरवाड जैनधर्मका ही उपासक था | प्रसिद्ध है कि १२ वर्षमक हाथी घोडे सहित २५ हजार फौजी मनुष्यों का पालन हो सके इतनी सहायता देकर भामाशाह सेठने भारत के अस्त होते सूर्यको थाम लिया था । इतना ही नहीं बल्कि अपने राज्यको किसी कारण सर छोडकर चित्तौडमें आये हुए बहादुर शाहको आपत्ति के समय किसी भी शर्तके विना एक लाख रुपया देकर उसे सुखी करनेवाला भाग्यवान् कर्मशाह भी जैन ही था । तीर्थकर देवोंका यह ही उपदेश है कि सभीका लाभ चाहो । तुम्हारा खुदका भी भला होगा | मनसे बचनसे और कर्मस जीवमात्र के साथ मैत्री रखो । सदाकाल सत्यभाषी रहो | जिह्वा यह दक्षिणावर्त शंख है, इसमें कीचड मत भरो, अगर हो सके तो कामधेनुका दूध मरो, यह तुमको वांछितफल का देनेवाला होगा ।। १ ।। जैनधर्मका अहिंसातत्त्व । जैनधर्म के सब ही ' आचार ' और ' विचार ' एक मात्र ‘अहिंसा' के तत्त्व पर रचे गय हैं । यों तो भारत के ब्राह्मण, बौद्ध आदि सभी प्रसिद्ध धर्मों ने अहिंसा को 'परम धर्म ' माना है और सभी ऋषि, मुनि साधु संत इत्यादि उपदेष्टाओं ने , अहिंसा का महत्त्व और उपादेयत्व बतलाया है; तथापि इस तत्त्व को जितना विस्तृत, बितना सूक्ष्म, जितना गहन और जितना आचरणीय जैनधर्म ने बनाया है, उतना अन्य किसी ने नहीं । जैनधर्म के प्रवर्तकों ने अहिंसातत्त्व को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ 7 चरम सीमा तक पहुंचा दिया है । उन्होंने केवल अहिंसा का कथन मात्र ही नहीं किया है परन्तु उसका आचरण भी वैसा ही कर दिखाया है । और और धर्मों का अहिंसा तत्त्व केवल कायिक बन कर रह गया है परन्तु जैनधर्म का अहिंसा तत्त्व उससे बहुत कुछ आगे बढकर वाक्कि और मानसिक से भी नर - आत्मिक रूप बन अहिंसा की मर्यादा मनुष्य और उससे जादह जन्मत् तक जाकर समाप्त हो जाती है; परन्तु मर्यादा ही नहीं है । उसकी भर्यादा में सारी सचराचर जीव जाति समा जाति है और तो भी वह वैसी ही अमित रहती है । वह विश्व की तरह अमर्याद - अनंत है और आकाश की तरह सर्व पदार्थ व्यापी है । गया है । औरों की हुआ तो पशु-पक्षी के जैनी अहिंसा की कोई परन्तु जैनधर्म के इस महत् तत्त्व के यथार्थ रहस्य को समझने के लिये बहुत ही थोडे मनुष्यों ने प्रयत्न किया है । जैन की इस अहिंसा के बारे में लोगों में बडी अज्ञानता और बेसमझी फैली हुई है । कोई इसे अव्यवहार्य बतलाता है तो कोई इसे अनावरणीय बतलाता है । कोई इसे आत्मघातिनी कहता है और कोई राष्ट्रनाशिनी । कोई कहता है जैनधर्म की अहिंसा ने देश को पराधीन बना दिया है और कोई कहता है; इसने प्रजा को निवर्य बना दिया है । इस प्रकार जैनी अहिंसा के बारे में अनेक मनुष्यों के अनेक कुविचार सुनाई देते हैं । कुछ वर्ष पहले देशभक्त पंजाब केशरी लालाजी तक ने भी एक ऐसा ही भ्रमात्मक विचार प्रकाशित कराया था, जिसमें महात्मा गांधीजी द्वारा प्रचारित अहिंसा के तत्त्व का विरोध किया गया था, और फिर जिसका समाधायक उत्तर स्वयं महात्माजी ने दिया था । लालाजी जैसे गहरे विद्वान् और प्रसिद्ध देशनायक हो कर तथा जैन साधुओं का पूरा परि चय रखकर भी जब इस अहिंसा के विषय में वैसे भ्रान्तविचार रख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते हैं तो फिर अन्य साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या की जाय । हाल ही में कुछ दिन पहले-जी. के. नरीमान नामक एक पारसी विद्वान ने महात्मा गांधीजी को सम्बोधन कर एक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने जैनों की अहंसा के विषय में ऐसे ही भ्रमपूर्ण उद्गार प्रकट किये हैं। मि. नरीमान एक अच्छे ओरिएन्टल स्कॉलर हैं, और उनको जैन साहित्य तथा जैन विद्वानों का कुछ परिक्ष भी मालूम देता है । जैनधर्म से परिचित और पुरातन इतिहास से अमिज्ञ विद्वानों के मुंह से जब ऐसे अविचारित उद्गार तुनाई देते हैं, तब साधारण मनुष्यों के मन में उक्त प्रकार की भ्रांति का ठस जाना साहजिक है । इस लिये हम यहां पर संक्षेप में आज जैनधर्म की अहिंसा के बारे में जो उक्त प्रकार की भ्रांतियां जनसमाज में फैली हुई हैं, उनका मिथ्यापन दिखाते हैं। जैनी आहंसा के विषय में पहला आक्षेप यह किया जाता है किजैनधर्म के प्रवर्तकों ने आहिंसा कि मर्यादा को इतनी लम्बी और इतनी विस्तृत बना दी है कि, जिससे लगभग वह अव्यवहार्य की कोटि में जा पहुंची हैं | जो कोई इस अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करना चाहे तो उसे अपनी समग्र जीवनक्रियायें बंध करनी होगी और निश्चेष्ट हो कर देहत्याग करना होगा । जीवनव्यवहार को चालू रखना और इस अहिंसा का पालन भी करना, ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं । अतः इस अहिंसा के पालन का मतलब आत्मघात करना है। इत्यादि । यद्यपि इसमें कोई शक नहीं है कि-जैम अहिंसा की मर्यादा बहुत ही विस्तृत है और इस लिये उसका पालन करना सबके लिये बहुत ही कठिन है । तथापि यह सर्वथा अव्यवहार्य ' या आत्मघातक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ है, इस कथन में किंचित् भी तथ्य नहीं है । न यह अव्यवहार्य ही है और न आत्मघातक ही । यह बात तो सब कोई स्वीकारते और मानने हैं कि, इस अहिंसा तत्त्व के प्रवर्तकों ने इसका आचरण अपने जीवन में पूर्ण रूप से किया था । वे इसका पूर्णतया पालन करते हुए भी वर्षो तक जीवित रहे और जगत् को अपना परम तत्त्व समझाते रहे । उनके उपदेशानुसार अन्य असंख्य मनुष्यों ने आज तक इस तत्त्वका यथार्थ पालन किया है परंतु किसीको आत्मघात करनेका काम नहीं पडा | इस लिये यह बात तो सर्वानुभवसिद्ध जैसी है कि जैन अहिंसा भब्यवहार्य भी नहीं है और इसका पालन करने के लिये आत्मघात की भी आवश्यकता नहीं है । यह विचार तो वैसा ही है जैसा कि महात्मा गांधीजीने देशके उद्धार निमित्त जब असहयोग की योजना उद्घोषित की, तब अनेक विद्वान और नेता कहलाने वाले मनुष्योंने उनकी इस योजनाको अव्यवहार्य और राष्ट्रनाशक बतानेकी बडी लंबी लंबी बातें की थीं और जनताको उसे सावधान रहने की हिनायत दी थी। परंतु अनुभव मौर आचरण से यह अब निस्संदेह सिद्ध हो गया कि न असहयोग की योजना अव्यवहार्य ही है और न राष्ट्रनाशक ही । हां जो अपने स्वार्थका मोग देनेके लिये तैयार नहीं और अपने सुखोंका त्याग करने को तत्पर नहीं उनके लिये ये दोनों बातें अवश्य अव्यवहार्य हैं। इसमें कोई संदेह नहीं हैं | आत्मा या राष्ट्रका उद्धार विना स्वार्थत्याग और सुख परिहार के कभी नहीं होता | राष्ट्र को स्वतंत्र और सुखी बनानेके लिये जैसे सर्वस्व अर्पण की आवश्यकता है वैसे ही आत्मा को आधि व्याधि उपाधिसे स्वतंत्र और दुःख द्वंद्वसे निर्मुक्त बनानेके लिये भी सर्व मायिक सुखों के बलिदान कर देनेकी आवश्यकता है । इस लिये जो " मुचुक्षु" (बंधनोंसे मुक्त होनेकी इच्छा रखनेवाला ) है-राष्ट्र और आत्माके उद्धारका इच्छक है उसे तो यह जैन अहिंसा कमी भी अव्यवहार्य या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ आत्मनाशक नहीं मालूम देगी परन्तु स्वार्थलोलुप और सुखैषी जीवोंकी बात अलग है। ___ जैन धर्मकी अहिंसा पर दूसरा परंतु बडा आक्षेप यह किया जाता है कि-इस अहिंसा के प्रचारने भारत को परावीन और प्रजाको निवीय बना दिया है । इस आक्षेपके करने वालों का मत है कि अहिंसा के प्रचारसे लोकोमें शौर्य नहीं रहा । क्योंकि अहिंसाजन्य पापसे डर कर लोकोने मांस भक्षण छोड दिया; और बिना मांस भक्षणके शरीरमें बल और मनमें शौर्य नहीं पैदा होता । इस लिये प्रजाके दिलमेसे युद्धकी भावना नष्ट हो गई और उसके कारण विदेशी और विधीं लोकोंने भारत पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन बना लिया । इस प्रकार अहिंसाके प्रचारसे देश पराधीन और प्रजा पराक्रमशून्य हो गई। __ अहिंसा के बारे में की गई यह कल्पना नितान्त युक्तिशुन्य और सत्यसे परामुख है । इस कल्पनाके मूलमें बही भारी अज्ञानता और अनुभवशुन्यता रही हुई है । जो यह विचार प्रदर्शित करते हैं उनको न तो भारतके प्राचीन इतिहासका पता होना चाहिए और न जमत के मानव समाजकी परिस्थितिका ज्ञान होना चाहिए । भारतकी पराधीनताका कारण अहिंसा नहीं है परंतु भारतकी अकर्मण्यता अज्ञानता और असहि ष्णुता है और इन सबका मूल हिंसा है ! भारतका पुरातन इतिहास प्रकट रूपसे बतला रहा है कि जब तक भारतमें अहिंसाप्रधान धर्मोका अम्युदय रहा तब तक प्रजामें शांति, शौर्य, सुख और संतोष यथेष्ट व्याप्त थे | अहिंसा धर्मके महान उपासक और प्रचारक नृपति मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त और अशोक ये; क्या इनके समयमें भारत पराधीन हुआ या १ अहिंसा धर्मके कहर अनुयायी दक्षिणके कदंब, पल्लव और चौ. छन्य वंशोके प्रसिद्ध प्रसिद्ध महाराजा थे; क्या उनके राजत्वकालमें किसी परचकने आकर मारतको तताया था ? आहिंसा तत्वका अनुयायी चक्रShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वती सभ्राट श्रीहर्ष था, क्या उस के समयमें भारत को किसीने पद दलित किया था ? अहिंसा मतका पालन करने वाला दक्षिणका राष्ट्रकूट वंशीय भूपति अमोघवर्ष और गुजरातका चालुक्य वंशीय प्रजापति कुमारपाल था; क्या इनकी हिंसोपासनासे देशकी स्वतंत्रता नष्ट हुई थी ? इतिहास तो साक्षी दे रहा है कि भारत इन राजाओंके राजत्व कालमें अभ्यु - दयके शिखर पर पहुंचा था | जब तक भारत में बौद्ध और जैन धर्मका जोर था और जब तक ये धर्म राष्ट्रीय धर्म कहलाते थे तब तक भारतमें स्वतंत्रता, शांति, संपत्ति इत्यादि पूर्ण रूपसे विराजित थी। अहिंसाके इन परम उपासक नृपतियोंने अहिंसा धर्मका पालन करते हुए भी अनेक युद्ध किये. अनेक शत्रुओंको पराजित किये और अनेक दुष्टजनोंको दण्डित किये । इनकी अहिंसोपासनाने न देश को पराधीन बनाया और न प्रजाको निवीर्य बनाया | जिनको गुजरात और राजपूतानेके इतिहासका थोडा बहुत भी वास्तविक ज्ञान है वे जान सकते हैं कि इन देशोंको स्वतंत्र, समुन्नत और सुरक्षित रखनेके लिये जैनौने कैसे कैसे पराकम किये थे । जिस समय गुजरातका राज्यकार्यभार जैनों के अधीन था-महामात्य, मंत्री, सेनापति, कोषाध्यक्ष आदि बडे वबे अधिकारपद जैनोंके अधीन थे—उस समय गुजरातका ऐश्वर्य उन्नतिकी चरम सीमा पर चढा हुआ था । गुजरातके सिंहासनका तेज दिग्दिगंत व्यापी था । गुजरातके इतिहासमें दंडनायक विमलशाहा, मंत्री मुंजाल, मंत्री शांतु, महामात्य उदयन और बाहड; वस्तुपाल और तेजपाल; आभू और जगह इत्यादि जैन राजद्वारी पुरुषोंको जो स्थान है वह औरोंको नहीं है। केवल गुजरात ही के इतिहासमें नहीं परंतु समूचे भारत के इतिहास में भी इन अहिंसाधर्म के परमोपासकों के पराक्रमकी तुलना रखनेवाले पुरुष बहुत कम मिलेंगे । जिस धर्मके परम अनुयायी स्वयं ऐसे शूरवीर और पराकमशाली थे और जिन्होंने अपने पुरुषार्थसे देश और राज्य को खूब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ समृद्ध और सत्वशील बनाया था; उस धर्मके प्रचारसे देशकी या प्रजाकी अधोगति कैसे हो सकती है ? देशकी पराधीनता या प्रजाकी निवीयतामें कारण मृत — अहिंसा ' कभी नहीं हो सकती। जिन देशोंमें हिंसा ' का खूब प्रचार है, जो अहिंसाका नाम तक नहीं जानते हैं, एक मात्र मांस ही जिनका शास्वत भक्षण है और पशुसे भी जो अधिक क्रूर होते हैं क्या वे सदैव स्वतंत्र बने रहते हैं । रोमन साम्राज्य ने किस दिन अहिंसाका नाम सुना था ? और मांस भक्षण छोडा था ? फिर क्यों उसका नाम संसारसे उठ गया । तुर्क प्रजामें से कब हिंसामाव नष्ट हुआ और क्रूरताका लोप हुआ ? फिर क्यों उसके सामान्यकी आज यह दीन दशा हो रही है ? आर्लेण्डमें कब अहिंसाकी उद्घोषणा की गई थी ? फिर क्यों वह आज शताब्दियोसे स्वाधीन होने के लिये तडफडा रहा है ? दूसरे देशों की बात जाने दीजिए-खुद भारत ही के उदाहरण लीजिए । मुगल साम्राज्यके चाल. कोंने कब अहिंसाकी उपासना की थी जिससे उनका प्रभुत्व नामशेष हो गया और उसके विरुद्ध पेशवाओने कब मांस भक्षण किया था जिससे उनमें एकदम वीरत्वका वेग उमड आया । इससे स्पष्ट है कि देशकी राजनैतिक उन्नति-अवनति में हिंसा-अहिंसा कोई कारण नहीं है । इसमें तो कारण केवल राजकर्ताओंकी कार्यदक्षता और कर्तव्यपरायणता ही मुख्य है । हां, प्रजाकी नैतिक उन्नति-अवनतिमें तत्वतः अहिंसा-हिंसा अवश्य कारणमूत होती है । अहिंसाकी भावनासे प्रजामें सात्त्विक वृत्ति खिलती है और जहां सात्विक वृत्तिका विकास है वहां सत्वका निवास है । सत्त्वशाली प्रज' ही का जीवन श्रेष्ठ और उच्च समझा जाता है इससे विपरीत सत्त्वहीन जीवन कनिष्ट और नीच गिना जाता है । जिस प्रजामें सत्त्व नहीं वहा, साति, स्वतंत्रता आदि कुछ नहीं | इस लिये प्रजाकी नैतिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नतिमें अहिंसा एक प्रधान कारण है। नैतिक उन्नतिके मुकाबले में भौतिक प्रगतिको कोई स्थान नहीं है ओर इसी विचारसे भारत वर्षके पुरातन ऋषि-मुनियोंने अपनी प्रजाको शुद्ध नीतिमान बनने ही का सर्वाधिक सदुपदेश दिया है । युरोपकी प्रजाने नैतिक उन्नतिको गौणकर भौतिक प्रगतिकी ओर जो आंखमींच कर दौड़ना शुरू किया था उसका कटु परिणाम आज सारा संसार भोग रहा है । संसारमें यदि सच्ची शान्ति और वास्तविक स्वतंत्रताके स्थापित होनेकी आवश्यकता है तो मनुष्योंको शुद्ध नीतिमान् बनना चाहिए । ___ शुद्ध नीतिमान् वही बन सकता है जो अहिंसाके तत्त्वको ठीक ठीक समझ कर उसका पालन करता है । आहिंसा, शांति, शक्ति, शुचिता, दया, प्रेम, क्षमा, सहिष्णुता, निर्लोभता इत्यादि सर्व प्रकारके सद्गुणों की जननी है । अहिंसाके आचरणसे मनुष्यके हृदयमें पवित्र भावोंका संचार होता है, वैर विरोधकी भावना नष्ट होती है और सबके साथ बंधुत्वका नाता जुडता है । निस प्रजामें ये भाव खिलते हैं वहाँ ऐक्यका साम्राज्य होता है और एकता ही आज हमारे देशके अभ्युदय मौर स्वातंत्र्यका मूल वीज है । इस लिये अहिंसा यह देशकी अवनतिका कारण नहीं है परंतु उन्नतिका एकमात्र और अमोघ साधन है । 'हिंसा' शब्द हननार्थक 'हिसि ' धातु पर से बना है इस लिए 'हिंसा' का अर्थ होता है, किसी प्राणी को हनना या मारना । भारतीय ऋषि-मुनियों ने हिंसा की स्पष्ट ब्याख्या इस प्रकार की है-'प्राणवियोग प्रयोजन व्यापारः' अथवा 'प्राणि दुःख साधन न्यापारो हिंसाअर्थात् प्राणी के प्राण का वियोग करने के लिये अथवा प्राणी को दुःख देने के लिये जो प्रयत्न किया उसका नाम हिंसा है । इसके विपरीतकिसी भी जीव को दुःख या कष्ट न पहुंचाना आहिंसा है । 'पातंजल' योमसूत्र के भाष्यकार महर्षि व्यासने 'अहिंसा' का लक्षण यह किग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है-'सर्वथा सर्वदा सर्वमूतानामनभिद्रोहः-अहिंसा' अर्थात् सब तरह से, सर्व समय में, सभी प्राणियों के साथ अद्रोह भाव से वर्तना-प्रेममाव रखना उसका नाम अहिंसा है । इसी अर्थ को विशेष सष्ट करने के लिये ईश्वरगीता में लिखा है कि___कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा अक्लेशजननं प्रोक्ता अहिंसा परमविभिः । अर्थात्-मन, वचन और कर्म से सर्वदा किसी भी प्राणी को केश नहीं पहुंचाने का नाम महर्षियों ने 'अहिंसा' कहा है । इस प्रकार की अहिंसा के पालन की क्या आवश्यकता है इसके लिये आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि आत्मवत् सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये । चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥ अर्थात्-जैसे अपनी आत्मा को सुख प्रिय लगता है और दुःख अप्रिय लगता है, वैसे ही सब प्राणियों को लगता है | इस लिये अपनी आत्मा के समान अन्य आत्माओं के प्रति भी अनिष्ट ऐसी हिंसा का आचरण कभी नहीं करना चाहिये । यही बात स्वयं श्रमणभगवान् श्री महावीर ने मी इस प्रकार कही है “सम्वे पाणा पिया, सुइसाया, दुहपडिकूला, अम्पिय वहा, पिटबीविणो, जीविउकामा । (तम्हा) णातिवाएज किंचणं । " ___ अर्थात्-सर्व प्राणियों को आयुष्य प्रिय है, सब सुख के अभिलाफी है, दुःस सबको प्रतिकूल है, वध सबको अप्रिय है, जीवित सभी को प्रिय लगता है -सभी जीने की इच्छा रखते हैं । इसलिये किसीको मारना या कष्ट न देना चाहिए । अहिंसा के आचरण की आवश्यकता के लिये इससे बढकर और कोई दलील नहीं है- और कोई दलील-हो ही नहीं सकती। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...परन्तु यहां पर एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, इस प्रकार की अहिंसा का पालन सपी मनुष्य किस तरह कर सकते हैं । क्योंकि जैसा कि शास्त्रों में कहा है जले जीवाः स्थले जीवा जीवाः पर्वतमस्तके । ज्वालमालाकुले जीवाः सर्व जीवमयं जगत् ॥ अर्थात् जल में, स्थल में, पर्वत में, अग्नि में इत्यादि सब जगह जीव भरे हुए हैं—सारा जगत जीवमय है । इसलिये मनुष्य के प्रत्येक व्यवहारमें-खान में, पान में, चलने में, बैठने में, व्यापार में, विहार में इत्यादि सब प्रकार के व्यवहार में-जीवहिंसा होती है | बिना हिंसा के कोई भी प्रवृत्ति नहीं की जासकती । अतः इस प्रकार की संपूर्ण अहिंसा के पालन करने का अर्थ तो यह हो सकता है, मनुष्य अपनी समी जीवन क्रियाओं को बन्ध कर, योगी के समान समाधिस्थ हो इस नरदेह का बलात् नाश कर दे । ऐसा करने के सिवाय,-अहिंसा का भी पालन करना और जीवन को भी बचाये रखना, यह तो आकाश-कुतुम की गन्ध की अभिलाष के समान ही निरर्थक और निर्विचार है । अतः पूर्ण अहिंसा यह केवल विचार का ही विषय हो सकता है आचार का नहीं । यह प्रश्न यथार्थ है । इस प्रश्न का समाधान अहिंसा के भेद और अधिकारी का निरूपण करने से होगा । इसलिये प्रथम अहिंसा के भेद बतलाये जाते हैं । जैनशास्त्रकारों ने अहिंसा के अनेक प्रकार बतलाये हैं; जैसे स्थूल अहिंसा; और सूक्ष्म अहिंसा; द्रव्य अहिंसा और भाव 'अहिंसा; स्वरूप अहिंसा और परमार्थ अहिंसा; देश आहंसा और सर्व अहिंसा; इत्यादि । किसी भी चलते फिरते प्राणी या जीव को जीजान से न मारने की प्रतिज्ञा का नाम स्थूल अहिंसा है, और सर्व प्रकार के प्राणियों को सब तरह से क्लेश न पहुंचाने की आचरण का नाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ सूक्ष्म अहिंसा है । किसी भी जीव को अपने शरीर से दुःख न देने का नाम द्रव्य अहिंसा है और सब आत्माओं के कल्याण की कामना का नाम भाव अहिंसा है । यही बात स्वरूप और परमार्थ अहिंसा के बारे में मी कही जासकती है । किसी अंश में अहिंसा का पालन करना देश अहिंसा कहलाती है और सर्व प्रकार — संपूर्णतया अहिंसा का पालन करना सर्व अहिंसा कहलाती है । यद्यपि आत्मा को अमरत्व की प्राप्ति के लिये और संसार के सर्व बन्धनों से मुक्त होने के लिये अहिंसा का संपूर्णरूप से आचरण करना परमावश्यक है । विना वैसा किये मुक्ति कदापि नहीं मिल सकती । तथापि संसार निवासी सभी मनुष्यों में एकदम ऐसी पूर्ण अहिंसा के पालन करने की शक्ति और योग्यता नहीं आसकती, इसलिये न्यूनाधिक शक्ति और योग्यता वाले मनुष्यों के लिये उपर्युक्त रीति से तत्त्वज्ञों ने अहिंसा के भेद कर क्रमश: इस विषय में मनुष्य को उन्नता होने की सुविधा बतला दी है । अहिंसा के इन भेदों के कारण उसके अधिक रियो में भेद कर दिया गया है । जो मनुष्य अहिंसा का 1 संपूर्णतया पालन नहीं कर सकते, वे गृहस्थ - श्रावक - उपासक - अणुव्रती देशEती इत्यादि कहलाते हैं । जब तक जिस मनुष्य में संसार के सब प्रकार के माह और प्रलोभन को सर्वथा छोड देने की जितनी आत्मशक्ति प्रकट नहीं होती तब तक वह संसार में रहा हुआ और अपना गृहव्यवहार चलाता हुआ धीरे धीरे अहिंसाव्रत के पालन में उन्नति करता चला जाय। जहां तक हो सके वह अपने स्वार्थों को कम करना जाय और निजी स्वार्थ के लिये प्राणियों के प्रति मारनताडन - छेइन - आक्रोशन आदि क्लेशजनक व्यवहारों का परिहार करता बाय । ऐस गृहस्थ के लिये कुटुंब देश या यदि स्युल हिंसा करनी पढे तो उसे अपने व्रत में कोई हानि नहीं पहुं धर्म के रक्षण के निमित्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चती । क्योंकि जब तक वह गृहस्थी लेकर बैठा है तब तक समाज, देश और धर्म का यथाशक्ति रक्षण करना यह उसका परम कर्तव्य है । यदि किसी भ्रांतिवश वह अपने कर्तव्य से म्रट होता है तो उसका गतिक अधःपात होता है, और नैतिक अधःपात यह एक सूक्ष्म हिंसा है। क्योंकि इससे आत्मा की उच्चवृत्ति का हनन होता है । अहिंसा धर्म के उपासक के लिये निजी स्वार्थ-निजी लोभ के निमित्त स्थूल हिंसा का त्याग पूर्ण आवश्यक है | जो मनुष्य अपनी विषय तृष्णा की त के लिये स्थूल प्राणियों को क्लेश पहुंचाता है, वह कभी किसी प्रकार अहिंसाधर्मी नहीं कहलाता । अहिंसक गृहस्थ के लिये यदि हिंसा कर्तव्य है तो वह केवल परार्थक है । इस सिद्धान्त से विचारक समझ सकते हैं कि, अहिंसावत का पालन करता हुआ, मी गृहस्थ अपने समाज और देश का रक्षण करने के लिये युद् कर सकता हैरडाई लड सकता है । इस विषय की सत्यता के लिये हम यहां पर ऐतिहासिक प्रमाण भी दे देते हैं गुजरात के अन्तिम चौलुक्य नृपति दूसरे भीम ( जिसको भोला भीम भी कहते हैं ) के समय में, एक दफह उसकी राजधानी अणहि पुर पर मुसलमानों का हमला हुआ । राजा उस समय राजधानी में हाजर न था केवल राणी मौजूद थी । मुसलमानो के हमले से शहर का संरक्षण कैसे करना इसकी सब अधिकारियों को बडी चिन्ता हुई। दंडनायक ( सेनाधिपति ) के पद पर उस समय एक आभु नामक मीमालिक वणिक श्रावक था । वह अपने अधिकार पर नया ही आया हुआ था, और साथ में वह बडा धर्माचरणी पुरुष था । इसलिये उसके युद्धविषयक सामर्थ्य के बारे में किसीको निश्चित विश्वास नहीं था । इधर एक तो राजा स्वयं अनुपस्थित था, दूसग राज्यमें कोई वैसा अन्य पराकमी पुरष न था, और तीसरा, न राज्यमें यथेष्ट सैन्य ही था । इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ लिये राणी को बढी चिन्ता हुई । उसने किसी विश्वस्त और योग्य मनुष्य के पाससे दंडनायक आमु की क्षमता का कुछ हाल जान कर स्वयं उसे अपने पास बुलाया और नगर पर आई हुई, आपत्ति के सम्बन्ध में क्या उपाय किया इसकी सलाह पूछी । तत्र दंडनायकने कहा कि यदि महाराणी का मुझ पर विश्वास हो और युद्ध संबंधी पूरी सत्ता मुझे सौप दी जाय तो मुझे श्रद्धा है कि मैं अपने देश को शत्रु के हाथ से बालबाल बचा लूंगा । यमू के इस उत्साहजनक कथन को सुनकर राणी खुश हुई और युद्ध संबंधी संपूर्ण सत्ता उसको देकर युद्धकी घोषणा कर दी | दंडनायक आमु ने उसी क्षण सैनिक संवटन कर लढाई के मैदान में डेरा किया | दूसरे दिन प्रातः काल से युद्ध शुरू होने वाला था । पहले दिन अपनी सेना का जमाव करते करते उसे संध्या हो गई । वह व्रतधारी श्रावक था इसलिये प्रतिदिन उभय काल प्रतिक्रमण करने का उसको नियम था । संध्या के पढने पर प्रतिक्रमण का समय हुआ देख उसने कहीं एकांत में जाकर वैसा करनेका विचार किया । परंतु उसी क्षण मलूम हुआ कि उस समय उसका वहांसे अन्यत्र जाना इच्छि कार्य में विघ्नकर था, इसलिये उसने वहीं हाथी के होदे पर बैठे ही बैठे एकाग्रता पूर्वक प्रतिक्रमण करना शुरू कर दिया । जब वह प्रतिक्रमण में खाने वाले -- “ जेमे जीवा विराहिया - रगिंदिया-बेइंदिया " इत्यादि पाठ का उच्चारण कर रहा था. तब किसी सैनिक ने उसे सुन कर किसी अन्य अफसर से कहा कि - देखिए बनाव हमारे सेवादा तो इस लढाई के मैदान में भी — जहां पर शस्त्रास्त्र की झनाझन हो रही है. मारो मारो की पुकारे बुलाई जा रही हैं वहाँ — एगिंदिया बेइंदिय कर रहे हैं। नरम नरम सीरा खाने वाले ये श्रावक साहब क्या बड़ादुरी बतायेंगे। धीरे धीरे यह बात ठेठ रानी के कान तक पहुंची । वह सुनकर बहुत संदिग्ध हुई परन्तु उस समय अन्य कोई विचार करने . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अवकाश नहीं था, इसलिये भावि के ऊपर आधार रखकर वह मौन रही । दूसरे दिन प्रातःकाल ही से युद्ध का प्रारंभ हुआ । योग्य संधि पाकर दंडनायक आमूने इस शौर्य और चातुर्य से शत्रु पर आक्रमण किया कि जिससे क्षणभर में शत्रु के सैन्य का भारी संहार हो गया और उसके नायक ने अपने शस्त्र नीचे रखकर युद्ध बन्ध करने की प्रार्थना की । मामू का इस प्रकार विजय हुआ देख कर अणहिलपुरकी प्रजा में चय जय का आनन्द फैल गया । राणी ने बडे सम्मानपूर्वक उसका स्वागत किया और फिर बडा दरबार करके राजा और प्रजा की तरफ से उसे योग्य मान दिया गया । उस समय हँस कर राणी ने दंडनायक से कहा कि-सेनाधिपति, जब युद्ध की व्यूह रचना करते करते बीच ही में माप-" एगिदिया बेइंदिया " बोलने लग गये तब तो आपके सैनिको को ही यह संदेह हो गया था कि, आपके जैसा धर्मशील और अहिंसा प्रिय पुरुष मुसलमानों जैसों के साथ लडने वाले इस क्रूर कार्य में कैसे धैर्य रख सकेगा । परन्तु आपकी इस वीरता को देखकर सबको बाश्चर्य निमग्न होना पडा है । यह सुनकर कर्तव्यदक्ष उस दंडनायक ने कहा कि-महाराणि, मेरा जो अहिंसानत है. वह मेरी आत्मा के साथ सम्बन्ध रखता है | मैंने जो !! एगिंदिया बेइंदिया " के वध न करने का नियम लिया है वह अपने स्वार्थ की अपेक्षा से है । देश की रक्षा के लिये और राज्य की आज्ञा के लिये यदि मुझे वध कर्म की आवश्यकता पड़े तो वैसा करना मेरा कर्तव्य है । मेरा शरीर यह राष्ट्र. की संपत्ति है । इसलिये राष्ट्र की आज्ञा और आवश्यकतानुसार उसका उपयोग होना ही चाहिए । शरीरस्थ आत्मा या मन मेरी निजी संपत्ति है उसे स्वार्थीय हिंसामाव से अलिप्त रखना यही मेरे अहिंसावत का. लक्षण है । इत्यादि इस ऐतिहासिक और रसिक उदाहरण से विज्ञ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठक मली भांति समझ सकेंगे कि, जैन गृहस्थ के पालने योग्य अहिं. सावत का यथार्थ स्वरूप क्या है । सर्व-अहिंसा और उसके अधिकारी । जो मनुष्य अहिंसावत का पूर्ण रूप से पालन करते हैं वे यति. मुनि-भिक्षु श्रमण-संन्यासी-महावती इत्यादि शब्दों से संबोधे जाते हैं । वे संसार के सब कामों से दूर और अलिप्त रहते हैं । उनका कर्तव्य केवल निज का आत्मकल्याण करना और जो मुमुक्षु उनके पास आवे उसको आत्मकल्याण का मार्ग बताना है | विषय-विकार और कषायभाव से उनका आत्मा ऊपर रहता है। जगत् के सभी प्राणी उनके लिये पात्मवत् है । यह मैं और यह दूसरा, इस प्रकार का द्वैत-भाव उनके हृदय में से नष्ट हो जाता है । उनके मन, वचन और कर्म तीनों एक रूप होते हैं । सुख दुःख या हर्ष-शोक उनके मनमें एक ही स्वरूप दिखाई देते हैं । जो पुरुष इस प्रकार की स्वरूपावस्था को प्राप्त कर लेता है वही महावती है, और उसीसे अहिंसा का सर्वतः पालन किया जा सकता है । ऐसे महाव्रती के लिये न स्व-अर्थ हिंसा कर्तव्य है और परार्थ । वह स्थूल या सूक्ष्म समी प्रकार की हिंसा से मुक्त रहता है। . ___ यहां पर यह एक प्रश्न होता है कि, क्या इस प्रकार के जो महावती होते हैं वे खाते पीते या चलते बैठते हैं कि नहीं है। अगर वे वैसा करते हैं तो फिर वे अहिंसा का सर्वतः पालन करने वाले कैसे कहे जा सकते हैं ? क्योंकि खाने पीने या चलने बैठने में मी तो जीव हिंसा होती ही है। इसका समाधान यह है कि यद्यपि यह बात सही है कि, उन महावतियों से भी उक्त कियायों के करने में सूक्ष्म प्रकार की जीवहिंसा होती रहती है, परन्तु उनकी उम्च मनोदशा के कारण उनको उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ हिंसा-जन्य पाप का स्पर्श बिलकुल नहीं होता और इस लिये उन का आत्मा इस पाप-बंधनसे मुक्त ही रहता है । जब तक मनुष्य का आत्मा इस स्थुल शरीर में अधिष्ठाता होकर वास करता रहता है तब तक इस शरीर से वैसी सूक्ष्म हिंसा का होना अनिवार्य है । परन्तु उस हिंसा में आत्मा का किसी प्रकार का संकल्प विकल्प न होने से वह उससे अलिप्त ही रहता है । महावतियों के शरीर से होने वाली यह हिंसा द्रव्य हिंस' या स्वरूप-हिंसा कहलाती है। भाव-हिंसा या परमार्थ-हिंसा नहीं । क्योंकि इस हिंसा में आत्मा का कोई हिंसक-भाव नहीं है । हिंसा-जन्य पार से वहीं आत्मा बद्ध होता है जो हिंसक-भाव से हिंसा करता है। जैनों के तत्त्वार्थ सूत्र में हिंसा का लक्षण बताते हुए यह लिखा है कि 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।' अर्थात्-प्रमत्त भाव से जो प्राणियों के प्राण का नाश किया जाता है वह हिंसा है । प्रमतभाव का तात्पर्य है विषय-कषाय युक्त होकर, जो जीव विषय-काय के वश होकर किसी भी प्राणी को दुःख या कष्ट पहुंचाता है वह हिंसा के पाप का बन्धन करता है । इस हिंसा की व्याप्ति केवल शरीर से कट पहुंचाने तक ही नहीं है परंतु वचन मे वैसा उच्चारण और मन से वैसा चिन्तन करने तक है । जो विषय-कषाय के वश हो कर दूसरों के लिये अनोष्ट भाषण या अनीष्ट चिन्तन करता है वह भी माव-हिंसा या परमार्थ-हिंसा करता है। और इसके विपरीत, जो वि. षय-कवास त है, उस य द को किसी प्रकार की हिंता हो भी गई तो उसकी वह हिंसा परमार्थ से हिंसा नहीं है । एक व्यावहारिक उदाहरण से इसका स्वरूप सष्ट समझ में आ जायगा । ___ एक पिता अपने पुत्र की या गुरु अपने शिष्य की किसी बुरी प्रवृत्ति से रुष्ट हो कर उसके कल्याण के लिये कोर बचन से या शरीर से उसकी ताना करता है, तो वह पिता या गुरु लोकदृष्टि में कोई निन्दनीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या दण्डनीय नहीं समझा जाता । क्योंकि पिता या गुरु का वह व्यवहार द्वेष-जन्य नहीं है । उस व्यवहार में सद्बुद्धि रही हुईं है । इसके विपरीत जो कोई मनुष्य द्वेत्र वश हो कर किसी मनुष्य को गाली गलोच या मारपीट करता है, तो वह राज्य या समाज की दृष्टि में दण्डनीय और निन्दनीय समझा जाता है । क्योंकि वैसः व्यवहार करने में उसका आशय दुष्ट है । यद्यपि इन दोनों प्रकार के व्यवहारो का बाह्य स्वरूप समान ही है तथापि आशय भेद से उनके भीतरी रूप में बडा भेद है । इसी प्रकार का भेद द्रव्य और भाव हिंसादि के स्वरूप में समझना चाहिए । . वास्तव में हिंसा और अहिंसा का रहस्य मनुष्य की भावनाओं पर अवलम्बित है । किसी भी कर्म या कार्य के शुभाशुभ बन्धन का आवार कर्ता के मनोभाव ऊपर है । मनुष्य जिस भाव से जो कर्म करता है, उसी अनुसार उसे फल मिलता है । कर्म का शुभाशुभपना उसके स्वरूप में नहीं रहा हुआ है, किन्तु कर्ता के विचार में रहा हुआ है । जिस कर्म के करने में कर्ता का विचार शुभ है, वह शुभ कर्म कहलाता है और जिस कर्म के करने में कर्ता का विचार अशुभ है वह अशुम कर्म कहलाता है । एक डाक्टर किसी मनुष्य को शस्त्रकिया करने के लिये जो क्लोरोफॉर्म सुंबा कर बेहोश बनाता है उसमें और एक चोर या खूनी किसी मनुष्य को धन या जीवित हरन करने के लिये जो क्लोरोफॉर्म सुंबा का, बेहोश करता है उतम कर्म के किया की ह परन्तु फल की दृष्टि से जब देखा जाता सन्मान मिलता है ओर चोर या खु । से किंचित् भी फरक नहीं है है, तब डॉक्टर को तो बड़ा को मयंकर शिक्षा दी जाती है । यह उदाहरण जगत् की हार्ट से हुआ | अब एक दूसरा उदाहरण लीजिए, जो स्वयं मनुष्य की अंत - रात्मा की दृष्टि में अनुभूत होता है । एक पुत्र अक्ने शरीर से जिस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार अपनी स्त्री से आलिंगन करता है, उसी प्रकार वह अपनी माता बहिन या पुत्री से आलिंगन करता है | आलिंगन के बाह्य प्रकार में कुछ भेद न होने पर भी आलिंगन कर्ता के आंतरिक भावों में बडा मारी भेद अनुभूत होता है । पत्नी से आलिंगन करते हुए पुरुष का मन और शरीर जब मलिन विकारभाव से भरा होता है, तब माता आदि के साथ आलिंगन करने में मनुष्य का मन निर्मल और शुद्ध सात्त्विक-वत्सल-भाव से भरा होता है । कर्म के स्वरूप में किंचित् फरक न होने पर भी फल के स्वरूप में इतना विपर्यय क्यों है, इसका जब विचार किया जाता है, तो स्पष्ट ही मालूम होता है कि, कर्म करने वाले के भाव में विपर्यय होने से फल के स्वरूप में विपर्यय है । इसी फल के परिणाम ऊपर से कर्ता के मनोभाव का अच्छा या बुरापन निर्णित किया जाता है; उसी मनोभाव के अनुसार कर्म का शुभाशुमपना माना जाता है । अतः इससे यह सिद्ध होगया कि धर्म-अधर्म-पुण्यपाप-सुकृत-दुष्कृत का मूलमूत केवल मन ही है । भागवतधर्म के नारद पंचरात्र नामक ग्रंथ में एक जगह कहा गया है कि मानसं प्राणिनामेव सर्वकमैंककारणम् । मनोऽरूपं वाक्यं च वाक्येन प्रस्फुटं मनः ।। अर्थात् प्राणियों के सर्व कर्मों का मूल एक मात्र मन ही है । मन के अनुरूप ही मनुष्य की वचन ( आदि ) प्रवृत्ति होती है और उस प्रवृत्ति से उसका मन प्रकट होता है । इस प्रकार सब कर्मों में मन ही की प्रधानता है । इस लिये आत्मिक विकास में सबसे प्रथम मन को शुद्ध और संयत बनाने की आवश्यकता है | जिसका मन इस प्रकार शुद्ध और संयत होता है वह फिर किसी. प्रकार के कर्मों से लिप्त नहीं होता । यद्यपि जब तक आत्मा- देह को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ धारण किये हुए है, तब तक उससे कर्म का सर्वथा त्याग किया जाना असंभव है । क्योंकि गीता का कथन है कि 'नहि देहमता शक्यं त्यक्तुं कर्मण्यशेषतः । ' तथापि योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेंद्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।। इस गीतोक्त कथनानुसार-जो योगयुक्त, विशुद्धात्मा, विजितात्मा, जि-': तेंद्रिय और सर्व भूतों में आत्मबुद्धि रखनेवाला पुरुष है, वह कर्म करके भी उससे अलिप्त रहता है। ऊपर के इस सिद्धान्त से पाठकों की समझ में अब यह अच्छी तरह आजायगा कि, जो सर्वव्रती-पूर्णत्यागी मनुष्य है उनसे जो कुछ सूक्ष्म कायिक हिंसा होती है उसका फल उनको क्यों नहीं मिलता ।' इसी लिये कि, उनसे होने वाली हिंसा में उनका भाव हिंसक नहीं है । और बिना हिंसक-भाव से हुई हिंसा, नहीं कही जाती । इसलिये आवश्यक महाभाष्य नामक आप्त जैन ग्रंथ में कहा है कि असुमपरिणामहेऊ जीवाबाहो ति तो मयं हिंसा । जस्स उन सो निमित्तं संतो विन तस्स सा हिंसा || अर्णत किसी जीव को कष्ट पहुंचाने में जो अशुभ परिणाम निमित्तमृत है तो वह हिंसा है, और ऊपर से हिंसा मालूम देने पर भी जिसमें वह अशुभ परिणाम निमित्त नहीं है, वह हंसा नहीं कहलाती । यही बात एक और ग्रंथ में इस प्रकार कही हुई है: जं न हु मणि ओ बंचो जीवरस वहेवि समिइगुत्ताणं । मावो तत्थ पमाणं न पमाणं कायवाबारो॥ (धर्मरत्न मंषा, पृ. ८३२) मर्यात् समिति-गुप्तियुक्त महावतियों से किसी जीव का वध हो जाने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर भी उसका उनको बन्ध नहीं होता क्योंकि बन्ध में मानसिक माय ही कारणभूत है -कायिक व्यापार नहीं । यही बात भगवद्गीता में भी कही हुई है । यथाः यस्य नाहंकृतो मावो बुद्धियस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाल्लोकान् न हन्ति न निबध्यते ।। अर्थात जिसके हृदय में से ' अहंभाव ' नट हो गया है और जिसकी बुद्धि मलित रहती है वह पुरुष कदाचित् लोकदृष्टि से लोगों कोप्राणियों को मारने वाला दीखने पर भी न वह उनको मारता है, और न उस कर्म से बद्ध होता है। इसके विपरीत जिप्तका मन शुद्ध और संयत नहीं है-जो विषय और कषाय से लिप्त है वह बाह्य स्वरूप से अहिंसक दीखने पर भी तत्व से वह हिंसक ही है। उसके लिये स्पष्ट कहा गया है कि-- अहणतो वि हिंसो दुर्छतणओ मओ अहिमरोब्ध । जिसका मन दुष्ट-भावों से भरा होता है वह किसीको नहीं मारकर मी हिंसक ही है । इस प्रकार जैनधर्म की अहिंसा का संक्षिप्त · स्वरूप है। ___(महावीरसे उघृत) सातक्षेत्र. क्षेत्रषु सप्तस्वपि पुण्यवृद्धये, वद्धन सम्पतिराजबद्धनी । Fiलं केलशास्तिदुटान्, यो त कि योऽ खेलसस्य लालसः॥ १ ॥ अर्थ-धनपात्र मनुष्यको चाहिये, कि संपत्ति नरेश, की तरह पुण्यकी वृद्धिकी इच्छासे अर्थात् धर्मकी पुष्टि के लिये सात क्षेत्रोंमें धन व्यय करे, इस पर यह तर्क हो सकती है कि खेती करने वाला (कृषक) क्या चावल ही बीजता है ? ... नहीं नहीं सर्वही प्रकारके धान्यों को बीजता है। दृष्टान्त के तौर पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी नगरमें कोई एक कोटिध्वज शाहुकार रहता था, उसने अपने अंत समयमें गामके चार प्रतिष्ठित पुरुषों को बुलाकर अपनी संपूर्ण संगति देदी और कहा कि तुमको विश्वास पात्र समझ कर आपनी पूंजी देता हूं। तत्पश्चात् मैं अपने अभीष्टको आप लोगोंके समक्ष प्रकाशित करता हूं, कि मेरे सात पुत्र हैं । और उनके पालन पोषण के निमित्त उपर्युक्त पूंबी तुम्हारे अधिकार अर्पण की जाती है, तुमको सर्वथा उचित है कि मेरी सम्पत्तिका अनुचित रीतिसे दुरुपयोग न करें, केवल इस संचित पूंजी को मेरे लिय अंगों के पालन पोषण में ही व्यय करके उनको सदाके लिये हयात और आबाद रख्खे । [उपनय घटना ] संसार यह एक तरहका नगर है, वीर परमात्मा शाहुकार है । उन्होंने अपने निर्वाण के समय अपनी ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप अनंत सम्पत्ति श्रीसंवको सुपुर्द करके कहा कि हमारे बताये हुये अर्थात् हमारे स्थापन [ कायम ] किये हुये जिनविम्ब १ जिनपैत्य २ सम्यग् ज्ञान ३ साधु ४ साध्वी ५ श्रावक ६ प्राविका ७ इन सात क्षेत्ररूप पुत्रोंका तुम सदा पालन, पोषग, रक्षण और निरीक्षणा करना, इन सात ही क्षेत्रोंका समान दृष्टिसे बचाव करना । इन सात क्षेत्रोंको मेरे निज पुत्र समझ कर समान भावसे पालना, और उत्पात, उपद्रवोंसे रक्षा करते रहना । गुणकारी, उपकारी, सहायक सामग्रीसे इन्हें उपचित करना । आशय यह है कि इनसे किसोको मी न्यूनाविक समझ कर बिलकुल चटाना बढाना नहीं, कितो पर भी भावको न्यूनाधिकता न रखते हुये, सबको मेरे ही शरीरके अंगमा मानना । इससे हमारा यह आशय नहीं कि देव द्रव्य ज्ञान द्रव्य साधु साधी, या श्रावक श्राविका खाजावें !! ऐसा होना तीर्यकर गगवरो की आशा साफ विरुद्ध है । हमारा आशय यह है कि हिन्मुस्थानने आजकर ३१ हमार बिनमंदिर गिने जाते है । हरएक समझदार समझ सकता है किShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिनप्रतिमाकी पूजा में धूप-दीप-चंदन-बरास-वास-वाला-कुचीअंगलुहना-पंचामृत-कलस-थाल रकेची चामर चंद्रवा-पूठिया चौकीपानी-पूजारी-आदि अनेक वस्तुयें चाहिये, यह संसारभरके जैन जानते हैं । आक और धतूरेसे जिनप्रतिमा कहीं नहीं पूजी जाती | ३६ हजार मंदिरों की पूजाके लिये कमती कमती प्रति मंदिर १०० रुपया सालाना भी गिना जाय तो भी हिसाब गिननेसे ३६ लाख रुपया वार्षिक खर्च मंदिरोंका आता है यह. कार्य जैन समाजकी भक्तिसे उनकी उत्कृष्ट भावना से सहर्ष हो रहा है, तथापि प्रतिवर्ष नये मंदिरोंकी टिप्पणियाँ तडा मार उपराउपरी आ रही हैं, इससे अधिक लाभ क्या सो हमारी समझमें नहीं आता । जहाँ १० घरोंकी जैनवस्ति है वहाँ ५००० हजारके खर्चसे मंदिर बनवाया जाता है । उस कार्यमें अनेक गामों को दाक्षिण्यतासे कहने कहानेसे साधुओंकी सिफारशोंके कारण शक्तिकेन होने पर भी पैसा देना पडता है । इसके बदले जिस गाममें एक जिन मंदिर है वहां उसीकी सेवाभक्ति नहीं होती तो दूसरा क्यों बनवाया जाता होगा ? जो रुपया उस दूसरे मंदिर में खर्च करना है वह उस पहले मंदिरके निर्वाह के लिये जमा करके उसके व्याज वगैरहसे मूलमंदिरकी आशातना का परिहार क्यों न कराया जाय ? हमने गतवर्ष अनुमव करके देखा कि एक गाममें दो मंदिर हैं वहां प्रतिदिन १० आदमी भी पूजा नहीं करते होंगे इतने में वहां दो तीन और बन रहे हैं । सुना गया है कि उन मंदिरोके तयार होने में करीबन १॥ लाख रुपया खर्च होगा ऐसी हालत में इन्साफ की दृष्टि से देखा जाय तो श्रावक श्राविका रूप दोनों क्षेत्रोंकी कैसी हालत होरही है उधर कोई ख्याल देता है ? अगर श्रावक श्राविका ही नहीं रहेंगे तो उन तुम्हारे बनवाए मंदिरोंको पूजेगा कौन ? दूसरे धर्मो तर्फ दृष्टिपात करते हैं तो साफ तौर पर माल्म होता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ कि जो लोग आजसे २० वर्ष पहले हजारोंकी संख्या में थे वह आज लाखोकी संख्या में आगये और जैन प्रजा करोडोंकी संख्या मेंसे लाखों में आगई । अब यह भी सोचनेका विषय है कि जिस धर्ममें विद्या नहीं, जिसमें ऐक्य नहीं. जिसमें कोई नायक नहीं, जिसका आनेका मार्ग रुक चुका है और जाना हमेशा जारी है उस धर्मकी, उस समाज या - संप्रदायकी बढती चढती कैसे हो सकती है ? बढती की तो बात ही दर किनारे रखो मूर्तिपूजा की ही क्षति होरही है। शहर सूरतमें व्याख्यान देती हुई विदुषी एनीबेसेन्ट ने कहा था कि" यद्यपि जैनधर्म पवित्र और प्राचीन है तथापि आज कलको उसकी छिन्नभिन्न दशाको देख कर बुद्धिबलसे मालूम देता है कि यह धर्म १०० वर्षसे ज्यादा दुनिया में नहीं टिकेगा " आज हम उस बात का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं। दस वर्ष पहले जो मर्दुमशुमारी हुई थी उस वक्त में और आज की संख्या मे १००००० आदमी की कमी हुई है । ४०००० मनुष्य सिर्फ मुंबई इलाके मेंसे घटे हैं । इस अवस्थामें तो सबसे पहले श्रावक श्राविका रूप क्षेत्रकी सार संभाल करना चाहिये । || जिनबिम्ब || “बिम्बम् महल्लघु च कारितमत्र विद्युन्माल्यादिवत् परमत्रेऽपेिशुभाय जैनम् । ध्या तुर्गुरुलघुर पीप्सितदायिमंत्रप्राग्दौस्थाभावि घनविघ्नाभिदे न किं स्यात् || २ | इस लोक में छोटा या बडा एक भी जिन बिम्ब कराया होय, तो वह विद्युन्माली देवताको जैसे कल्याणका करण हुआ वैस सर्व भय्यात्माओंको हो सकता है । प्रसिद्ध बात है कि बडा इष्टफल देनेवाला मंत्रध्यान करनेवाले के दरिद्र को दूर नहीं करता अर्थात् करता है । (विशेष विवेचन ) संसारके प्रत्येक ग्राम, नगर या जनपद में देखनेसे साक्षी मिल सकती www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि कोई किसी प्रकारसे और कोई किसी प्रकारसे परन्तु संसार की पटडी पर मनुष्यामात्र, संप्रदायमात्र, मूर्तिपूजक, बुतपरहस्त है । जो लोग बाहिरी तौरसे बुतपरस्ती को बुरा भी समझते हैं उनके घरों में उनकी सामाजिक संस्थाओं में उनके धार्मिकग्रन्थों पर, उनके पून्यगुरुओंकी मूर्तियां दीख पडती हैं । दृष्टान्तके तौर पर समझिये, कि आर्गसमाज लोग मूर्ति पूजाके कट्टर विरोधी हैं, परन्तु उनके विद्यालयोंमें, उपदेशभवनों में “ स्वामी दयानन्दजीके" फोटो भीतों पर लटकाए हुए मिलते हैं । वह लोग व्याख्यान देते समय बडे आदरमावसे,पूज्यबुद्धिस हाथ लम्बा लम्बा कर बताते हैं, कि यह “सत्यधर्म के प्रचारक" यह मिथ्याडंबरोंके निवारक यह " संसारके उद्धारक " स्वामी दयानन्दसरस्वती अपने बनाये हुए अमुक ग्रन्थके अमुक पृष्ठ पर यह बात लिखते हैं।" अब समझना चाहिये कि जिस मूर्ति के सामने हाथ लम्बाया जाता है, बिते स्वामीजीके इशारेसे बताया जाता है, वह क्या स्वामीजीकी देह है ? क्या वह स्वामीजीका वजूद है ? क्या उसमें स्वामीजीकी आत्मा विराजमान है ? उसते किसी किसमकी स्वामीजीकी गरज सर सकती है? नहीं किसी तरह भी नहीं इसी । प्रकार संसारके सम्पूर्ण संप्रदायों में किसी न किसीरूप मूर्तियोंका मानना सिद्ध है। जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव स भी प्राचीन समयसे मूर्तियोंके पूजक हैं । उसमें विशेष कर जैनधर्म में मूर्तिपूजा बडे आदर सत्कारसे की जाती है । परन्तु इतना तो अवश्य कहना पडेगा कि जैनसंपदाय मूर्तिको मूर्तिमान कर पत्थरके पुतले मानकर नहीं पूजा किन्तु वह जिस देव या गुरु की मूर्ति है उसकी अनुपस्थितिम उसको उस मूर्ति के द्वारा स्मर्ण करके उसमूर्तिवालेके गुणोंको पूजता है। न कि सामने दिखाई देते उस बुतको । उस मूर्तिके द्वारा मूर्तिवाले महात्माकी जीवन चय्याको स्मर्ण करके उन अतीतकालकी घटनाओको हृदयमें स्थान देकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ च परमात्माकी यह मूर्ति है उसने फलाने फलाने वक्त उस अपने वजूद के जरिये फलाना फलाना उत्तमकार्य करके समाज और देशको ॠणी किय तथा जैसे कि कव्वाली दीक्षा प्रभूकी जोवे जग पुण्यवन्त प्राणी ( अंचली ) जय वामाजीके नंदा कटो जन्म जन्म फन्दा कुलवृद्ध बोले वाणी, जग पुण्यवन्त प्राणी ।। १ ।। चकचूर मोह करियो, दालिद्र दूर हरियो । जिम होये वरसी दानी, जग पुण्यवन्त प्राणी || २ || पहुंचे बहिर नगरिया, वरघोडेसे उतरिया । आश्रम पद उद्यानी, जग पुण्यवन्त प्राणी || ३ || अशोक वृक्ष हेठे, भूषण तजके बैठे । अटम तप मानी, जग पूण्यवन्त प्राणी || ४ || महाव्रत चार उचरे, वदि पोष मास सुचरे । एकादशी सुहानी, जग पुण्यवन्त प्राणी || ५ || परिवार शत तीनो, देवदूष्य इंद्र दीनो । प्रभु होए तूर्य ज्ञानी, जग पुण्यवन्त प्राणी ॥ ६ ॥ नंदीश्वरे सुर जावे, माता पिता घर आवे | काउसग जिन ध्यानी, जग पुण्यवन्त प्राणी ॥ ७ ॥ व्यतम आनंद दाता, पार्श्व प्रभु है त्राता । वल्लम वीर जानी, जग पूण्यवन्त प्राणी ॥ ८ ॥ प्रमुकी पूजा करते हुए सुज्ञ मनुष्यको चाहिये कि वह नीचे लिखी हुई बातों को मन में रखकर परमात्मा की पूजा करे । हे प्रभो इन चरणोंके बलसे आप देशोंदेश गामोगांम घूम कर हमारे जैसे मूले मटकते जीवोको मोक्षका मार्ग बता सके हैं इस लिये मैं आपके चरणों की पूजा करता हूं | इसी तरह नव ही अंगोकी पूजा करते समय जो मावनत लानी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिये उस भावनाके सूचक दोहे प्रायः सर्वत्र जैन संप्रदायमें प्रसिद्ध है। जैसे कि जलभरी संपुटपत्रमें, युगलिक नर पूजन्त । ऋषभ चरण अंगूठडो, दायक भवजल अंत ।। १ ।। जानुबले काउसग रह्या, विचर्या देशविदेश । खडे खडे केवल लह्यो, पूजो जानुनरेश ।। २ ।। इत्यादि परंतु बहुत लोग पूजाके समय इन दोहोको बडे ऊंचे आवाजसे गाते हैं, ऐसा होना अनुचित है । पूजा मौनसे ही होनी चाहिये । जैनदर्शनमें श्रद्धाबुद्धिसे जिनबिम्ब तयार करानेवाले के लिये प्रबल पुण्यका होना माना गया है, जैसे कि___“ अंगुष्टमानमपि यः प्रकरोति बिम्बम्, वीरावसानवृषभादिजिनेश्वराणां। स्वर्गे प्रधानविपुलर्द्धिसुखानि मुंक्त्वा, पश्चादनुत्तरगतिं समुपैति धीरः ॥३॥" जो धर्मधार मनुष्य श्रीऋषभदेवसे लेकर श्रीमहावीर स्वामीपर्यंत २४ तीर्थंकरदेवोंकी अंगुष्ठ जितनी भी प्रतिमा बनवाता है वह स्वर्ग: असंख्य सुखभोग कर पीछेसे मोक्षसुखका भागी होता है । भरतचक्रवर्तीने वज्रमयी अपनी अंगूठीमें हीरेकी प्रतिमा रखाई थी। गुजरातके प्रख्यात नरेश भीमदेवके प्रधानमंत्री विमलकुमार भी अपनी मुद्रिका निनप्रतिमा रखकर राजदरबारमें जाया करते थे। मथुरा नगरी में जिस समय जैनधर्मका सर्वतो उत्कर्ष था, उस समय वहांके लोग अपने घरोंके दरवाजों पर भी जिनप्रतिमाकी स्थापना किया करते थे । कहां तक कहा जाय ? देवता लोग जब देवभूमि ( स्वर्ग) में पैदा होते हैं पहिले ही जिनप्रतिमाकी वन्दना पूजना करते हैं । संप्रतिनरेश जो कि चंद्रगुप्त राजाके वंशज अशोकश्रीके पौत्र थे, उन्होंने सवा लक्ष जिनप्रतिमायें बनवाई थीं। जिनमें से आज भी कई एक उस समयकी प्रतिमायें भारतवर्ष के अन्यान्य प्राचीन स्थानामें से निकलती नजर बारी हैं। जैसे अस्टिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gyapbhendermara uraraganbhandar com अष्ठीयाके अन्तर्गत हंगरी प्रान्तके बुदापेस्त शहरमें एक अंग्रेजके बगीचे में खोदते हुये निकली हुई महावीरकी प्रतिमा. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशमें हंगरीप्रांतके " बूदापेस्त " शहरमें श्रीमन्महावीरस्वामीकी प्रतिमा निकली है [ इसके विशेषवर्णनके लिये मेरा लिखी " गिरिनार गल्ल" और 'संप्रतिराजा" नामक पुस्तकोंका देखना जरूरी है ] मूर्तिपूजकों की संख्या. मूर्तिनिषेधकोंकी संख्या. बौद्ध ५८००००००० याहुदी १२२००००० केथोलिक १००००००० प्रोटेस्टंट १७१६००००० ग्रीक १००००००० पारसी १००००० हिंदु २१६७००००० मुसलमान २२१८००००० जैन १०००००० ढूंढकजैन ३००००० एनिमिष्ट ! ५०२००००० ब्रह्मपार्थनासमाज ५५०० सिख लोग भी गुरुओंकी मूर्तिकी पूजा करते हैं। कुछ वर्ष पहिले एक महानुभावने सरस्वती " भारतकी मूर्ति कारीगरी " इस विषय पर लेख लिखकर बहुतसी नवीन जाननेलायक वातो. का दिग्दर्शन कराया था | उनके कुछ सरल सरल और उपयोगी का क्योंको यहां उदृत किया जाता है । 'भारतवर्षकी प्राचीन शिल्पकलाकन Eनिष्ट संबंध 'धर्म ' से सर्वदा रहा है । प्राचीन भारतके चित्रकार तथा मूर्तिकार अपनी २ विद्या तथा कलाकौशल्यका उपयोग संसारको साथ रण वस्तुओके संबंध न करते थे । भारतीय चित्रकार तथा मूर्तिकारोळा उद्देश देवताओंके चित्र तथा मूर्तिये बनाना है। प्राचीन मारतवर्षको जितनी मूर्तियां अभी तक मिली है, प्रायः सबकी सब या तो किसी देवता या महापुरुषकी है। या अन्यधर्मसंबंधी घटनाओंके आधार पर बनाई गई हैं । भारतवर्षमें प्राचीन मूर्तिकारीके — इतिहास' का भारंभ बचोक के समयसे हुआ हो, और अन्त मुसलमानोके समयसे हुमा हो, ऐसा संभव तया सिद्ध है। अर्थात् इंसाकी तीसरी शताब्दीसे लगाकर इसके बाद पापी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दीके बाद तकका प्राचीन भारतीय भूर्तिकारी का इतिहास हमें मिलता है। कोई भी मूर्ति, या पत्थरकी कारीगरी जो अभी तक मिली है अशोकके पहिलेको नहीं है । भारतवर्षकी प्राचीन मूर्तियें समयके अनुसार चार भागोंमें बाँटी गई हैं (१) मौर्यकाल ईसाके पूर्व तीसरी शताब्दीसे ईसाके पूर्व पहिलो ताब्दी तक, (२) 'कुघानकाल' ईसाके बाद पहिली शताब्दीसे तीसरी ( ख ), स्वदेशी कुषान मूर्तिकारी ( ३ ) गुप्त काल'-ईसाके बाद तीसरी शताब्दीसे छी शताब्दी तक ( ४ ) 'मध्यकाल'-ईसाके बाद सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक इस परामर्शमें जैनधर्म किसी अंशमें अपना निराला मन्तव्य रखता है, और यह मन्तव्य बुद्धिवादसे और ऐतिहासिक प्रमाणोंसे सत्य मालूम होता है। या तो श्रीमन्महावीरदेवके फैलाये साम्यवादको जबसे एक महात्माने पुनरुज्जीवित किया है, तबसे शत्रुकी मान्यता पर भी घृणा पैदा करनी बुरी मालूम देती है । हाँ मध्यस्थभावसे यथार्थ बत्त्व समजाना अपना कर्तव्य है । तथापि “ युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः " यह नीति सभी के लिये प्रशस्त है, और सत्य कहना यह महा. त्माके सत्य साम्राज्यका भूषण है | यहां एक ही बात कह देनी उचित मालम देती है, कि संसारमें ईश्वरवादी महाशय परमात्माके अवतार मानते ही हैं, तो जब वह अवतार धर्मका उद्धार करके अंतरित हो जाते हैं तब उनके ऋणी जीवात्मा उनकी मूर्तियां क्यों न बनाते होंगे ? बैनसंपदायमें तो मूर्तिका रहना असंख्यवर्षों तक फरमाया है । अर्थात् मूर्ति असंख्यवर्षों तक रह सकती है । इतना ही नहीं बल्कि इसके अनेक दृष्टान्त भी उपस्थित हैं । गुजरातमें पाटणके समीप चारुप ग्राममें पार्श्वनाथस्वामी, की प्रतिमा है, वह असंख्यवर्षोंकी बनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई है । ऐसे ही “ राधनपुर" केपास 'शंखेश्वर ' ग्राममे शंखेश्वरपाचनाथ की मूर्ति है, जो आजसे असंख्य वर्ष पहिलेकी हुई मानी जाती है। श्रवणवलगुलके इतिहाससे पता लगता है कि वहांका राज्य जैनधर्म की चिरकालसे उपासना करता था । जैनधर्मके उपदेशकोका परिचय न रहनेसे वहांके किसी एक राजाने जैनधर्मका त्याग कर अन्यधर्मका पालन करना शुरू कर दिया, और जो जो जिनयों के रक्षणके लिये पूर्वराजाओंकी ओरसे जागीरें भेट की हुई थीं, वह भी उसने जप्त कर ली । दैवयोग वहां भूकम्प हुआ, बहुत से गामोंकी बरी हानी होगई । इससे राजाके मन में शंका उत्पन्न हुई कि मैने चिरपालित 'जैनधर्मको छोड दिया है इसी कारण मेरे राज्यकी दुर्दशा हुई है। वह फिर वीरवचनोंका भक्त होकर जिनधर्मकी उपासना करने लगा, और स्वाधीन की हुई संपत्ति भी जिन चैत्योंको भेट कर दी । इस बातके वि. शेष ज्ञानके लिये “ सनातन जैन पु. दूसरेका अंक तीसरा" देसो । इस से इतना ही आशय लेनेकी आवश्यकता है, कि पूर्वकाल में जैनधर्म राष्ट्रीय धर्म था । राजा तथा प्रजा सभी इसके अनुयायी थे। राजा 'शिवप्रसाद सितारेहिन्द ' ने जैन न हो कर भी अपने निर्माण किये हुये “ भूगोलहस्तामलक" में लिखा है कि दो ढाई हजार वर्ष पहिले दुनिया का अधिक भाग जैनधर्मका उपासक था । जिनचैत्य (जिनमंदिर ). “ रम्यं येन जिनालयं निजमुजोपात्तेन कारापितं, मोक्षार्थ स्वधनेन शुद्धमनसा पुंसा सदाचारिणा । वेधं तेन नरामरेन्द्रमहितं तीर्थेश्वराणां पदम्, प्राप्त जन्मफलं कृतं जिनमतं गोत्रं समुद्योतितं ॥ अर्थ-जिस शुमनवाले सदाचारी भव्यात्माने अपने सपके कमाये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए घनसे आत्मकल्याणके निमित्त जिन मंदिर बनवाया है, उसने संसारमे सारभूत तीर्थंकर पद प्राप्त किया माना जाता है । उसने अपने ज न्मका फल प्राप्त कर लिया, और अपने गोत्रको परम पवित्र करने के साथ जिनशासनको उन्नतिके शिखर पर पहुंचाया । विशेष वर्णन | आचार्य श्री बप्पभ 'अपने रहने बैठने के लिये मकान, माले, आलने, घोंसले, कौवे, चिडिये, शुक, तीतर इत्यादि पक्षि लोग भी बना लेते हैं । मनुष्य तो सर्वोत्कृष्ट शक्ति और ज्ञान संपन्न माना जाता है यदि वह अपने निवासका स्थान बना ले, तो उसमें आश्चर्य ही क्या है ? परन्तु भाग्यवान वही माना जाता है कि जो अपनी शक्तिके अनुसार " जिनचैत्य " निर्माण कराके न्यायोपार्जित लक्ष्मीको सफल करे | ट्टि सूरिजीने गवालियर के आम राजा पर महान उपकार किया था । अतएव राजा पुनः पुनः उनकी भावभक्ति करनेमें तत्पर रहता था, बल्कि बप्पभट्टि सूरिजी की सूरिपद प्रतिष्ठाके समय में भी, भूपति स्वयं उपस्थित हुआ था । और जैनश्रीसंघ में आगेवान बनकर अपने कोष में से एक करोड सोनामोहरा खर्च कर उसने वि. सं. ८११ में आचार्य महाराजका पदमहोत्सव किया था । एक समय सूरीजी महाराजने गवालियर नगरकी तर्फ प्रस्थान किया, और वहां जाकर राजाको उपदेश देना आरंभ किया, उपदेश देते समय सुरिजीने यह कहा कि श्रीरियं पुरुषान् प्रायः कुरुते निजकिंकरान् | कुर्वते किंकरी तां येतैरसौ रत्नसू रसा ॥ १ ॥ अर्थ – विशेषकर लक्ष्मी ने मनुष्यों को अपना किंकर तो बना ही रखा है, लक्ष्मी के मदसे मोहित होकर मनुष्य अपने कर्तव्यों से परान्मुख तो हो ही रहा है । तथापि जिन पुण्यात्माओंने, उसको अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदेशमें चलाया है, अर्थात् जिसने लक्ष्मीको अपनी इच्छानुकूल व्यय किया है, उसीसे यह पृथ्वी रत्नप्रसू कही जाती है ! __ इस उपदेशको सुन कर राजाने साढे तीनकोड सोनामोहरे गलवा कर स्वर्णकी अनेक प्रतिमाये बनवाई और उस विशाल मन्दिर, कि जिसमें वह प्रतिमाये स्थापन की गई थीं, का रंगमंडप बनानेमें २१ लाख सोना मोहरे व्यय की और सवा लाख सौनये खर्च करके उन्होंने मूल मंडप का रिपेर काम कराया। आचार्य महोदयक्रे उपदेशसे राजाने शत्रुजय गिरिनारके मन्दिरोंका जीर्णोद्धार भी कराया(देखो उपदेश तरंगिणी)कलिकालकसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिजीके उपदेश से जिनधर्म प्राप्त करकेचौलुक्य कुलदीपकमहाराजकुमारपालदेवने तारंगाजी और खंभात प्रमुख स्थानोंभे १००० नवीन जिनमंदिर बनवाये थे। अपने पिता त्रिभुवनपालणके नामसे पाटणामें उन्होने “त्रिभुवनपालविहार" नामक (पुर) बहत्तर देव कुलिका सहित विशाल मंदिर बनावाया था।उस परमाहत ने २४सोनेकी २४रजतकी, चौबीस पीतलकी इत्यादि अनेकानेक जिनप्रतिमा बनवाकर उस महा मन्दिर में स्थापन कीथीं १२५ अंगुलप्रमाग अरिष्ठरत्नकीप्रतिमा श्रीनेमिनाथ स्वामीकी बनवाकर मूलनायक पन स्थापन की थी । इस मन्दिरके बनवाने में ६ कोड अशर्फियाँ सर्चकर पुण्याधिक मूपालने जिन शासनकी और अपने पूज्य पिताकी प्रम्त सेवा बजाई थी। उस मन्दिर में उदयन, आम्रदेव, कुबेरदत, अभयकुमार और बाह्डदेव आदि अठारह मुख्य मुख्य धनपति श्रावक गीतगान नृ य अ दे ठाठ पूर्वक नित्यधर्म क्रिया किया करते थे। इस मंदिर को कुमार पालके उत्तराधिकारी अजयपाल ने नष्ट क दिया था, इस मं. दिर की नीवमें से जो पाषाण की विशाल शिला निकली हैं उन्हें हमने अपनी नजरसे देखा है वे सब " गायकवाड " सरकारके स्वाधीन ह परन् उनशिलात अनेक मंदिर तयार, या रिपेर हो सकते थे । उपदेश तरंगीणीमें लिखाहै, कि मम्पतिराजा तीनसंड भरतक्षेत्रका वि. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जय करके सोलह हजार मुकुटबन्धराजाओं को अपनी आणा मना कर उन सर्व भूपतियोंसे परिवृत हो कर उज्जयणीमें आया, तब लोगोंने बड़े आडम्बर पूर्वक उसका प्रवेशोत्सव कराया । सर्व राजा प्रजाको यथोचित प्रीति दान देकर सर्वके उतारों की व्यवस्था कर जब अपनी पूज्य माताको प्रणाम करने गया तब माताने उसके आनेपर किसी भी प्रकारका हर्ष प्रकट न किया । सम्प्रति ने फिरसे नमस्कार कर के पूछा, पूज्य माता आधे भरत क्षेत्र को स्वाधीन करके मैं कई वर्षोंसे तुम्हारे चरणोंमें आया हूँ तथापि तुम्हारे चेहरे पर जैसी चाहिये वैसी खुशी न देख कर मु मेरे किसी अपराधकी आशंका होती है । परन्तु बारम्बार स्मरण करनेपर भी मुझे मेरा कोई दोष याद न आनेसे हृदय बड़ा व्याकुल हो रहा है । अगर अज्ञानता से जो कोई दोष मुझसे हुआ हो तो आप पुत्रवत्सला हो मुझे क्षमा प्रदान करो । माताने गंमीर स्वरसे जवाब दिया, पुत्र आज तूं संसारमें पूरा पुण्यवान है । तेरी भाग्यरेखा प्रतिदिन चढती है, तेरी कीर्ति यह मेरी ही कीर्ति है, परन्तु " नरकान्तममू राज्यम् स्मृतम् "इस वाक्यको मूल कर तेरा मन आरंभमें मशगूल है यह मेरी उदासीका कारण है | अगर तूं दिग्विजय के क्षेत्रोमें प्रतिग्राम प्रति नगर एक २ चैत्य भी बंधाता रहता तोभी तेरा आरंभजन्य पाप अल्प होता रहता, और मुझे तेरा मुख देख कर खुशी भी होती । इस बातको सुनकर राजाने निमित्तियोंको बुलाकर पूछा मेरा आयु कितने वर्षोंका है? निमितियोंने राजाका आयु १०० वर्षका बतलाया । राजाने आज्ञा दी कि. १०० वर्षके ३६००० दिन होते हैं, मेरे आयुके दिनो जितने जिन चैत्य मेरे राज्यमें तैयार होने चाहिये । मंत्रियोंने वैसा ही करना शुरू किया। प्रसिद्ध है कि-कमसे कम एक मन्दिर रोज नवीन तैयार कराके राजा अपनी माताके चरणोंमें बन्दना किया करता था, और नया समाचार दे कर उनके आदेशका पालन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया करता था । लिखा भी है कि " मवन्तिहि महात्मानो गुर्वाज्ञामंगमीरवः " सोलहवीं शताब्दीमें रत्नमण्डणगणिने — उपदेशतरंगिणी ' नामक ग्रंथ बनाया है वह अपने सत्तासमयमें लिखते हैं कि वर्तमान समयमें मी सिन्धुदेशके मरोठपुरमें सम्प्रति राजाकी बनवाई ८५ हमार पीतल की प्रतिमायें मौजूद हैं। तपगच्छनायक श्री धर्मघोषसूरिजी के उपदेशसे पेथडशाह आर उनके लडके झांझण शाहने विक्रम संगत् १३२१ मे " जीरावला" पार्श्वनाथ “ शत्रुजयगिरि " वगैरेहतीर्थोपर ( ८६ )जिनमंदिर बनवा येथे और उन सर्व मंदिरोंके शिखरो पर सोनेके कलस चढाये थे । इतना ही नहीं बल्कि-" दौलताबाद " " ओंकारपुर " वगैरह नगमे अन्यदर्शनानुयायी लोग धर्मद्वेषके कारण मंदिर नहीं बनाने देते थे, पेथडशाह समझते थे कि इन इन स्थानो मे मंदिरो का होना खास लामका कारण है । इस लिये उन्हों ने खुद वहां जाकर उन गाम नगरोके राजाओके मंत्रिलोगोंके नामसे दानशालाएँ जारी करदी, यथेष्ठ खान पान मिलने से देश देशान्तरके याचक लोग मंत्रिलोगोंका यश गाने लगे । मंत्रियोंने सोचा कि हमने तो किसीको कुछ दिया नहीं । यह सब याचक हमारी कीर्ति गा रहे हैं इसमे कोई खास कारण होना चाहिये। दर्याफ्त करने पर मालूम हुमा कि “ मांडवगढ " का राजमान्य पेन्शाह मंत्री यहां आया हुआ है, उसने अपनी सजनताले हमको यशस्वी बना दिया है । इस लिये हमको भी चाहये कि उस सुयोग्यकी योग्यताके अनुसार उसे इच्छित देकर सन्मानित करना, और अपने सिरचढ़े हुए ऋणको उतारना । म्ह सोचकर उन्होने पी प्रतिष्ठापूर्वक पेपशाहको बस्ने पास बुलाया । बहुत कुछ मानसन्नाम देकर कहा “ आप जैसे धर्ममूर्ति-पुन्यात्माओंका हमारे यहां आना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही असीम उपकारका कारण है, तो फिर हमारे नामकी दानशालाएँ खोल कर निष्कारण यश और कीर्तिके भागी बनाकर आप हमको अति ऋणी क्यो बना रहे हैं ? भला हम इस आपके उपकाररूप बोझेको कैसे उतार सकेंगे ? संसारमे उपकारके बदलेमे प्रत्युपकारके करनेवाले तो जगह २ सुलभ हैं परंतु विना ही प्रार्थनाके किये परका हित करनेवाले और उसमे भी कीर्ति अन्यको दिलानेवाले मनुष्य अव्वलतो जगत्मे हैं ही नही, और हैं भी तो कोई आप जैसे विरले ! ! ! धन्य है अपके जन्म और जीवितको! " आत्मार्थ जीवलोकेऽस्मिन्, को न जीवति मानवः ? । " परं परोपकारार्थ, यो जीवति स जीवति ।। १ ।। " परोपकारशून्यस्य, धिग्मनुष्यस्य जीवितम् ।। " जीवंतु पशवो येषां, चर्माप्युपकरिष्यति ।। २ ।। अपनी जीवन वृत्ति के निवाहके लिये जीवमात्र अनेकानेक उपाय कर रहे हैं, कोई सीता है, कोई घडता है, कोई बुनता है, कोई तनता है, कोई खरीदता है, कोई बेचता है, एक दाता है, अन्य ग्राहक है, किसीकी किसीकी वाणिज्यसें, अनेकोंकी जलसे, अनेकोकी इंधनसे, क्षेत्रसे, कईयोंकी वस्तिसे, कईयोंकी वनसे, आजीविका चल रही है | जोहरी जवाहरात के, बजाज बजाजीके, शराफ शराफीके,परीक्षक परीक्षाके, दलाल दलालीके,एवं अदनासे अदना और बडेसे बडा जीवमात्र अपनी अपनी क्रियासे आजी. विका करता है, यह सर्व क्रियाएँ मनुष्य अपनी जीवनचर्याके निर्वाहके लिये करते हैं । संसारमें ऐसा कोईभी जीवात्मा है कि जिसकी प्रवृत्ति अपने जीवननिर्वाह के लिये न हो ? हां यह बात एक और है कि-किसीको असीम संपत्ति होते भी जलन बलन लगी ही रहती है, और कोई स्वल्प लाभसे भी संतुष्ट रहता है । मंमण कोडों, बल्कि अबजों रुपयोके होते हुए भी आर्तरौद्रसे दिन गुजारता था, और पूनिया श्रावक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ प्रतिदिनकी ६ दुकडेकी कमाई में भी संतोष मानता था । परंतु प्राणीमात्र अपने अपने आत्माभिमत स्वार्थके साघन में प्रवीण होते है। ऐसा कोई चार खूंट में शायद ही होगा जो अपने स्वार्थ को मनसे भी मूलकर परकार्यको सादर साधन करता हो । जगतमें शुभजीवन उसी पुन्यात्माका है जो परोपकार के लिये जीता हो || १ | उस मनुष्यका जीवन असार है, असार ही नहीं बल्कि धिक्कारका स्थान है, जिसने अपने अमूल्य समयको व्यर्थ धूलधोकर गुमा दिया है । उस निकम्मे मनुष्यकी अपेक्षा पशुओंका जीवन अच्छा है कि जिनसे दुनियाके असंख्य काम सुधरते हैं । जीना तो बहुत बडी चीज है बल्कि जिस जीते जागते मनुष्यने परोपकार करना नहीं सीखा उसके जीने की अपेक्षा मरे हुए पशु भी अच्छे हैं कि जिनके चामचे भी संसारके अनेक काम बनते हैं । शास्त्रसिद्ध बात है कि " देवताविषयों में मग्न रहते हैं, नरकके नारकियोंको दुक्खोंसे फुरसत नहीं, तिर्येच तो उपकारको समझते ही नहीं । क्योंकि वह अज्ञानी हैं । सिर्फ उपकारका अधिकार है तो मनुष्योंको ही है । फिर सोचना चाहिये कि अधिकारीही अधिकार से पराङमुख रहेगा तो नीचे लिखा हुआ वाक्य क्या झूठा ह अधिकारको पाय कर करे न परउपकार | ताहुके अधिकार में रह्यो न आदि अकार ! ! ! || समकित के ६७ भेद || [ चार सददना ] ,, ( १ ) ' परमार्थ संस्तव ' — जीवादि नव पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान होना । ( २ ) 'परमार्थज्ञातृसेवन' - गीतार्थ साधु मुनिराज की सेवाभक्तिका करना । ( ३ ) ' व्यापन्नदर्शनवर्जन' – निन्हव, यथाछंद आदि वेशबिचकों का परिचय न करना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) 'कुदर्शनवजन'-मिथ्यादृष्टि विपरित श्रद्धावालेका परिचय न करना । [ तीन लिङ्ग] (५) शुश्रूषा-शास्त्रसिद्धान्तके सुननेकी तीव्र इच्छा । (६) धर्मराग-धर्मक्रिया प्रशस्त अनुष्ठान करनेमे अंतरंगप्रीति । (७) वेयावच्च-गुणवान साघु साध्वी श्रावक श्राविका की यथो'चित सेवा । [ १० प्रकारका विनय ] (८) अरिहंत विनय । (९) सिद्धविनय । (१०) चैत्यविनय । (११) श्रुतविनय । (१२) धर्मविनय । (१३) साधुविनय | (१४) आचार्यविनय । (१५) उपाध्यायविनय । (१६) प्रवचनविनय । ( १७ ) दर्शन विनय । [तीन शुद्धि] (१८) मनशुद्धि । ( १९) वचनशुद्धि । (२०) कायाशुद्धि । [पांच दोषोंका वर्जन ] (२१) शंकादोषका वर्जन । ( २२ ) आकांक्षा दोषका वर्जन | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) विचिकित्सादोषका वर्जन । (२४) परतीर्थक (धर्मविरोधी ) की प्रसंसा न करना । ( २५ ) परतीर्थिक का परिचय न करना । [८ प्रभावक ] ( २६ ) समयके अनुसार शास्त्रका पाठी । (२७ ) धर्मकथा कहने में प्रवीण । (२८) वाद विवादमें जयपताका लेनेवाला । (२९) निमित्त ( ज्योतिःशास्त्र ) का पारंगत। ( ३० ) उत्कृष्ट तपस्याका करनेवाला । ( ३१ ) रोहिणी प्रमुख विद्या जिसके सिद्ध हो । (३२) अंजनचूर्णादिके प्रयोगको जाननेवाला । ( ३३ ) कविता के भेदोका जाननेवाला शीवकवि । [पांच भूषण ] ( ३४ ) क्रियाकोशल्य-धर्मकार्यके करनेमें चतुराई । ( ३५ ) तीर्थसेवा-संविग्नपक्षि मनुष्योका सहवास । ( ३६ ) भक्ति-तीर्थंकरदेव और साघुवर्गका आदर | (३७) दृढता-समकिती करनामें स्थिरचित्त । ( ३८ ) प्रमावना-जिन शासनकी शोभाका बढाना । [पांच लक्षण ] ( ३९ ) अपराधी पर भी समभाव रखना । ( ४० ) मोक्षकी सद अभिलाषा रखनी । (४१) संसारसे उदास रहना । (४२) दुखीको देख मनम दया लानी । ( ४३ ) वीतरागके वचनों पर अचल श्रद्धा रखनी ।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ [६ प्रकारकी यातना] अन्य तीर्थ के साधु को उसके माने कंचनकामनी शस्त्रादिक धारक देवके साथ ६ प्रकारका व्यवहार मोक्षके लिये नहीं करना । (४४) वंदना-हाथ जोडने । (४५) नमस्कार-शिर नमाना (४६) दान-अन्नादिका देना। (४७) अनुप्रदान-वारंवार देना | (४८) आलाप-बुलाना | ( ४९ ) संलाप-पुनः पुनः बुलाना । [ ६ आगार] (५०) राजाका आगार | (५१) समुदायका आगार | (५२) बलवानका आगार । ( ५३ ) देवताका आगार | (५४) गुरुनिग्रह । (५५) वृत्तिकान्तार | [ ६ प्रकारकी भावना ] (५६) समकितको चारित्र मूल समझना | (५७) समकितको चारित्ररूप प्रासादका द्वार मानना | (५८) समकितको चरित्रनिधान रखनेका खजाना समझना चाहिये। (५९) समकितको धर्मप्रासादकी नीव समझना चाहिये । (६०) समकित आधार है और चारित्र आधेय है । (६१) समाकत चारित्र रसको रखनेका पात्र है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६ स्थानक] (६२) जीव-आत्मा-चैतन्य है । (६३) और वह नित्य है । (६४) जीव कोका कर्ता है । (६५) जीव कर्मों का भोक्ता है | (६६) निर्वाण-मोक्ष है । (६७) और उसका उपाय भी है । (२) सम्यक्त्व एक प्रकार, दो प्रकार, तीन प्रकार, चार प्रकार, और पांच प्रकार होता हैं । .) वीतराग जिनेश्वर देवके कथन किये तत्त्व पदार्थ पर एक प्रकार । श्रद्धाका होना एक प्रकारका सम्यक्त्व कहा जाता है। सम्यक्त्व. जैसे मार्ग भूला हुआ कोई आदमी विनाही किसीक मार्म दो प्रकार । > बताये फिरता फिरता स्वयमेव मार्गपर आ जाता है और सम्यक्त्व. व. कोई मार्ग ज्ञाताके मार्ग के बतानेसे मार्गपर हो जाता है। इसी प्रकार कितनेक जीवों को स्वाभाविक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, उस सम्यक्त्वको 'नैसर्गिक' सम्यक्त्व कहते है और कितनेक जीवोंको गुरु महाराजके उपदेशसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है उस सम्यक्त्वको 'औपदेशिक' सम्यक्त्व कहते हैं । एवं सम्यक्त्वके दो प्रकार हैं । अथवा 'निश्चय सम्यक्त्व' और 'व्यवहार सम्यक्त्व' की अपेक्षा सम्यक्त्व दो प्रकारका है । आत्मा का वह परिणाम कि जिसके होनेसे ज्ञानादि मय आत्माकी शुद्ध परिणति होती है उसको 'निश्चयसम्यक्त्व' कहते हैं और कुदेव, कुगुरु, कुमार्गको त्याग कर सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का स्वीकार करना उसको 'व्यवहारसम्यक्त्व' कहते हैं । अथवा वीतराग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सम्यक्त्व 'निश्वय सम्यक्त्व' और सरग सम्यक्त्व 'व्यवहार सम्यक्त्व ।' ___ अथवा 'द्रव्यसम्यक्त्व' और 'मावसम्यक्त्व' की अपेक्षा सम्यक्त्व दो प्रकार है । जिनश्वर देवका कहा वचन ही तत्त्व है ऐसी श्राद्धा तो है परंतु परमार्थ नहीं जानता है, एमे प्राणीके सम्यक्त्वको 'द्रव्यसम्यक्त्व' कहते हैं । और परमार्थको जाननेवालेके सम्यक्त्वको 'भावसम्यक्त्व' कहते हैं । अथवा शायोपशामिक सम्यक व पौगालिक होनेसे द्रव्यसम्यक्त्व है और क्षायिक तथा औपशमिक सम्यक्त्व आत्मपरिणाम होनेसे 'भावसम्यक्त्व' है। तीन प्रकार । १ कारक, २ रोचक, और ३ दीपक, ऐसे तीन प्रकार सम्यक्त्वके होते हैं। देववंदन, गुरु वंदन, सम्यक्त्व J सामायिक प्रतिक्रमण आदि जिनोक्त क्रियाओंके करनेसे जो सम्यक्त्व होवे उसको ‘कारक साम्यक्त्व' कहते हैं । इन्हीम रुचि होनेसे रोचक सम्यक्त्व' कहा जाता है । स्वयं मिथ्या दृष्टि होने पर भी दूसरोंको उपदेश आदि द्वारा दीपकवत् प्रकाश करे अर्थात् दूसरे जीवोंको सम्यक्त्वकी प्राप्ति करावे वह 'दीपक सम्यक्त्व' है । ) पूर्वोक्त क्षायोपशमिकादि तीनों सम्यक्त्वके साथ सास्वादचार प्रकरका नको मिलानेसे सम्यक्त्व चार प्रकार का होता है । औपसम्यक्त्व. • शमिक सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वके सन्मुख हुआ जीव जबतक मिथ्यात्वको नहीं प्राप्त करता तबतक के उसके परिणाम. विशेषको सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं। ____ ) पूर्वोक्त चारोके साथ वेदक को मिलानेसे पांच प्रका रका सम्यक्त्व कहा जाता है । क्षायापशामक सम्यम्याप | क्त्वमें वर्तमान जीव जब प्रायः सातों प्रकृतियोंको क्षय करके सम्यक्त्व मोहनीय के अंतिम पुद्गलके रसका अनुभव करता कारका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ है उस समय के उस के परिणाम को वेदक सम्यक्त्व कहते हैं । वेदक सम्यक्त्वके बाद उसे क्षायिक सम्यक्त्व ही प्राप्त होता है | वेदक सम्यक्त्वका क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें अंतर्भाव होता है ।। उत्तराध्ययन सूत्रके २८ वें अध्ययनमें-१ निसर्ग रुचि, २ उपदेश रुचि, ३ आज्ञारुचि, ४ सूत्ररुचि, ५ बीजरुचि, ६ अभिगमरुचि, ७ विस्ताररुचि, ८ कियारुचि, ९ संक्षेपरुचि और १० धर्मरुचि के नामसे सम्यक्त्वके दश भेद भी बताये है। प्राप्ति करावे उसको दीपकसम्यक्त्व क जो दूसरोंको सम्यक्त्व हते *. यह दीपक सम्यक्त्व अभव्य जीव साधुपनेमें होता है । उसवक्त उसमें माना जाता है । अथवा १ क्षायोपशमिक, २ औपशमिक और ३ क्षाथिक की अपेक्षा तीन प्रकारका सम्यक्त्व माना जाता है । ___ अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ, तथा सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय इन सातो कर्म प्रकृतिक क्षयोपशमसे जीवको जो तत्त्वरुचि उत्पन्न होवे उसको क्षायोपशमिक सम्यस्त्व कहते हैं । इन्ही सातोंके उपशम होनेसे आत्मामें जो परिणाम होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । इन्ही सातोंके क्षय होनेसे आत्मामें जो परिणाम विशेष होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । ॥ज्ञानभक्ति । पठ पठति यतस्वाऽन्नादिना लेखय स्वैः, स्मर वितर च साधौ ज्ञानमेतद्धि तत्त्वम् । श्रुतलवमपि पुत्रे पश्य शय्यंभवोऽदा ज्जगति हि न सुधायाः पानतः पेयमन्यत् ।। १ ।। ( अर्थ ) हे मव्यात्माओं ! ज्ञानका अभ्यास करो | और पढने पढाने वालोंको अन्नादिसे सहायता दो । न्यायोपार्जित द्रव्यसे ज्ञानके पुस्तक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखाओ, याद करो; साधु; साध्वी; श्रावक,-श्राविका; को ज्ञान दान दो। ___ यह ही तत्त्व है। देखो शय्यमव सूरिजीने अपने पुत्रको स्वल्पमात्र मी ज्ञान देकर निस्तारित किया ! संसारमें अमृतसे बढकर और कोई अधिक वस्तु है ? । १ ।। [वि. वि.] -एकठा किया हुआ धन साथ जानेवाला नहीं है । उसके पैदा करनेमें, रक्षण करने में, खर्चने में, अनेक कष्ट सहन पडते हैं। धनके नष्ट होजाने में जो आर्तध्यान और रौद्रध्यान होता है उससे जीव दुर्गतिमें चला जाता है। ____ ऐसी हुशामें मनुष्यको चाहिये कि अनेकानेक कष्टोसे कमाए हुए पैसेको शुभमार्गमे व्यय करे । व्यय करनेके मार्गों से सातमार्ग मुख्य हैंजिनबिम्ब १ जिन-चैत्य २ ज्ञानोद्धार ३ साधु ४ साध्वी ५ श्रावक ६ श्राविकाप जिनचैत्य--जिनबिम्बका वर्णन पहलेकर दिया गया है । ज्ञानोद्धारके संबंधमें जानना चाहिये कि-लिखना लिखाना रक्षण, पालन करना अनेकानेक देशोंमें फैलाना; लाईब्रेरी करनी; शिक्षाका प्रचार करना। साधु साध्वी श्रावक श्राविका-और भाविक मार्गानुसारी जनोंको ज्ञानके तमाम साधन देने, दिलाने; शासन की शोभाके लिये दार्शनिक ग्रंथोंका प्रचार करना । उपदेशक तयार करके अन्यान्य देशो में उन्हें भेजकर धर्मका फैलाव करना, यह सब ज्ञानभाक्त कही जाती है । सर्व प्रयत्नसे सर्वज्ञाभषित ज्ञानका सर्वत्र प्रसार करके उसको सर्वोत्तम स्थान दिलाना यह उत्तमोत्तम ज्ञानसेवा-ज्ञान महिमा-ज्ञान-पूजा कही जानी है। विक्रम की बारहवीं स सोलहवीं सदीतक साधुओं में पठन पाठन का प्रचार अल्प हो गया था, परंतु उसवक्त भी आचार्योने कायदा कायम कर रखा था कि-साधु प्रतिदिन १०० श्लोक लिखे तो ही उसको विगय और शाक देना अन्यथा नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसागर सूरिजीके मुखसे मांडवगढ के रहनेवाले सुश्रावक संयाम सिंह सोनी ने बडी श्रद्धा भाक्तसे श्री 'मगवती सुत्र' सुना। उस शासनप्रेमी वीरवचनोंके अनुरागीने जहां जहां ' गोयमा ! ' पद आता था वहां वहां एक एक अशर्फि रखकर २६ हजार अशर्फियां खर्चकर संपूर्ण भगवती सूत्र की आराधना की । संग्रामसिंह जब जहां एक सोनामोहर रखता था उस वक्त उसकी माता आधी अशर्फि और उनकी पत्नी एक अशर्फि का चतुर्थ खंड रखती थी | इस प्रकार श्री भगवती सूत्र के सुनने में उन्होंने ६३००० सोनामोहरें चढाई उसमें ३७०००हजार मोहरें और मिलाकर उस संपूर्ण १ लाख द्रव्यसे 'कल्पसूत्र' 'कालिकाचार्य कथा' नामक ग्रंथ सोनहरी अक्षरोसे लिखाकर भंडारोंमे रखाए। यह घटना वि. सं १४५१ में हुई थी । कुमारपाल राजाके स्वर्गवासके बाद जब अजयपालने उत्प्लव मचाया; तब कुमारपालके बनवाये कार्योंका ध्वंस देखकर आम्र भट्ट ने प्राचीन और नवीन जैन ग्रंथोको १०० ऊटोंपर लादकर जयसलमेर पहुंचाया। सुना गया है कि बल्ल मी नगरी के भंगके समय ३८०००० श्रावक कुटुंब और कितनेक धर्माचार्य शास्त्र और जिन-प्रतिमाओंको लेकर मारवाड तर्फ चल निकले। उन्होंने मारवाड मे आकर जोधपुर के जिलेमे जो ' बाली ' गाम कहा जाता है उसको आबाद किया, और अपने प्राणोसे भी प्रिय मानकर शास्त्र और भगवत्पतिमाओंकी रक्षा करत रहे | कुमारपाल राजान कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्रसूरिजी के बनाए हुए (१) अनेकार्थ संग्रह (२) अनेकार्थ कोष ( ३ ) अमिधानचिन्तामणि (४) अभिधानचिन्तामणि परिशिष्ट ( ५ ) अलंकार चूडामणि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ( ६ ) उणादि सूत्र वृत्ति (७) उणादि सूत्र विवरण (८) छन्दोऽनुशासन और वृत्ति देशीनाम माला (९) धातु पाठ और उसकी वृत्ति ( १० ) धातुपारायण और उसकी वृत्ति (११) धातुमाला (१२ ) निघंटुशेष ( १३ ) बलाबल सूत्र वृत्ति (१४) हेमविभ्रम (१५ ) सिद्ध हेम शद्बानुशासन (बृहद्वृत्ति और लघुवृत्ति ) (१६) शेष संग्रह नाम माला [१७] शेष संग्रह सारोद्धार [ १८ ] लिङ्गानुशासन सटीक [१९] लिङ्गानुशासन विवरण [२०] त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र [ २१ ] परिशिष्ट पर्व [२ ] हेमन्यायार्थ मंजूषा [२३] संस्कृत द्वाश्रय [२४] प्राकृत द्वाश्रय [२५] हेमवादानुशासन [२६] महावीर द्वात्रिंशिका [ २७ ] वीर द्वात्रिंशिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] वीतरागस्तोत्र [२९] पांडवचरित्र इत्यादि अनेक ग्रंथोंकी अनेक प्रती लिखाकर रानाने भारतवर्षके अनेकानेक गाम नगरोंके ज्ञानमंडारोंमे रखवाई थी । इसके अतिरिक (११) अंग (१२) उपांग (१०) प्रकीर्णक, (६) छेद, (४) मूल, नंदि, अनुयोगद्वार, इन ( ४५) ही आममों की एक एक प्रति सोनहरी अक्षरोमें, और अनेक प्रतें स्याहीसे लिं खाके मुपतिने खंभात, धोलका, करणावती, चंद्रावती, डूंगरपुर वीजापूर, प्रल्हादनपुर, राधनपूर, पादलिप्तपुर ( पालीताणा ) बीर्णदूर्ग, ( जुनामढ) मांडवगढ, चित्तोडगढ, जयसलमेर, बाहडमेर, दर्भावती, वडोदरा, आकोला, उज्जैण, मथुरा, प्रमुख उत्तम उपयोगी स्थानेमें रखवादी थी । ___ इसके आलावा-कर्णदेव, सिद्धराज, भीमदेव, वीसलदेव, सारंगदेव, वीरधवल सेमसिंह अदिराजाओंने मी जैन ज्ञानभंडारोंकी वृद्धिमें पुष्कळ मदद दी है। और मंत्री उदयन, बाहढ, अंबड, वस्तुपाल, तेजपाल, काशाह, समरासाह, छाडाशाह, मोहनसिंह, साजनसिंह आदि अनेक राजमान्य मंत्रियोंने तो अपनी संपत्तिका प्रायः उपयोग ज्ञान और जिनचैत्योंके अंदर ही किया है । परंतु बडे दुःखकी वात है कि देश और समाजके दुर्दैवसे कुमारपाल आदि के पुस्तक सैंकडो वर्ष पहले ही नष्ट हो चुके हैं। इसका कारण प्रायः प्रसिद्ध ही है कि जो लोग अपने प्राणोंको हाथकी हयेलीमें लेकर सैंकडों वर्षोतक इधरसे उधर और उधरसे इभ मारे मारे फिरे हैं वह इन पुस्तकालयोंको सर्वथा कैसे बचा सकते थे। कुमारपालके लिखाये पुस्तकोंका नाम तो उसके उत्तराधिकारी - बयपालने ही कर दिया था. ईस्वीसन ११७४-७६ में गुबरातके मकयदेव नामक एक शैवराजाने राज्यपर आतेही बढी निर्दयतासे जैनोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ वध कराया, और उनके गुरुओंकों भी मरवा डाला ऐसी दशामे वह उनके पुस्तकोंको जिन पर उस धर्मका आधार था कैसे छोड सकता वा | विन्सेंट ए. एम. ए. का भारतका प्राचीन इतिहास ॥ ] कुमारपालके बाद बहुत ग्रंथों का संग्रह वस्तुपाल तेजपालने कराया था. सो उसका नाश अलाउद्दीनके अत्याचारोंसे हो गया । परमश्रद्धालु जैन लोगोंने जो बचा लिये सो आज भी पाटण, खंभात, लींबडी, जयमलमेर, अमदाबाद आदि शहरों मे हयात है । [ सन १९१६ जनवरीकी सरस्वतीमें 'पाटणके जैन पुस्तकभंडार' इस नामके लेखसे, और अन्यान्य प्रबंधोंसे मालुम होता है कि कुमारपालने २१ बडे बडे ज्ञानभंडार करवाये थे, कुमारपालके किये कराये सर्व शुभकार्योंके ज्ञान के लिये मेरा लिखा " हिन्दी कुमारपाल चरित " देखिये | ] संघभक्ति. लोकेभ्यो नृपतिस्ततोपि हि वरश्चक्री ततो वासवः, सर्वेभ्योऽपि जिनेश्वरः समधिको विश्वत्रयीनायकः । सोऽपि ज्ञानमहोदधिः प्रतिदिनं संबं नमस्यत्यहो, वैरस्वामिवदुन्नतिं नयति तं यः सः प्रशस्यः क्षितौ ॥ १ ।। मर्थ—साधारण तौर पर देखा जाय तो चारही वर्णकी प्रजासे राजा श्रेष्ठ गिना जाता है. राजासे भी सार्वभौम राजा ( चक्रवती ) बडा है. क्योंकि ( ३२ ) हजार मंडलीक राजा उसकी सत्तामें है । राजा एक देशका स्वामी है, और चक्रवर्ति नरेश ( ३२ ) हजार देशोंका मालिक है। चक्रवर्तिसे इन्द्रमहाराज बडे है इस बातमे किसी प्रमाणकी आवश्यकता नहीं यह बात सर्व संप्रदाय प्रसिद्ध है ! ___ और इन सबसे देवाधिदेव तीर्थकर देव श्रेष्ठ है । तो भी आश्चर्यकी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात है कि ज्ञानके सागर जिनेश्वर परमात्मा भी श्रीसंघको नमस्कार करते हैं । ऐसे श्रीसंघको आपत्तिग्रस्त जानकर देखकर जो जीव श्रीवास्वामी की तरह सहायता देता है, वह सदाकाल धन्यवादका पात्र है। श्री स्थुलभद्र स्वामी का श्रीयक नामक छोटा भाई था, और यक्षा आदिक ७ बहिने थीं। उन सर्व भाई बहिनोनें स्थूलीभद्र स्वामी के पीछे दीक्षा ली हुई थी। श्रीयक साधू तप करन मे कायर था | संवच्छरीके दिन बडी बहिन की प्रेरणाते उसने उपवास कर लिया था । दैव योग उसी दिन उसका मृत्यु हो गया । यक्षा को बडा पश्चात्ताप हुआ । उसने निश्चय किया कि मेरे कहने से साधु महाराज ने, शाक्तेके न होनेपर मी तपस्या की इसलिये उसके प्राण गये तो ऐसे अनर्थ का पाप माथे आनेपर भी मै कैसे जी सकती हूं? अब मै भी अनशन करूगी | श्री संवने उसको हरतरहसे रोका परंतु उसने अपना सिद्धान्त अटल रखा । आखीर श्री संघने शासन देवीका आराधन किया; शासन देवीने श्रीसंवके आदेशसे उस साध्वी को भगवान् श्रासीमंधर स्वामीके समवसरण में पहुंचाया । भगवद्देवने अपने श्री मुखसे फरमाया कि हे यक्षा ! तेरा अध्यवसाय साधु को तपस्या कराने का था, उसके मारणे का नहीं । वास्ते तूं निदोष है । इस बातको सुनकर साध्वीने बडा हर्ष मनाया और श्री संवके किये काउसगके प्रभावसे शासन देवीने साध्वीको सही सलामत भरत क्षेत्रमें लाके रख दिया ! महापाण ध्यानके करते समय स्थूलि मद्र वगैरह साधुओं की वांचना के लिये जब श्रीसंघने भद्रबाहुसूरिको बुलाया, तब उन्होनें सिर्फ इतनाही जवाब दिया केि, श्रीसंघका फरमान शिरोधार्य है, श्रीसंघकी आज्ञा मुझे मान्य है, मैं जो कुछ कर रहा हु सो श्रीसंवकी सेवाके लियेही कर रहा हूं, इतन पर भी अगर श्रीसंघ हुकम करे तो मैं इस कार्य को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ छोड कर वहां भी आने को तयार हुं । और यदि भगवान् श्री संघ साधुओको यहां भेजे तो मै साधुओंको वाचना भी दूं. और मेरा आरंभ किया हुआ कार्य जो कि अब समाप्त होने आया है उसको भी पार पहुंचाऊं । इस मेरी प्रार्थना पर ध्यान देके पूज्य श्रीसंघ जैसा आदेश करेगा मै करनेको हरतरहसे तयार हूं । सोचना चाहिये कि चौद पूर्व धर भी श्रीसंघका कितना मान रखते हैं । इसके अलावा विष्णु कुमार मुनिको जब मेरु चूलापर समाचार मिला कि तुमको श्रीसंघ बुलाता है तो मर चौमासे में अपने ध्यान कार्य को छोड कर भरत क्षेत्र मे आये ! संघ यह समुदाय का वाचक शब्द है, इस जैन पारिभाषिक शब्द से-साधु (१) साध्वी (२) श्रावक (३) श्राविका (४) रूप चातुर वणं श्रीसंघका ग्रहण होता है । ___साधु साध्वी- साधु ' यह शब्द ही मनोरंजक है, अमरसिंहने जहां अच्छे शुभ सूचक शब्दों का संग्रह किया है वहां लिखा है " सुन्दरं-चिरं-चारु-सुषमं साधु-शोभनम् " ___ शब्दशास्त्र-प्रणेताओने साघु शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि " साधयति स्वपरकार्याणि इति साधु: ! " संसार व्यवहारमें भी इज्जत आबस्के साथ बणज करनेवालेको “साहुकार"कहते हैं । यह शब्द मागधी माषाका है और संस्कृतसे बना हुआ है | मूल संस्कृत शब्द है “साघुकार" अच्छे कामोंका करनेवाला. जब कि साघु शब्द ही उत्तम है तो उसका अर्थ क्यों कनिष्ठ हो सकता है ? जिनप्रवचनमे साधु को संयमी कहकर बुलाया है । संयमीका अर्थ होता है संयमके धारक-संयमवान्, वह संयम १७ प्रकारका होता है । जैसे कि पांच आश्रवोंका त्याग, पांच इन्द्रियोंका निग्रह, चार कषायोंका त्याग, तीन दंडका विरति, इन (१७) वस्तु ऑको संयम कहते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् विवरण-हिंसा ( १ ) झूट (२) चोरी ( ३ ) अब्रह्म(४) परिग्रह ( ५ ) यह पांच आश्रव कहे जाते हैं। स्पर्शन ( १ ) रसन ( २ ) घाण (३) चक्षु ( ४ ) और श्रोत्र (५ ) ये पांच इंद्रिये कहाँ जाती हैं । इनके विषयोंसे बचना यह मी संयम है। क्रोध ( १ ) मान (२) माया ( ३ ) लोम ( ४ ) इस चौकडीको कषाय चतुष्क कहते हैं । इन चार ही कषायोंका त्याग करना यह भी संयम है । मनसे, वचनसे, कायावे, स्वपरका बुरा चिंतन करना उसको दंड कहते हैं । इन तीन ही दंडोंका त्याग सो भी संयम है। पांच आश्रवोंका त्याम (५) पांच इंद्रियोंका निग्रह ( १० ) चार कषायोंका त्याग (१४) तीन दंडकी विरति रूप ( १७ ) जो धर्म साधुका है, वह ही साध्वीका है। साधु साध्वी की भक्ति ( १ ) उनका बहुमान ( २ ) उनकी श्लाघा(३) उनके उड्डाहका गोपन (४) यह चार प्रकारका विनय कहा जाता है । विशुद्ध हृदयसे की हुई मुनिसेवासे धनसार्थवाहके मवमे और जीवानन्दके भवमें श्री ऋषभदेव स्वामीने और नयसारके भवमे की हुई सेवासे श्री महावीर स्वामीके जीवने नयसार के भवमें जो तीर्थकर पदरूप कल्पवृक्षका बीज उपार्जन किया था, उसमें कारण मुनि सेवाही था । __ ऐसे मुनिमहात्माओको भोजन, वस्त्र, स्थान, काष्ठासन, औषभ. भेषज पुस्तक, वंदना, नमस्कार आदि देनेसे दिलानेसे जीव अनंत पुन्य प्राप्त करता है। बाहु और सुबाहुके सव मे मुनियों की सेवा करके भरत और बाहुबलीके मवमें जो उत्तम फल श्री ऋषमदेव स्वामीके पुत्रोको प्राप्त हुआ है वह प्रायः समस्त बैन जातिसे परिचित है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षका समय है कि जिन शासनसे चारित्र पात्र मुनियोंका आज स्वतंत्रवाद के समयमें भी मान है। परंतु साथमें इतना अफसोस भी है कि “ साहूण सड्डो राया " इस शास्त्रवाक्य को भुलाकर, श्री ठाणाङ्ग सूत्रमें कहे हुए “ अम्मा पियसमाणे" इस मुख्य अधिकार वाक्यको भी याद न ला कर, जो जो व्यक्तिये श्रमणोपासक कहलाती हुई भी एक दूसरे साधु के पक्षमे पडकर अपने और अपने म ने उन श्लाघाप्रिय मुनियों के ज्ञान दर्शन चारित्रमें वृद्धि के बदले हानि पहुंचात हैं उन गुरुभक्तोको चाहिये कि-" मेरा तेरा " इस भावनाको न रखते हुए सिर्फ गुणग्राहक ही बने रहें । शासनमे एक दूसरे का मतभेद होना स्वाभाविक है, परंतु उस बातका निर्णय करने के बदले पक्षापक्षी के जोशमे आकर शासनमूल विनय गुण को भूल जाना, एक दूसरे के साथ असभ्य अश्लील शब्दोसे पेश आना, यह तो किसी मी तरहसे शासनकी रीति नीति नहीं कही जा सकती । जिस जिन शासन को लगभग आधा संसार मान देता था, जिस के संचालक वीतरागदेव हैं, उस संप्रदायकी स्थिति आज अति शोचनीय हो रही है । बिचारे मिथ्या दृष्टि कहलाते वैरागी लोग तो १०-२० एकठे एक जगह बैठकर बोलेंगे-चालेंगे, खायेंगे-पीवेंगे; धर्म चर्चा करेंगे. परंतु आज एक पिता के पुत्र कहलाते हुए जैन क्षमाश्रमण एक मयानमे दो तलवारो के समान एक उपाश्रय मे न रह सकें, एक मडलीमें आहार व्यवहार न कर सकें, एक दूसरे को रास्ते जाते नमस्कार न कर सकें, खेदका समय है हिन्दु के पास मुसलमान आवे या रस्ते जाता मिले तो वह भी उसको घर आनेपर पानी पिलाता है, रास्ते जाता “ साहिब सलामत " कह कहकर शिष्टाचार करता है, मगर हमारे जैन साधुओंका उतना शिष्टाचार भी नहीं | इससे बढकर शोक और क्या होगा ? ऐसा दशामे माता पिताकी उपमाको धारण करनेवाले श्रावको को फिर भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ याद दिलाना उचित समझा जाता है कि वह शासन प्रेमी शासनालंकार आनंद कामदेव के पद पर बैठे हुए श्रेणिक, संप्रति, कुमारपाल के स्थानापन्न सदा शासन रक्षक महानुभाव श्रावको को उचित है, उनका फरज है कि बढ़ते हुए कुसंपको — फैलते हुए आपा पंथको रोकनेका प्रयत्न करें । सुना जाता है कि " श्रीधर्मघोष सूरि " जीके समयमे १८. श्रावकों को अधिकार था, कि वीर शासन के साधु साध्वी श्रावक श्राविका जहां हो वहां सब जगह उन (१८ ) श्रावको की सत्ता चले, जिस किसी का जो कोई धर्मवाद होय उसकी फिर्याद उनके पास आवे, उनका इन्साफ वह करें | उनके दिये इन्साफ को― उनके किये फैसले को कोई अन्यथा न कर सके । है शासन पति ! हे हितवत्सल ! हे करुणानिधि ! वीर प्रभो ! जो शान्तिका साम्राज्य आपने फैलाया था वह आज नामशेष - कथाशेषही रहगया है उसे फिरसे उज्जीवित करो। आप श्रीजीके भक्तोंके हृदय मंदिरों में से जो शमसुहृद् रूठा चला जा रहा है उसको फिरसे पीछे लौटाकर आ श्रितों को उपकृत करो । दीनोद्धार धुरंधर ! आपके लगाए नंदनवनको उज्जडते देखके आपके ठहराये रक्षकरूप शासन देव क्यों उपेक्षा कर रहे हैं ? । हमे बडे हर्ष के साथ कहना पडता है कि प्रभुका मार्ग तो विनय विवेक से संपन्न है, उसमे तो गुणी के गुणकी पहचान है, गुणवानका कदर है | नीचे के एक दृष्टान्त से आप इस विषयको खूब तौरपर समझ सकेंगे । सावत्थी नगरी के नजदीक के किसी स्थानका रहनेवाला 'स्कंदक" नामा तापस मनकी शंकाओं का समाधान करने के लिये श्रमण मगवान् महावीर के पास आया, प्रभु श्री महावीरदेव अपने शिष्य गौतम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को कहते हैं " गौतम आज तुझे तेरा पूर्व परिचित संबंधी मिलेगा; गौतमने पूछा प्रभु ! वह कौन ? भगवान् कहते हैं 'स्कंदक तापस प्रश्नार्थ पूछनेको आ रहा है, अभी थोडी देरमे यहां आ पहुंचेगा ?" गौतम स्वामी प्रभुसे पूछकर उसका सत्कार करने के लिये सामने जाते हैं । स्कंदक को बडे प्रेमसे मिलते हैं, आदरपूर्वक उसको प्रभुके पास लाते हैं; स्कंदक प्रभुके पास आकर अपनी शंकाओंको पूछता है | वहां साफ लिखा है कि “ स्कंदक को पास आए जानकर गौतम स्वामी फौरन अपने आसन को छोडकर खडे हुए, स्कंदक के सामने गए, और बडे आनंदसे उसका स्वागत करते है " [ भगवती मूत्र शतक दूसरा, उद्देशा पहला.] चार ज्ञानके धारक १४००० साधुओं के स्वामी गौतम गणधर एक तापस को आता देख उसके सामने जावे, उसका आदर सत्कार करें, स्नेहिले शब्दोमे उसको स्वागत पूछे यह शब्द क्या कहते हैं ? । इस प्रकरणसें यह एक उत्तम शिक्षा मिलती है कि “ मनुष्यमात्रसे भ्रातृभावरखो उनको ज्यों बने त्यों धर्मके अभिमुख करो परंतु पराङमुख न करो, " तूतू " करने से पशुजाति कुत्ता भी पूंछडी हिलाता हिलाता आके पा ओमें गिरता है परंतु “ दुरे दुरे" करने से दूर चला जाता है, तो मनुष्य अपमानको कैसे सहन कर सकता है ? इस लिये जीव मात्रसे उस में भी विशेष कर समानधोंसे सहानुभूति ही रखना चाहिये । श्रावक-श्राविका जैन संप्रदायके अनेक शास्त्रों में " श्रावक " शद्वकी यह ही व्याख्याकी है कि-जो जीवादि नव तत्वोंका, जामनेवाला हो न्यायापार्जित धनको सात क्षेत्रोंमे खर्चनेवाला हो, कर्मदलिकों को आत्मासे जुदा करनेवाला हो, उसको 'श्रावक ' कहते हैं । इसी ग्रंथके किसी एक प्रकरण में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवक के पांच नियमोंका वर्णन हो चुका है। उसके उत्तरभूत ३ मनुव्रत, और ४ शिक्षाव्रत मिलानेसे १२ व्रत होते हैं, जो श्रावक धर्मका सर्वस्व है । इन बारां व्रतोका सविस्तर स्वरूप उपदेश प्रासाद, जैनतत्वादर्श, गुणस्थानकमारोह हिन्दो, श्रावक-कल्पद्रुम, आदि ग्रंथोसे जाना जा सकता है । अब यहां एक बात और भी ध्यानमें रखने जैसी है कि-सुपात्र पोषणका संसारमें बडा प्रभाव वर्णित है। साधु साध्वीको उत्तम पात्र गिना है तो श्रावकको मी मध्यम पात्र तो गिना ही है। ॥ श्रावको २१ गुण ॥ १ गंभीर होवे, परंतु क्षुद्र न होवे । २ सर्व अंग संपूर्ण होवे । ३ शान्त प्रकृतिवाला होवे । ४ लोकप्रिय होवे । ५ सरलपरिणामी होवे । क्लेशी न होवे । ६ इसलोक पर लोकके भयसे डरनेवाला होवे | ७ अशठ होवे, परको ठगनेवाला न होवे । ८ दाक्षिण्यवाला होवे, परकी प्रार्थनाका भंग न करे । ९ लजावंत होवे, निर्लज्ज न होवे । १० दयालु होवे दीन दुखीपर दया करे । ११ मध्यस्थ भाववाला होय, पक्षपाती न होय | • २ गुणी जीवपर राग करनेवाला होय । १३ सत्यधर्म कथाका कहनेवाला होय । १४ सुशील-धी परिवारवाला हो । १५ दीर्घदशी लंबा विचार करनेवाला होवे | १६ पक्षपातरहित होवे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ वृद्धपुरुषोंकी सेवा करनेवाला होवे । १८ गुणी जीवका विनय करे, अविनीत न होवे । १९ किये हुए उपकारको याद रखे, भूला न देवे । २० निलो(पणे, इच्छारहित, परोपकार करे । २१ लब्धलक्ष्य व्यवहार कुशल होव ।। एक बात और यहां विचारने लायक है कि-साधु महापुरुष तो अपने मन वचन काया से संसारका उपकार करते हैं, परंतु संसारी जीव आरंभ परिग्रह में आसक्त है। इसलिये उससे वह कार्य बनना अशक्य है जो साधु कर सकता है । बाकी संसारी जीवसे मी अपने समानधर्मीका उपकार तो बन सकता है । संसारमें प्रसिद्ध है कि सरवर तरवर संतजन, चौथा वरसे मेह । परमारथके कारणे, चारो धरे सनेह ॥ १ ।। सरोवर जलाशय, जगत का कितना उपकार करते हैं, वह संसार जानता ही है | तरवर-वृक्ष, यह भी प्रत्यक्ष रूपसे जगत के उपकारी हैं। नर्मदा नदी के किनारे पर-" कबीरवड " नामक एक वड है जो बडा विशाल, सघन छायाशाली है । सुना गया है कि वहां वर्ष वर्ष के बाद एकमेला होता है उसमे सिर्फ उस वडके आश्रय (२०००) छ हजार मनुष्य बड़े आरामसे ठहर सकते हैं । बुद्धिवानोंको विचारनेका विषय है कि-जब एक वृक्ष जिसको संसारमे जड स्थिर स्थावर एकेन्द्री जैसे शब्दोंसे बुलाया जाता है वह छ–छ हजार मनुष्योको साता पहुंचा सकता है तो वह मनुष्य कैसा जो अपने आश्रित एक दो मनुष्योंको भी सुख नदे ! । संतजन-साधुपुरुष-और मेघ-वरसाद यह विश्वके आधारही हैं इस बात मे हेतु दृष्टान्त देना सूर्यको दीपक दिखाना है । इससे हमारा कथन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ यह ही है कि गृहस्थ के पास लक्ष्मी ऐसी वस्तु है कि इससे वह बडा लाभ उठा सकता है । ( १ ) वस्तुपाल तेजपाल को आज समाज क्यों याद करता है ? उनकी जीवनचर्याका वर्णन करते हुए पूर्व मुनियोंने लिखा है किजैनागार सहस्रपंचकमतिस्फारं सपादाधिकम्, लक्षं श्रीजिनमूर्तयस्तु विहिताः प्रोत्तुंगमाहेश्वराः । प्रासादाः पृथिवीतले ध्वजयुताः सार्धं सहस्रद्वयं, प्राकाराः परिकल्पिता निजधनैर्द्वात्रिंशदत्र ध्रुवम् ॥ १ ॥ वस्तुपाल तेजपालने सवापांच हजार जिन चैत्य बनवाये, एक लाख जिन प्रतिमाएँ बनवाई, ढाई हजार शिवालय करवाये, और ३२ दुर्भेद्य कोट बनवाये | इसके अलावा ५०० दान शालाये उनकी तर्फसे हमेशह चलती थी । ६४ बावडिये उन्होने ऐसी विशाल तयार कराई थी कि जहां का शीतल स्वादु जल हमेशां हजारों मनुष्यों के तापको दूर करता था | पौषध शालायें, मठ, मंदिर, हजारों बनवाये कि जिनमें तापस लोग सुखसे निवास करते थे | ज्यादा गौर इस बात पर करने का है कि वह वर्ष में ३ दफा स्ववमीं वछल किया करते थे, जिन में लाखों क्रोढो जैन धर्मियों के दुःख दरिद्र दूर किये जाते थे | पांच सौ पाठ शालाएं, फक्त पाठशालाही नहीं परंतु उनको शास्त्र कारोने विद्यापीठ के नामते अंकित किया है; विद्यापीठ एक मुख्य विद्यालय का नाम है कि जिसके सैंकडो नहीं बल्कि हजारों शाखा एं है । ( २ ) दौलताबाद के रहनेवाले " जगसिंह " शाहुकार को अपने साधर्मी लोगों पर बडा प्रेम था । वह खुद्द क्रोड पति धनाव्य था । उसने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ३६० समान धर्मि मनुष्यों को व्यापार में लगाकर अपने समान कोटि ध्वज बनाया था ! ! ! वाहरे जगसिंह तेरे होने को धन्य है । तेरे जन्म और जीवितको पुनः पुनः धन्य है ! धन्य है तेरे माता पिता को । ( ३ ) पाटण मे कुमारपाल के समयमे आभड शाह नामक प्रसिद्ध शाहुकार रहता था उसने एक क्रोड आठ लाख रुपया खर्च कर जिन शासन की शोभा मे वृद्धिकी थी | उसने उसमोटी रकमका अधिकांश सीदाते समान धर्मियों के उपकार में ही व्यय किया था । उस वक्त अभयकुमार जैसे और भी अनेक ऐसे धर्मा मनुष्य पाटण मे बसते थे । (४) मांढवगढ मे जब जैन लोगोकी मरपूर वस्ति थी उस वक्त वहां एक ऐसा रिवाज था कि जो कोई समान धर्मी गरीब हालत मे वहां आता उसे प्रतिघर से एक एक अशर्फि और एक एक लकडी घर बनाने के लिये दी जाती । इस से वह एकही दिनमे दरिद्र को तिलांजली दे कर लक्षाधिपति शाहुकार बन जाता था । विक्रम संवत् १२८३ मे नागपुर से श्री सिद्धाचलजीका संघ आया था । वस्तुपाल तेजपालने उनको बड़े आदर से अपने नगर मे बुलाया और भोजनन्दि से उनके सर्व संघ लोगो की भक्तिसेवा की । इतनाही नहि बल्कि उन सर्व मनुष्यों को उंचे आसन पर बैठाकर मंत्रीराजने अपने हाथ से सब के पैर धोये | "" वस्तुपाल: वस्तुपालः स स्तुत्यः सर्व साधुषु यह वाक्य सर्वथा सत्य है - सर्वथा यथार्थ है, इस मे अंश मात्र भी अनृत नहीं । " अब सोचना चाहिये कि हमारे नैत्यक आर नैमित्तिक सर्व कार्यों मे हमको यह ही शिक्षा दी जाती है कि " महाजनो येन गतः स पंथा " इस सोनहरी. वाक्य को पुन: पुन: जिह्वा से उच्चारते हुए भी — वारंवार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोनों से सुनते हुए भी अगर उसपर कुछ मी ख्याल न दें, कुछ मी परि शीलन न करें, तो मला हमने किया ही क्या ? समझा ही क्या ? आजके समय मे सातही क्षेत्रोंमे से चैत्य १ बिम्ब रसाधु ३साध्वी४ यह ही क्षेत्र समयानुसार पुष्ट हैं । सिर्फ घाटा है तो ज्ञान क्षेत्र, श्रावक प्राविका क्षेत्र इन तीन ही क्षेत्रों की सार संभालका है । ज्ञानके पुस्तकों का घाटा नहीं परंतु उनका फैलाव करनेवाले जैसे चाहिये वैसे थोडे हैं । ज्ञान पढानेकी संस्थाएँ हैं परंतु उनमे क्या पढाया जाता है ? जो पढाया जाता है वह बच्चों की जिन्दगी को सुधारता है या बरबाद करता है ? इन बातोंका निरीक्षण सूक्ष्म दृष्टि से करने योग्य है । उसमे मी खास करके वर्तमान समय की स्थिति तर्फ देखकर श्री संघको चाहिये कि वह " श्रावक और श्राविका " इन दोनों क्षेत्रोंको बचावें । लाखों मनुष्य मूख के मारे जैनधर्मका परित्याग कर क्रिश्चियन होते जा रहे हैं । हजारों मनुष्य आर्य समाज हो रहे हैं । ऐसी दशामे हमारे समुदायमे गरीबोंके उद्धार का साधन नहीं । गरीबोंकी फर्याद का सुननेपाला कोई नहीं । उनको पेटमरके खानेको अन्न नहीं । पहननेको वन नहा, रहने को मकान नहीं । एक लाख जितनी पारसी कोम अपना कैसा उपकार कर रही है। मुसलमान लोग किस तरह आपसमे मिल कर काम कर रहे हैं १ संसारमे किस वस्तु की कदर है ? इन बातोका परामर्श बहातक नहीं किया जाता वहातक समाजका दरिद्र दूर होना असंभव है । शरीरका जो अंग बिगडा होता है उसीका सुधारा करना उचित है। बिगडते सडने अंगका सुधारा हो जावेतो सारा शरीर बच सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस लिये हमारी श्रीसंघसे अंतमें यही विनती है कि जिस तरह जैन धर्म और जैन समजका पूर्व ही की तरह फिर भी अभ्युदय हो आरै महात्मा महावीर देवके जगत कल्याण कर जीवन और वचनसे जगत्का उद्धार हो ऐसा काम कर अपना और जगत्का कल्याण करने में कटिबद्ध होवे । ।। तथास्तु ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થશUહિ. alcPhilo જયજી hહ ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com