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चिमटा लिया भस्मी रमाई, मांगने खाने लगे ॥ २ ॥ संख्या अनुद्योगी जनोकी, हीनतासे बढ़ रही । शुचि साधुता पर भी कुयशकी, कालिमा है चढ़ रही ।। भस्म लेपन से कहीं, मनकी मलिनता छूटती । हा ! साधुमर्यादा हमारी, अब दिनोदिन टूटती || ३ ।। यदि ये हमारे साधु ही, कर्तव्य अपना पालते । तो देशका बेड़ा कभी का, पार यह कर डालते ।। पर हाय ! इन में ज्ञान तो, सब रामका ही नाम है । दमकी चिलममें लौ उठाना, मुख्य इनका काम है ।। ४ ॥
( मैथिलीशरण गुप्त ) एक महापुरुष का कथन है कि
दुन्नि विसय पसत्ता, दुन्निविहु धणधन्न संगहसमेया ।
सीसगुरुसमदोसा, तारिजइ भणसु को केण १ ।। १ ।। ( भावार्थ ) संसारी जीव-जगत्में-साधुओं के निमित्तसे, उनके सपनसे प्रतिवर्ष (६० ) क्रोड रुपया व्यय होता है ।
[ देखो “ संसार नामक मासिक पत्र "] जो साधुसंतकी सेवा करते हैं उन के बतलाये हुये रास्ते पर चलने हैं, उनके कहनेसे लाखों करोडों रुपये खर्च करते हैं। वह किस वास्ते ? साधुओं के साथ उनका क्या नाता है ? क्या सम्बन्ध है ? कहना होगा कि धर्म | सिवाय धर्म के जहां और किसी मी किस्म का संबन्ध होगा वहां दोनों को ही हानि ही पहुंचेगी । अतएव सिद्ध हुआ कि संसार में साधु महात्माओं का संचय परिचय गृहस्थ को अनादिकाल की दुर्वासनाओं से बचानेवाला है, हटाने वाला है । परन्तु साधु अपने साधुधर्म में कायम होना चाहिये । अगर ऐसा न होगा तो होगा क्या ? शिष्य अर्थात् गृहस्थ के एक पत्नी, अर्थात् गृहस्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com