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...परन्तु यहां पर एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, इस प्रकार की अहिंसा का पालन सपी मनुष्य किस तरह कर सकते हैं । क्योंकि जैसा कि शास्त्रों में कहा है
जले जीवाः स्थले जीवा जीवाः पर्वतमस्तके ।
ज्वालमालाकुले जीवाः सर्व जीवमयं जगत् ॥ अर्थात् जल में, स्थल में, पर्वत में, अग्नि में इत्यादि सब जगह जीव भरे हुए हैं—सारा जगत जीवमय है । इसलिये मनुष्य के प्रत्येक व्यवहारमें-खान में, पान में, चलने में, बैठने में, व्यापार में, विहार में इत्यादि सब प्रकार के व्यवहार में-जीवहिंसा होती है | बिना हिंसा के कोई भी प्रवृत्ति नहीं की जासकती । अतः इस प्रकार की संपूर्ण अहिंसा के पालन करने का अर्थ तो यह हो सकता है, मनुष्य अपनी समी जीवन क्रियाओं को बन्ध कर, योगी के समान समाधिस्थ हो इस नरदेह का बलात् नाश कर दे । ऐसा करने के सिवाय,-अहिंसा का भी पालन करना और जीवन को भी बचाये रखना, यह तो आकाश-कुतुम की गन्ध की अभिलाष के समान ही निरर्थक और निर्विचार है । अतः पूर्ण अहिंसा यह केवल विचार का ही विषय हो सकता है आचार का नहीं ।
यह प्रश्न यथार्थ है । इस प्रश्न का समाधान अहिंसा के भेद और अधिकारी का निरूपण करने से होगा । इसलिये प्रथम अहिंसा के भेद बतलाये जाते हैं । जैनशास्त्रकारों ने अहिंसा के अनेक प्रकार बतलाये हैं; जैसे स्थूल अहिंसा; और सूक्ष्म अहिंसा; द्रव्य अहिंसा और भाव 'अहिंसा; स्वरूप अहिंसा और परमार्थ अहिंसा; देश आहंसा और सर्व
अहिंसा; इत्यादि । किसी भी चलते फिरते प्राणी या जीव को जीजान से न मारने की प्रतिज्ञा का नाम स्थूल अहिंसा है, और सर्व प्रकार के प्राणियों को सब तरह से क्लेश न पहुंचाने की आचरण का नाम
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