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________________ ५६ हिंसा-जन्य पाप का स्पर्श बिलकुल नहीं होता और इस लिये उन का आत्मा इस पाप-बंधनसे मुक्त ही रहता है । जब तक मनुष्य का आत्मा इस स्थुल शरीर में अधिष्ठाता होकर वास करता रहता है तब तक इस शरीर से वैसी सूक्ष्म हिंसा का होना अनिवार्य है । परन्तु उस हिंसा में आत्मा का किसी प्रकार का संकल्प विकल्प न होने से वह उससे अलिप्त ही रहता है । महावतियों के शरीर से होने वाली यह हिंसा द्रव्य हिंस' या स्वरूप-हिंसा कहलाती है। भाव-हिंसा या परमार्थ-हिंसा नहीं । क्योंकि इस हिंसा में आत्मा का कोई हिंसक-भाव नहीं है । हिंसा-जन्य पार से वहीं आत्मा बद्ध होता है जो हिंसक-भाव से हिंसा करता है। जैनों के तत्त्वार्थ सूत्र में हिंसा का लक्षण बताते हुए यह लिखा है कि 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।' अर्थात्-प्रमत्त भाव से जो प्राणियों के प्राण का नाश किया जाता है वह हिंसा है । प्रमतभाव का तात्पर्य है विषय-कषाय युक्त होकर, जो जीव विषय-काय के वश होकर किसी भी प्राणी को दुःख या कष्ट पहुंचाता है वह हिंसा के पाप का बन्धन करता है । इस हिंसा की व्याप्ति केवल शरीर से कट पहुंचाने तक ही नहीं है परंतु वचन मे वैसा उच्चारण और मन से वैसा चिन्तन करने तक है । जो विषय-कषाय के वश हो कर दूसरों के लिये अनोष्ट भाषण या अनीष्ट चिन्तन करता है वह भी माव-हिंसा या परमार्थ-हिंसा करता है। और इसके विपरीत, जो वि. षय-कवास त है, उस य द को किसी प्रकार की हिंता हो भी गई तो उसकी वह हिंसा परमार्थ से हिंसा नहीं है । एक व्यावहारिक उदाहरण से इसका स्वरूप सष्ट समझ में आ जायगा । ___ एक पिता अपने पुत्र की या गुरु अपने शिष्य की किसी बुरी प्रवृत्ति से रुष्ट हो कर उसके कल्याण के लिये कोर बचन से या शरीर से उसकी ताना करता है, तो वह पिता या गुरु लोकदृष्टि में कोई निन्दनीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034952
Book TitleMahavir Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherAtmatilak Granth Society
Publication Year1922
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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