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है, इस कथन में किंचित् भी तथ्य नहीं है । न यह अव्यवहार्य ही है
और न आत्मघातक ही । यह बात तो सब कोई स्वीकारते और मानने हैं कि, इस अहिंसा तत्त्व के प्रवर्तकों ने इसका आचरण अपने जीवन में पूर्ण रूप से किया था । वे इसका पूर्णतया पालन करते हुए भी वर्षो तक जीवित रहे और जगत् को अपना परम तत्त्व समझाते रहे । उनके उपदेशानुसार अन्य असंख्य मनुष्यों ने आज तक इस तत्त्वका यथार्थ पालन किया है परंतु किसीको आत्मघात करनेका काम नहीं पडा | इस लिये यह बात तो सर्वानुभवसिद्ध जैसी है कि जैन अहिंसा भब्यवहार्य भी नहीं है और इसका पालन करने के लिये आत्मघात की भी आवश्यकता नहीं है । यह विचार तो वैसा ही है जैसा कि महात्मा गांधीजीने देशके उद्धार निमित्त जब असहयोग की योजना उद्घोषित की, तब अनेक विद्वान और नेता कहलाने वाले मनुष्योंने उनकी इस योजनाको अव्यवहार्य और राष्ट्रनाशक बतानेकी बडी लंबी लंबी बातें की थीं
और जनताको उसे सावधान रहने की हिनायत दी थी। परंतु अनुभव मौर आचरण से यह अब निस्संदेह सिद्ध हो गया कि न असहयोग की योजना अव्यवहार्य ही है और न राष्ट्रनाशक ही । हां जो अपने स्वार्थका मोग देनेके लिये तैयार नहीं और अपने सुखोंका त्याग करने को तत्पर नहीं उनके लिये ये दोनों बातें अवश्य अव्यवहार्य हैं। इसमें कोई संदेह नहीं हैं | आत्मा या राष्ट्रका उद्धार विना स्वार्थत्याग और सुख परिहार के कभी नहीं होता | राष्ट्र को स्वतंत्र और सुखी बनानेके लिये जैसे सर्वस्व अर्पण की आवश्यकता है वैसे ही आत्मा को आधि व्याधि उपाधिसे स्वतंत्र और दुःख द्वंद्वसे निर्मुक्त बनानेके लिये भी सर्व मायिक सुखों के बलिदान कर देनेकी आवश्यकता है । इस लिये जो " मुचुक्षु" (बंधनोंसे मुक्त होनेकी इच्छा रखनेवाला ) है-राष्ट्र और आत्माके उद्धारका इच्छक है उसे तो यह जैन अहिंसा कमी भी अव्यवहार्य या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com