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मध्यरात्रि जिन जनमिया, पूर्ण पुण्य फल भोग ।। २ ।। शान्त दिशा सब दीपती, त्रिमुवन हुओ प्रकाश । छप्पन दिशि कुमरी मिली, आई चित्त हुलास ।। ३ ।।
[देश-त्रिताल-लावणी] जनमें जिनदेव-मति-श्रुत-अवधि-ज्ञानी
पूरण जस पुण्य की अद्भुत एह निशानी ।। ज० मड थान से छप्पन दिशि कुमरी मिल आवे,
देखी प्रमु झगमग ज्योति अति हर्षावे । अधोलोक की आठ संवर्तक वायु चलावे,
एकयोजन भूमि अंदर अशुचि उडावे । वरसावे आठ ऊर्ध लोक कुमरी फूल पानी ।। ज० १ ।।
पूरख दक्षिण पश्चिम उत्तर इम चारे, कम से अठ अठ कुमरी निज काज संभारे । दर्पण कलशालि पंखा चामर धारे,
चउ विदिशि की चउ दीप धर उजीयारे । चउ मध्य रुचक की आवे कुमरी सयानी ।। ज० २ ।।
कदलीघर तीन बनाय विधि से करती, मर्दन पूरवघर स्नान दक्षिणे धरती | उत्तर पर रक्षा बन्धन को अनुसरती, जिन जिन अम्बा नमी माव पाप को हरती ।
जीवो चिरकाल जिनंद वदे मुख वानी ।। ब० ३ ।। इम छ-पन दिशि कुमरी प्रमुके गुण गाती,
करके निजकल्प अनादि सदन निज जाती । घन्य देवजन्म हम प्रमुमक्ति से मनाती, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com