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बात है कि ज्ञानके सागर जिनेश्वर परमात्मा भी श्रीसंघको नमस्कार करते हैं । ऐसे श्रीसंघको आपत्तिग्रस्त जानकर देखकर जो जीव श्रीवास्वामी की तरह सहायता देता है, वह सदाकाल धन्यवादका पात्र है।
श्री स्थुलभद्र स्वामी का श्रीयक नामक छोटा भाई था, और यक्षा आदिक ७ बहिने थीं। उन सर्व भाई बहिनोनें स्थूलीभद्र स्वामी के पीछे दीक्षा ली हुई थी। श्रीयक साधू तप करन मे कायर था | संवच्छरीके दिन बडी बहिन की प्रेरणाते उसने उपवास कर लिया था । दैव योग उसी दिन उसका मृत्यु हो गया । यक्षा को बडा पश्चात्ताप हुआ । उसने निश्चय किया कि मेरे कहने से साधु महाराज ने, शाक्तेके न होनेपर मी तपस्या की इसलिये उसके प्राण गये तो ऐसे अनर्थ का पाप माथे आनेपर भी मै कैसे जी सकती हूं? अब मै भी अनशन करूगी | श्री संवने उसको हरतरहसे रोका परंतु उसने अपना सिद्धान्त अटल रखा । आखीर श्री संघने शासन देवीका आराधन किया; शासन देवीने श्रीसंवके आदेशसे उस साध्वी को भगवान् श्रासीमंधर स्वामीके समवसरण में पहुंचाया । भगवद्देवने अपने श्री मुखसे फरमाया कि हे यक्षा ! तेरा अध्यवसाय साधु को तपस्या कराने का था, उसके मारणे का नहीं । वास्ते तूं निदोष है । इस बातको सुनकर साध्वीने बडा हर्ष मनाया और श्री संवके किये काउसगके प्रभावसे शासन देवीने साध्वीको सही सलामत भरत क्षेत्रमें लाके रख दिया !
महापाण ध्यानके करते समय स्थूलि मद्र वगैरह साधुओं की वांचना के लिये जब श्रीसंघने भद्रबाहुसूरिको बुलाया, तब उन्होनें सिर्फ इतनाही जवाब दिया केि, श्रीसंघका फरमान शिरोधार्य है, श्रीसंघकी आज्ञा मुझे मान्य है, मैं जो कुछ कर रहा हु सो श्रीसंवकी सेवाके लियेही कर रहा हूं, इतन पर भी अगर श्रीसंघ हुकम करे तो मैं इस कार्य को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com