Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

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Page 84
________________ ७५ प्रतिदिनकी ६ दुकडेकी कमाई में भी संतोष मानता था । परंतु प्राणीमात्र अपने अपने आत्माभिमत स्वार्थके साघन में प्रवीण होते है। ऐसा कोई चार खूंट में शायद ही होगा जो अपने स्वार्थ को मनसे भी मूलकर परकार्यको सादर साधन करता हो । जगतमें शुभजीवन उसी पुन्यात्माका है जो परोपकार के लिये जीता हो || १ | उस मनुष्यका जीवन असार है, असार ही नहीं बल्कि धिक्कारका स्थान है, जिसने अपने अमूल्य समयको व्यर्थ धूलधोकर गुमा दिया है । उस निकम्मे मनुष्यकी अपेक्षा पशुओंका जीवन अच्छा है कि जिनसे दुनियाके असंख्य काम सुधरते हैं । जीना तो बहुत बडी चीज है बल्कि जिस जीते जागते मनुष्यने परोपकार करना नहीं सीखा उसके जीने की अपेक्षा मरे हुए पशु भी अच्छे हैं कि जिनके चामचे भी संसारके अनेक काम बनते हैं । शास्त्रसिद्ध बात है कि " देवताविषयों में मग्न रहते हैं, नरकके नारकियोंको दुक्खोंसे फुरसत नहीं, तिर्येच तो उपकारको समझते ही नहीं । क्योंकि वह अज्ञानी हैं । सिर्फ उपकारका अधिकार है तो मनुष्योंको ही है । फिर सोचना चाहिये कि अधिकारीही अधिकार से पराङमुख रहेगा तो नीचे लिखा हुआ वाक्य क्या झूठा ह अधिकारको पाय कर करे न परउपकार | ताहुके अधिकार में रह्यो न आदि अकार ! ! ! || समकित के ६७ भेद || [ चार सददना ] ,, ( १ ) ' परमार्थ संस्तव ' — जीवादि नव पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान होना । ( २ ) 'परमार्थज्ञातृसेवन' - गीतार्थ साधु मुनिराज की सेवाभक्तिका करना । ( ३ ) ' व्यापन्नदर्शनवर्जन' – निन्हव, यथाछंद आदि वेशबिचकों का परिचय न करना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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