Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

View full book text
Previous | Next

Page 83
________________ ही असीम उपकारका कारण है, तो फिर हमारे नामकी दानशालाएँ खोल कर निष्कारण यश और कीर्तिके भागी बनाकर आप हमको अति ऋणी क्यो बना रहे हैं ? भला हम इस आपके उपकाररूप बोझेको कैसे उतार सकेंगे ? संसारमे उपकारके बदलेमे प्रत्युपकारके करनेवाले तो जगह २ सुलभ हैं परंतु विना ही प्रार्थनाके किये परका हित करनेवाले और उसमे भी कीर्ति अन्यको दिलानेवाले मनुष्य अव्वलतो जगत्मे हैं ही नही, और हैं भी तो कोई आप जैसे विरले ! ! ! धन्य है अपके जन्म और जीवितको! " आत्मार्थ जीवलोकेऽस्मिन्, को न जीवति मानवः ? । " परं परोपकारार्थ, यो जीवति स जीवति ।। १ ।। " परोपकारशून्यस्य, धिग्मनुष्यस्य जीवितम् ।। " जीवंतु पशवो येषां, चर्माप्युपकरिष्यति ।। २ ।। अपनी जीवन वृत्ति के निवाहके लिये जीवमात्र अनेकानेक उपाय कर रहे हैं, कोई सीता है, कोई घडता है, कोई बुनता है, कोई तनता है, कोई खरीदता है, कोई बेचता है, एक दाता है, अन्य ग्राहक है, किसीकी किसीकी वाणिज्यसें, अनेकोंकी जलसे, अनेकोकी इंधनसे, क्षेत्रसे, कईयोंकी वस्तिसे, कईयोंकी वनसे, आजीविका चल रही है | जोहरी जवाहरात के, बजाज बजाजीके, शराफ शराफीके,परीक्षक परीक्षाके, दलाल दलालीके,एवं अदनासे अदना और बडेसे बडा जीवमात्र अपनी अपनी क्रियासे आजी. विका करता है, यह सर्व क्रियाएँ मनुष्य अपनी जीवनचर्याके निर्वाहके लिये करते हैं । संसारमें ऐसा कोईभी जीवात्मा है कि जिसकी प्रवृत्ति अपने जीवननिर्वाह के लिये न हो ? हां यह बात एक और है कि-किसीको असीम संपत्ति होते भी जलन बलन लगी ही रहती है, और कोई स्वल्प लाभसे भी संतुष्ट रहता है । मंमण कोडों, बल्कि अबजों रुपयोके होते हुए भी आर्तरौद्रसे दिन गुजारता था, और पूनिया श्रावक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108