Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ हुई है । ऐसे ही “ राधनपुर" केपास 'शंखेश्वर ' ग्राममे शंखेश्वरपाचनाथ की मूर्ति है, जो आजसे असंख्य वर्ष पहिलेकी हुई मानी जाती है। श्रवणवलगुलके इतिहाससे पता लगता है कि वहांका राज्य जैनधर्म की चिरकालसे उपासना करता था । जैनधर्मके उपदेशकोका परिचय न रहनेसे वहांके किसी एक राजाने जैनधर्मका त्याग कर अन्यधर्मका पालन करना शुरू कर दिया, और जो जो जिनयों के रक्षणके लिये पूर्वराजाओंकी ओरसे जागीरें भेट की हुई थीं, वह भी उसने जप्त कर ली । दैवयोग वहां भूकम्प हुआ, बहुत से गामोंकी बरी हानी होगई । इससे राजाके मन में शंका उत्पन्न हुई कि मैने चिरपालित 'जैनधर्मको छोड दिया है इसी कारण मेरे राज्यकी दुर्दशा हुई है। वह फिर वीरवचनोंका भक्त होकर जिनधर्मकी उपासना करने लगा, और स्वाधीन की हुई संपत्ति भी जिन चैत्योंको भेट कर दी । इस बातके वि. शेष ज्ञानके लिये “ सनातन जैन पु. दूसरेका अंक तीसरा" देसो । इस से इतना ही आशय लेनेकी आवश्यकता है, कि पूर्वकाल में जैनधर्म राष्ट्रीय धर्म था । राजा तथा प्रजा सभी इसके अनुयायी थे। राजा 'शिवप्रसाद सितारेहिन्द ' ने जैन न हो कर भी अपने निर्माण किये हुये “ भूगोलहस्तामलक" में लिखा है कि दो ढाई हजार वर्ष पहिले दुनिया का अधिक भाग जैनधर्मका उपासक था । जिनचैत्य (जिनमंदिर ). “ रम्यं येन जिनालयं निजमुजोपात्तेन कारापितं, मोक्षार्थ स्वधनेन शुद्धमनसा पुंसा सदाचारिणा । वेधं तेन नरामरेन्द्रमहितं तीर्थेश्वराणां पदम्, प्राप्त जन्मफलं कृतं जिनमतं गोत्रं समुद्योतितं ॥ अर्थ-जिस शुमनवाले सदाचारी भव्यात्माने अपने सपके कमाये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108