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शताब्दीके बाद तकका प्राचीन भारतीय भूर्तिकारी का इतिहास हमें मिलता है। कोई भी मूर्ति, या पत्थरकी कारीगरी जो अभी तक मिली है अशोकके पहिलेको नहीं है । भारतवर्षकी प्राचीन मूर्तियें समयके अनुसार चार भागोंमें बाँटी गई हैं (१) मौर्यकाल ईसाके पूर्व तीसरी शताब्दीसे ईसाके पूर्व पहिलो ताब्दी तक,
(२) 'कुघानकाल' ईसाके बाद पहिली शताब्दीसे तीसरी ( ख ), स्वदेशी कुषान मूर्तिकारी
( ३ ) गुप्त काल'-ईसाके बाद तीसरी शताब्दीसे छी शताब्दी तक ( ४ ) 'मध्यकाल'-ईसाके बाद सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक
इस परामर्शमें जैनधर्म किसी अंशमें अपना निराला मन्तव्य रखता है, और यह मन्तव्य बुद्धिवादसे और ऐतिहासिक प्रमाणोंसे सत्य मालूम होता है। या तो श्रीमन्महावीरदेवके फैलाये साम्यवादको जबसे एक महात्माने पुनरुज्जीवित किया है, तबसे शत्रुकी मान्यता पर भी घृणा पैदा करनी बुरी मालूम देती है । हाँ मध्यस्थभावसे यथार्थ बत्त्व समजाना अपना कर्तव्य है । तथापि “ युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः " यह नीति सभी के लिये प्रशस्त है, और सत्य कहना यह महा. त्माके सत्य साम्राज्यका भूषण है | यहां एक ही बात कह देनी उचित मालम देती है, कि संसारमें ईश्वरवादी महाशय परमात्माके अवतार मानते ही हैं, तो जब वह अवतार धर्मका उद्धार करके अंतरित हो जाते हैं तब उनके ऋणी जीवात्मा उनकी मूर्तियां क्यों न बनाते होंगे ? बैनसंपदायमें तो मूर्तिका रहना असंख्यवर्षों तक फरमाया है । अर्थात् मूर्ति असंख्यवर्षों तक रह सकती है । इतना ही नहीं बल्कि इसके अनेक दृष्टान्त भी उपस्थित हैं । गुजरातमें पाटणके समीप चारुप ग्राममें पार्श्वनाथस्वामी, की प्रतिमा है, वह असंख्यवर्षोंकी बनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com