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मोहरें ३२ त्रियां का त्याग कर शालिभद्र उनके शिष्य हुए थे । शालिमद्र के अलावा और भी अनेक राजपुत्र जैसे कि मेघकुमार अभय. कुमार आदि, अनेक श्रेष्ठिपुत्र जैसे कि धन्नाकुमार और धन्नाकाकंदी, प्रमुचरणोंमें दीक्षित हुए थे । __ आपके पांचकन्याणक जिन का वर्णन आगे लिखा जायगा उनमें ६४ इन्द्र सहपरिवार हाजिर हुआ करते थे, परन्तु उनपरभी आपको बासक्ति नहीं थी।
आपका मुख्य सिद्धांत था कि संसारक्षेत्रमें सत्यमार्ग खोजनेवालेको अपना जीवन उच्च बनाना चाहिये । उन्होंने अपने शिष्यों को इस कदर उपदेशद्वारा स्थिर किया था कि मरणान्तकष्टके आनेपर भी वह धर्मसे विचलित नहीं होते थे ।
आपके संप्रदायमें अनादि स्वभावके अनुसार स्त्री और पुरुष समी कल्याणमार्गको अखत्यार कर सकते थे । दीक्षित पुरुष-आर्य, मुनि, साधु, तपस्वी, ऋषि, भिक्षुक, निर्यन्य, अनगार और यति आदिके नामों से पहचाने जाते थे, और दीक्षित स्त्रिया-आर्या, भिक्षुणी, साध्वी, तपस्विनी निर्ग्रन्थी आदि नामों से पहचानी जाती थी । आपके निर्वाण के बाद भी गौतमादि आपके शिष्योने, उसमे भी खास करके सौधर्म स्वामीने आपकी शिक्षाओं का याथातप्यरूपसे प्रवाह प्रचलित रक्खा था ।
परमात्मा के आगम अर्धमागधी भाषामें थे, और १४ पूर्वो की विद्या संस्कृत भाषा में थी।
आपके निर्वाण के बाद कितना ही अरसा बीतजानेपर आपके वाक्योंकी होती हुई छिन्नभिन्न दशाको अच्छे रूपमें स्यापन करनेके लिये मथुरा नगरीमें और वल्लभीमें सभाएँ हुई थीं, मथुरा की सभामें मुख्य नियामक स्कन्दिलाचार्य थे, और वल्लभीपुरकी सभामें मुख्य नियन्ता देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण थे ।
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