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सूक्ष्म अहिंसा है । किसी भी जीव को अपने शरीर से दुःख न देने का नाम द्रव्य अहिंसा है और सब आत्माओं के कल्याण की कामना का नाम भाव अहिंसा है । यही बात स्वरूप और परमार्थ अहिंसा के बारे में मी कही जासकती है । किसी अंश में अहिंसा का पालन करना देश अहिंसा कहलाती है और सर्व प्रकार — संपूर्णतया अहिंसा का पालन करना सर्व अहिंसा कहलाती है ।
यद्यपि आत्मा को अमरत्व की प्राप्ति के लिये और संसार के सर्व बन्धनों से मुक्त होने के लिये अहिंसा का संपूर्णरूप से आचरण करना परमावश्यक है । विना वैसा किये मुक्ति कदापि नहीं मिल सकती । तथापि संसार निवासी सभी मनुष्यों में एकदम ऐसी पूर्ण अहिंसा के पालन करने की शक्ति और योग्यता नहीं आसकती, इसलिये न्यूनाधिक शक्ति और योग्यता वाले मनुष्यों के लिये उपर्युक्त रीति से तत्त्वज्ञों ने अहिंसा के भेद कर क्रमश: इस विषय में मनुष्य को उन्नता होने की सुविधा बतला दी है । अहिंसा के इन भेदों के कारण उसके अधिक रियो में भेद कर दिया गया है । जो मनुष्य अहिंसा का
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संपूर्णतया पालन नहीं कर सकते, वे गृहस्थ - श्रावक - उपासक - अणुव्रती देशEती इत्यादि कहलाते हैं । जब तक जिस मनुष्य में संसार के सब प्रकार के माह और प्रलोभन को सर्वथा छोड देने की जितनी आत्मशक्ति प्रकट नहीं होती तब तक वह संसार में रहा हुआ और अपना गृहव्यवहार चलाता हुआ धीरे धीरे अहिंसाव्रत के पालन में उन्नति करता चला जाय। जहां तक हो सके वह अपने स्वार्थों को कम करना जाय और निजी स्वार्थ के लिये प्राणियों के प्रति मारनताडन - छेइन - आक्रोशन आदि क्लेशजनक व्यवहारों का परिहार करता बाय । ऐस गृहस्थ के लिये कुटुंब देश या यदि स्युल हिंसा करनी पढे तो उसे अपने व्रत में कोई हानि नहीं पहुं
धर्म के रक्षण के निमित्त
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