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या दण्डनीय नहीं समझा जाता । क्योंकि पिता या गुरु का वह व्यवहार द्वेष-जन्य नहीं है । उस व्यवहार में सद्बुद्धि रही हुईं है । इसके विपरीत जो कोई मनुष्य द्वेत्र वश हो कर किसी मनुष्य को गाली गलोच या मारपीट करता है, तो वह राज्य या समाज की दृष्टि में दण्डनीय और निन्दनीय समझा जाता है । क्योंकि वैसः व्यवहार करने में उसका आशय दुष्ट है । यद्यपि इन दोनों प्रकार के व्यवहारो का बाह्य स्वरूप समान ही है तथापि आशय भेद से उनके भीतरी रूप में बडा भेद है । इसी प्रकार का भेद द्रव्य और भाव हिंसादि के स्वरूप में समझना चाहिए ।
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वास्तव में हिंसा और अहिंसा का रहस्य मनुष्य की भावनाओं पर अवलम्बित है । किसी भी कर्म या कार्य के शुभाशुभ बन्धन का आवार कर्ता के मनोभाव ऊपर है । मनुष्य जिस भाव से जो कर्म करता है, उसी अनुसार उसे फल मिलता है । कर्म का शुभाशुभपना उसके स्वरूप में नहीं रहा हुआ है, किन्तु कर्ता के विचार में रहा हुआ है । जिस कर्म के करने में कर्ता का विचार शुभ है, वह शुभ कर्म कहलाता है और जिस कर्म के करने में कर्ता का विचार अशुभ है वह अशुम कर्म कहलाता है । एक डाक्टर किसी मनुष्य को शस्त्रकिया करने के लिये जो क्लोरोफॉर्म सुंबा कर बेहोश बनाता है उसमें और एक चोर या खूनी किसी मनुष्य को धन या जीवित हरन करने के लिये जो क्लोरोफॉर्म सुंबा का, बेहोश करता है उतम कर्म के किया की ह परन्तु फल की दृष्टि से जब देखा जाता सन्मान मिलता है ओर चोर या खु
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से किंचित् भी फरक नहीं है है, तब डॉक्टर को तो बड़ा
को मयंकर शिक्षा दी जाती है । यह उदाहरण
जगत् की हार्ट से
हुआ | अब एक दूसरा उदाहरण लीजिए, जो स्वयं
मनुष्य की अंत -
रात्मा की दृष्टि में अनुभूत होता है । एक पुत्र अक्ने शरीर से जिस
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