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धारण किये हुए है, तब तक उससे कर्म का सर्वथा त्याग किया जाना असंभव है । क्योंकि गीता का कथन है कि
'नहि देहमता शक्यं त्यक्तुं कर्मण्यशेषतः । ' तथापि
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेंद्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।। इस गीतोक्त कथनानुसार-जो योगयुक्त, विशुद्धात्मा, विजितात्मा, जि-': तेंद्रिय और सर्व भूतों में आत्मबुद्धि रखनेवाला पुरुष है, वह कर्म करके भी उससे अलिप्त रहता है।
ऊपर के इस सिद्धान्त से पाठकों की समझ में अब यह अच्छी तरह आजायगा कि, जो सर्वव्रती-पूर्णत्यागी मनुष्य है उनसे जो कुछ सूक्ष्म कायिक हिंसा होती है उसका फल उनको क्यों नहीं मिलता ।' इसी लिये कि, उनसे होने वाली हिंसा में उनका भाव हिंसक नहीं है । और बिना हिंसक-भाव से हुई हिंसा, नहीं कही जाती । इसलिये आवश्यक महाभाष्य नामक आप्त जैन ग्रंथ में कहा है कि
असुमपरिणामहेऊ जीवाबाहो ति तो मयं हिंसा ।
जस्स उन सो निमित्तं संतो विन तस्स सा हिंसा || अर्णत किसी जीव को कष्ट पहुंचाने में जो अशुभ परिणाम निमित्तमृत है तो वह हिंसा है, और ऊपर से हिंसा मालूम देने पर भी जिसमें वह अशुभ परिणाम निमित्त नहीं है, वह हंसा नहीं कहलाती । यही बात एक और ग्रंथ में इस प्रकार कही हुई है:
जं न हु मणि ओ बंचो जीवरस वहेवि समिइगुत्ताणं । मावो तत्थ पमाणं न पमाणं कायवाबारो॥
(धर्मरत्न मंषा, पृ. ८३२) मर्यात् समिति-गुप्तियुक्त महावतियों से किसी जीव का वध हो जाने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com