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प्रकार अपनी स्त्री से आलिंगन करता है, उसी प्रकार वह अपनी माता बहिन या पुत्री से आलिंगन करता है | आलिंगन के बाह्य प्रकार में कुछ भेद न होने पर भी आलिंगन कर्ता के आंतरिक भावों में बडा मारी भेद अनुभूत होता है । पत्नी से आलिंगन करते हुए पुरुष का मन और शरीर जब मलिन विकारभाव से भरा होता है, तब माता आदि के साथ आलिंगन करने में मनुष्य का मन निर्मल और शुद्ध सात्त्विक-वत्सल-भाव से भरा होता है । कर्म के स्वरूप में किंचित् फरक न होने पर भी फल के स्वरूप में इतना विपर्यय क्यों है, इसका जब विचार किया जाता है, तो स्पष्ट ही मालूम होता है कि, कर्म करने वाले के भाव में विपर्यय होने से फल के स्वरूप में विपर्यय है । इसी फल के परिणाम ऊपर से कर्ता के मनोभाव का अच्छा या बुरापन निर्णित किया जाता है; उसी मनोभाव के अनुसार कर्म का शुभाशुमपना माना जाता है । अतः इससे यह सिद्ध होगया कि धर्म-अधर्म-पुण्यपाप-सुकृत-दुष्कृत का मूलमूत केवल मन ही है । भागवतधर्म के नारद पंचरात्र नामक ग्रंथ में एक जगह कहा गया है कि
मानसं प्राणिनामेव सर्वकमैंककारणम् ।
मनोऽरूपं वाक्यं च वाक्येन प्रस्फुटं मनः ।। अर्थात् प्राणियों के सर्व कर्मों का मूल एक मात्र मन ही है । मन के अनुरूप ही मनुष्य की वचन ( आदि ) प्रवृत्ति होती है और उस प्रवृत्ति से उसका मन प्रकट होता है ।
इस प्रकार सब कर्मों में मन ही की प्रधानता है । इस लिये आत्मिक विकास में सबसे प्रथम मन को शुद्ध और संयत बनाने की आवश्यकता है | जिसका मन इस प्रकार शुद्ध और संयत होता है वह फिर किसी. प्रकार के कर्मों से लिप्त नहीं होता । यद्यपि जब तक आत्मा- देह को
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