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पाठक मली भांति समझ सकेंगे कि, जैन गृहस्थ के पालने योग्य अहिं. सावत का यथार्थ स्वरूप क्या है ।
सर्व-अहिंसा और उसके अधिकारी । जो मनुष्य अहिंसावत का पूर्ण रूप से पालन करते हैं वे यति. मुनि-भिक्षु श्रमण-संन्यासी-महावती इत्यादि शब्दों से संबोधे जाते हैं । वे संसार के सब कामों से दूर और अलिप्त रहते हैं । उनका कर्तव्य केवल निज का आत्मकल्याण करना और जो मुमुक्षु उनके पास आवे उसको आत्मकल्याण का मार्ग बताना है | विषय-विकार और कषायभाव से उनका आत्मा ऊपर रहता है। जगत् के सभी प्राणी उनके लिये पात्मवत् है । यह मैं और यह दूसरा, इस प्रकार का द्वैत-भाव उनके हृदय में से नष्ट हो जाता है । उनके मन, वचन और कर्म तीनों एक रूप होते हैं । सुख दुःख या हर्ष-शोक उनके मनमें एक ही स्वरूप दिखाई देते हैं । जो पुरुष इस प्रकार की स्वरूपावस्था को प्राप्त कर लेता है वही महावती है, और उसीसे अहिंसा का सर्वतः पालन किया जा सकता है । ऐसे महाव्रती के लिये न स्व-अर्थ हिंसा कर्तव्य है और परार्थ । वह स्थूल या सूक्ष्म समी प्रकार की हिंसा से मुक्त रहता है। . ___ यहां पर यह एक प्रश्न होता है कि, क्या इस प्रकार के जो महावती होते हैं वे खाते पीते या चलते बैठते हैं कि नहीं है। अगर वे वैसा करते हैं तो फिर वे अहिंसा का सर्वतः पालन करने वाले कैसे कहे जा सकते हैं ? क्योंकि खाने पीने या चलने बैठने में मी तो जीव हिंसा होती ही है।
इसका समाधान यह है कि यद्यपि यह बात सही है कि, उन महावतियों से भी उक्त कियायों के करने में सूक्ष्म प्रकार की जीवहिंसा होती रहती है, परन्तु उनकी उम्च मनोदशा के कारण उनको उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com