Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

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Page 61
________________ का अवकाश नहीं था, इसलिये भावि के ऊपर आधार रखकर वह मौन रही । दूसरे दिन प्रातःकाल ही से युद्ध का प्रारंभ हुआ । योग्य संधि पाकर दंडनायक आमूने इस शौर्य और चातुर्य से शत्रु पर आक्रमण किया कि जिससे क्षणभर में शत्रु के सैन्य का भारी संहार हो गया और उसके नायक ने अपने शस्त्र नीचे रखकर युद्ध बन्ध करने की प्रार्थना की । मामू का इस प्रकार विजय हुआ देख कर अणहिलपुरकी प्रजा में चय जय का आनन्द फैल गया । राणी ने बडे सम्मानपूर्वक उसका स्वागत किया और फिर बडा दरबार करके राजा और प्रजा की तरफ से उसे योग्य मान दिया गया । उस समय हँस कर राणी ने दंडनायक से कहा कि-सेनाधिपति, जब युद्ध की व्यूह रचना करते करते बीच ही में माप-" एगिदिया बेइंदिया " बोलने लग गये तब तो आपके सैनिको को ही यह संदेह हो गया था कि, आपके जैसा धर्मशील और अहिंसा प्रिय पुरुष मुसलमानों जैसों के साथ लडने वाले इस क्रूर कार्य में कैसे धैर्य रख सकेगा । परन्तु आपकी इस वीरता को देखकर सबको बाश्चर्य निमग्न होना पडा है । यह सुनकर कर्तव्यदक्ष उस दंडनायक ने कहा कि-महाराणि, मेरा जो अहिंसानत है. वह मेरी आत्मा के साथ सम्बन्ध रखता है | मैंने जो !! एगिंदिया बेइंदिया " के वध न करने का नियम लिया है वह अपने स्वार्थ की अपेक्षा से है । देश की रक्षा के लिये और राज्य की आज्ञा के लिये यदि मुझे वध कर्म की आवश्यकता पड़े तो वैसा करना मेरा कर्तव्य है । मेरा शरीर यह राष्ट्र. की संपत्ति है । इसलिये राष्ट्र की आज्ञा और आवश्यकतानुसार उसका उपयोग होना ही चाहिए । शरीरस्थ आत्मा या मन मेरी निजी संपत्ति है उसे स्वार्थीय हिंसामाव से अलिप्त रखना यही मेरे अहिंसावत का. लक्षण है । इत्यादि इस ऐतिहासिक और रसिक उदाहरण से विज्ञ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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