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चरम सीमा तक पहुंचा दिया है । उन्होंने केवल अहिंसा का कथन मात्र ही नहीं किया है परन्तु उसका आचरण भी वैसा ही कर दिखाया है । और और धर्मों का अहिंसा तत्त्व केवल कायिक बन कर रह गया है परन्तु जैनधर्म का अहिंसा तत्त्व उससे बहुत कुछ आगे बढकर वाक्कि और मानसिक से भी नर - आत्मिक रूप बन अहिंसा की मर्यादा मनुष्य और उससे जादह जन्मत् तक जाकर समाप्त हो जाती है; परन्तु मर्यादा ही नहीं है । उसकी भर्यादा में सारी सचराचर जीव जाति समा जाति है और तो भी वह वैसी ही अमित रहती है । वह विश्व की तरह अमर्याद - अनंत है और आकाश की तरह सर्व पदार्थ व्यापी है ।
गया है । औरों की हुआ तो पशु-पक्षी के
जैनी अहिंसा की कोई
परन्तु जैनधर्म के इस महत् तत्त्व के यथार्थ रहस्य को समझने के लिये बहुत ही थोडे मनुष्यों ने प्रयत्न किया है । जैन की इस अहिंसा के बारे में लोगों में बडी अज्ञानता और बेसमझी फैली हुई है । कोई इसे अव्यवहार्य बतलाता है तो कोई इसे अनावरणीय बतलाता है । कोई इसे आत्मघातिनी कहता है और कोई राष्ट्रनाशिनी । कोई कहता है जैनधर्म की अहिंसा ने देश को पराधीन बना दिया है और कोई कहता है; इसने प्रजा को निवर्य बना दिया है । इस प्रकार जैनी अहिंसा के बारे में अनेक मनुष्यों के अनेक कुविचार सुनाई देते हैं । कुछ वर्ष पहले देशभक्त पंजाब केशरी लालाजी तक ने भी एक ऐसा ही भ्रमात्मक विचार प्रकाशित कराया था, जिसमें महात्मा गांधीजी द्वारा प्रचारित अहिंसा के तत्त्व का विरोध किया गया था, और फिर जिसका समाधायक उत्तर स्वयं महात्माजी ने दिया था । लालाजी जैसे गहरे विद्वान् और प्रसिद्ध देशनायक हो कर तथा जैन साधुओं का पूरा परि चय रखकर भी जब इस अहिंसा के विषय में वैसे भ्रान्तविचार रख
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