Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

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Page 50
________________ सकते हैं तो फिर अन्य साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या की जाय । हाल ही में कुछ दिन पहले-जी. के. नरीमान नामक एक पारसी विद्वान ने महात्मा गांधीजी को सम्बोधन कर एक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने जैनों की अहंसा के विषय में ऐसे ही भ्रमपूर्ण उद्गार प्रकट किये हैं। मि. नरीमान एक अच्छे ओरिएन्टल स्कॉलर हैं, और उनको जैन साहित्य तथा जैन विद्वानों का कुछ परिक्ष भी मालूम देता है । जैनधर्म से परिचित और पुरातन इतिहास से अमिज्ञ विद्वानों के मुंह से जब ऐसे अविचारित उद्गार तुनाई देते हैं, तब साधारण मनुष्यों के मन में उक्त प्रकार की भ्रांति का ठस जाना साहजिक है । इस लिये हम यहां पर संक्षेप में आज जैनधर्म की अहिंसा के बारे में जो उक्त प्रकार की भ्रांतियां जनसमाज में फैली हुई हैं, उनका मिथ्यापन दिखाते हैं। जैनी आहंसा के विषय में पहला आक्षेप यह किया जाता है किजैनधर्म के प्रवर्तकों ने आहिंसा कि मर्यादा को इतनी लम्बी और इतनी विस्तृत बना दी है कि, जिससे लगभग वह अव्यवहार्य की कोटि में जा पहुंची हैं | जो कोई इस अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करना चाहे तो उसे अपनी समग्र जीवनक्रियायें बंध करनी होगी और निश्चेष्ट हो कर देहत्याग करना होगा । जीवनव्यवहार को चालू रखना और इस अहिंसा का पालन भी करना, ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं । अतः इस अहिंसा के पालन का मतलब आत्मघात करना है। इत्यादि । यद्यपि इसमें कोई शक नहीं है कि-जैम अहिंसा की मर्यादा बहुत ही विस्तृत है और इस लिये उसका पालन करना सबके लिये बहुत ही कठिन है । तथापि यह सर्वथा अव्यवहार्य ' या आत्मघातक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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