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४ स्वस्त्री संतोष कर - परस्त्री गमन का त्याग करना | ५–धनसम्पति का सन्तोष-- इच्छानिरोध तृष्णा का घटाना । जैनधर्म की प्रौढ, और प्रकृष्ट शिक्षा यह ही है कि सर्व जीवात्माओं को चाहे वह छोटे हों चाहे बडे हों, अमीर हो या गरीब हों, सबका मानो । विना प्रयोजन
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भला करो, सब को अपने आत्मा के समान किसीको मत सताओ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् जिसको तुम सताओगे वह कभी न कभी तुम्हारा भी नुकसान करेगा,
बस वक्त तुमको बहुत बड़ा क्लेश होगा ।
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बदन सोचे जेम गर दू गर कोई मेरी सुने । है यह गुम्मज की सदा जैसी कहे वैसी सुने || " ( १ ) जैनधर्म को स्वीकार कर के कुमारपाल जैसे राजाओं ने देशों में यूका जैसे क्षुद्र प्राणियों की भी रक्षा की है, मगर जब देश रक्षण का काम पडा तत्र तलवार लेकर मैदान में भी उतरे हैं । कवि दलपत -
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रामने लिखा है कि “जैनो की दयाने संसार को कमजोर कर दिया है " मगर यह सरयाम भूल है, जैन के इतिहास पुस्तकोंसे बराबर सिद्ध होता है कि महावीर के परम भक्त द्वादश व्रत धारक श्रावक राजा चेटक ( चेडा) ने १२ वर्षतक कूणिक राजा से संग्राम किया है । उदायी राजा ने मालवेस उज्जयनी पति चंड प्रद्योतन को जीता है। संप्रति राजाने त्रिखण्डभूमिका विजय किया है। कुमारपालने सपादलक्षके राजाको ( शाकंभरी ) सांभर के नरपतिको, चन्द्रावनी के राजा सामन्तसिंह को जीता है । इतना ही नहीं वल्कि उनके जैनमंत्रि भी लडाइयों में विजय पाते रहे हैं, कुमारपालका मुख्य प्रधान उदयन लडाई में ही मारा गया था | कुमारपाल के पूर्व गुजरात के राजा देव हो चुके हैं, उन. का मंत्री विमलशाह बडा बहादुर था, तीर और तलवार को लेकर शत्रुओ को उत्साहसे पराजित करता था । मिन्ध की चढाई में विमल की
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