________________
॥ पर्वपर्यालोचन ॥ प्रथम वर्णन किया जा चुका है कि अपने विषद विद्याबलसे, बिशुद्ध तपोबलसे, अप्रमत्त कियाकाण्डसे, अप्रतिबद्ध विहार से सत्य उपदेशोंसे, विविध तितिक्षाओंके परिशीलन से, महात्मा पुरुषोंने प्रथम अपने उच्च निर्मल, निष्काम, निर्विकार, एवम् निर्दोष जीवनसे संसारको अपना अनुरायी किया है और तत्पश्चात् ही उनको धर्मोपदेश द्वारा मार्मानुगामी किया है । ऐसे ही संसारके अग्रगण्य गृहस्थ महानुभावोंको भी आवश्यक है कि वह दूसरे को आदर्श बनाने के प्रथम अपने जीवनको असाधारण बनाने का दृढ प्रयत्न करें, बस संपूर्ण संसार उसका दास है।
यह बात भी अवश्य स्मरण रखनी चाहिये कि केवल शिक्षा ही काफी नहीं है, चतुर आदमी दुराचारी भी हो सकता है, धर्महीन मनुभ्य जितना चतुर होगा उतना ही अत्याचारी होगा, अत एव शिक्षा की नीव धर्म और सच्चरित्रता पर स्थित होनी चाहिये, कोरी शिक्षा किसी भी कामकी नहीं, उससे बुरी वासनायें दूर नहीं हो सकतीं । बुद्धि की वृद्धि का (साधारणतया) सच्चरित्रता पर बहुत थोडा प्रभाव पडता है । बहुतेर लिखे पढ़े मनुष्य अदूरदशी अपव्ययी और आचारभ्रष्टदेखने में आते हैं, अत एव यह अत्यन्त आवश्यक है कि शिक्षा धार्मिक
और नैतिक सिद्धांतों पर स्थित हो । [ इसका अधिक विस्तार मितव्यबताते देखो ___ अब देशसेवा के हिमायतियों को गौर कर के सोचना चाहिये कि ऐसा अवसर फिर आना मुश्किल है “स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ।
बाकी तो विदेशी शिक्षा पाकर भी विदेश भ्रमण करके भी अगर देशसवा नहीं की तो भाई ! तुझे क्या कहें ? कविरत्न का कहना हैShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com