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तो अपनी एक ही स्त्री पर से तुष्ट है और जिसको गुरु माना है, उससे कृष्णलीला मनाई जाती है । गृहस्थ के पास बारह महीने के गुनारे के वास्ते दश बीस मन अनाज होगा और गुरुजी के वखारे भरी होंगी।
और मन में उनके यह ही भावना वर्वती होगी कि एक समये का एक सेर अनाज होजाय तो हम करोड़पति होजायें ।
ऐसी हालत में कहना चाहिये कि तरनेवाला तो काष्ठ है मगर नाव लोहेकी है । वह उसे किसी प्रकार तार नहीं सकती ।
एक घडी आधी घडी, आधीमें पिण आध । "तुलसी" संगति साधुकी, कटे कोटि अपराध ॥ १ ।। शीतरितु-जोरै अंग सबही सकोरै तहां तनको न मारै नदी धोरै धीरजे खरे । जेठकी झको” जहां अंडा चील छोरै पशु, पंछी छांह लोरै गिरिकोरै तप वे धरे ।। घोर धन घोरै घटा चहुं ओर डोरै ज्यौं ज्यौं, चलत हिलोरै त्यै त्यौं फोरै बलये अरे । देह नेह तो परमारथ सौं प्रीति जोरें,
ऐसे गुरुओरै हम हाथ अंजुली करे ।। २ ।। यह जो महात्मा तुलसीदास का और कवि-मुदर दासजी का महिमा वचन है वह कैसे साधुओंके लिये है ? उनके लक्षण यह हैं
जोयुं विवेक विचारथी संसारमा कांई नथी, स्त्रीपुत्रने परिवार कली रामारमा काई नथी । हो नगरके वन विजन जेहने उमय एक समान छे ते मोहजेता साधुना मना तमा कांई नथी ।। १ ।। "सुखे दुःखे भवे मोक्षे साघवः समचेतसः" ।
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