Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

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Page 42
________________ ३५ हो रहा है, पदार्थविद्या तो अंग्रेजों के घरों में, दर्शनशास्त्रों को उदेही खा रही है, उनका भाव ही कौन पूछे ? धर्मोपदेश हैं तो संसारमें अपनी बढाई और महत्ता बढ़ाने के लिये, ग्रन्थ निर्माण के बदले अगर प्राचीन ऋषियों के बनाये पढ़े वांचे ही जावे तो भी बस है । कहां तक कहा - जाय ? प्रायः सारा ही चक्र ऊंधा चल रहा है, जिन के रर्वजोंने अपने विविध विज्ञान द्वारा राजा महाराजा श्रेष्ठ रईस लोगों को सन्मार्गगामी बनाया था, आज वह अपने पूर्वजों की कीर्तिरूप जायदाद को खा खा कर पापी पेटकी वेठ उतार रहे हैं । इध बात का स्पष्टीकरण नीचे के पद्योंसे भली भांति हो सकेगा । - स्वतंत्र वाद के सुना गया है कि भगवान् श्रीमन् - " महावीर स्वामी के समय में ३६३ मत थे, परंतु वर्तमानकाल के सतव में उन मतोंकी संख्या भी ३६३ से बढ पहुंच गई है । कर आज कल ३००० तक अवधून संसार में साधु संन्यासी - उदासी चारी - वापस तपस्त्री - नागे इत्यादि नाम धारक मनुष्यों की संख्या सुनी जाती है । निर्मले - वैरागी - ऋषी-मुनि-ब्रह्म संत यति - भिक्षु महंत जगत् में ५६ लाख जितनी - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ― [ विशेष के लिये देखो देशदर्शन, वे भूरि संख्यक साधु, जिनके पंथ भेद अनन्त हैं । अवधूत यति नागा उदासी, संत और महन्त हैं ।। हा ! वे गृहस्थोंसे अधिक हैं, आज रागी दीखते । अत्यल्प ही सच्चे विरागी, और त्यागी दीखते ।। १ ।। जो कामिनी - काञ्चन- न छूटा, फिर विराग रहा कहां ! । पर चिन्ह तो वैराग्य का, अब है जटाओंमें यहां || भूखो मरे कि जटा रखाकर, साधु कहलाने लगे । www.umaragyanbhandar.com

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