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ओही मन पर्यन ज्ञानी, तेरांसो पांचसो मावे । पूरव चउदधारी शत तीनो, चउदसो साध्वी शिव जावे ॥ ३ ॥ श्रावक एक लाख व्रत धारी, एगुण सठ सहस बतलावे । श्राविका लाख तिग सहसा, अठारा सूत्र परमावे ॥ ४ ॥ प्रमु परिवार परिवारिया, अपापा नगरी दीपावे । अमा कार्तिक रिख स्वाति, प्रमु निर्वाण सुख पावे ।। ५ ।। आतमलक्ष्मी पति स्वामी, हुए निबरूप उपजावे ।
अटल संपत् प्रमु पामी, वल्लभ मनहर्ष नहीं मावे ॥ ६ ॥ [च्च जीवात्माओंके उच्च जीवन की उच्च घटनायें]
॥ दया दृष्टि और दीनोद्धार. ।। परमात्मा चारित्र लेकर देशदेशान्तरोंमें विहार कर रहे हैं । उन्होंने देखा कि अमुक विकट अटवीके अमुक स्थलमें “ चंडकौशिक " नामक दृष्टिविष सर्प रहता है । उस क्रूराशयवाले अज्ञानी जीवने आज तक असंख्य निरपराधी जीवोंकी जीवनयात्राको समाप्त कर दिया है । उसकी तीव्र दृष्टिज्वालासे भस्मसात् होकर पक्क फलोंकी नाइं पक्षिगण धडा घड नीचे गिर रहे हैं । इस मयसे उस जगहका आकाशमार्ग भी बन्द हो चुका है । संख्यातीत जीवोंके प्राणोंका शत्रु होकर, वह बिचारा निपट नरकातिथि हो रहा है । यह सोचकर प्रमु उसके उपकारके लिये उसी कनखल आश्रमकी तरफ जहाँ कि वह सर्प रहता था चल पडे । मार्गमें जाते समय ग्वालोंने उनको रोका और संपूर्ण वृत्तान्त उस सर्पका कह सुनाया, और साथमें यह भी कह दिया कि इस मार्गके बदले दूसरा मी मार्ग है बो थोडा बाँका होकर जाता है, आप उधर होकर जाइये जिससे आपको शारीरिक आपत्ति न भोगनी पडे । ___महावीरने शानद्वारा जान लिया कि यह पामर जीव पूर्वकृत दुष्कृतोंके
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