________________
काय दुर्बल ममुष्य किस बलसे बलवान् होकर वह सारे स्वार्थों और अपने प्राणोंतक के विसर्जन कर देने में भी कातर नहीं होता |
एक न्यायका अनुष्ठान करने से सारा संसार तुम्हारी सहायता करने के लिये तैय्यार हो जावेगा। उस न्यायानुष्ठान के प्रतिष्ठिति करने में तुम्हारा सर्वस्व ही क्यों न चला जावे तो भी तुम्हारे हृदय में लेशमात्र भी कष्ट न होगा किन्तु एक अन्याययुक्त आचरण करनेसे तुम्हें सौ बिच्छुओंके काटने समान पीडा होगी। तुम्हारा हृदय अशान्तिका घर बन जावेगा और तुम संसारको नरक के समान भीषण स्थान समझोगे, तब तुम सोचोगे कि तुम संसार में अकेले हो, सारा संसार तुम्हारी ओर घृणापूर्ण दृष्टि से देख रहा है, कोई भी तुम्हें आश्वासन द्वारा शान्ति देनेके लिये प्रस्तुत नहीं । संसारके संपूर्ण व्यक्ति गण तुम्हारी पापमय संगति से दूर भागना चाहेंगे । इसी प्रकार न्याय और अन्याय में भी भेद है, भगवान का भक्त भारी विपत्ति में भी अन्याय का परित्याग कर के न्याय का अनुसरण करता है, इस का और कोई कारण नहीं वह न्याय के बीच परमात्माकी शक्ति देखकर ही उसपर अनुराग करता है।
॥ शिक्षा का प्रयोजन ॥ अनेक मातापिता अपने पुत्रको इस आशा से पाठशाला में भेजते हैं कि मेरा बेटा पढलिख कर कोई ऊंचा पद प्राप्त करेगा, किन्तु उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि उनका पुत्र चरित्र गठन ही से ज्ञानी बन सकत है। इस विषय की उपेक्षा करना अपनी संतान पर घोर अन्याय करना है। चरित्र गठन ही शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिये । यह बात सत्य जान पडती है कि विद्वान् होने से उच्च पदको प्राप्ति होती है, किन्तु चरित्र के अभाव में वह उच्चपद सुरक्षित नहीं रह सकता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com