Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

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Page 39
________________ ३२ "L रहे हैं ! और नये मन्दिरो और धर्मशालाओं के बनाने में एवं परस्परके खिलाने पिलाने में अनुचित रीति से " देश का अपरिमित धन व्यय किया जा रहा है। यदि वही धन उचित रीतिसे शिक्षा की उन्नति में व्यय किया जाय अर्थात् देशको उन्नति के शिखर पर पहुंच जाने में अधिक काल नहीं लगेगा । साधारण गणना से प्रतीत होता है कि इस समय महाराजाओं, राजाओं जागीरदारों रइसों तथा साधारण मनुष्यों " के दानकी संख्या प्रतिवर्ष सत्तर करोड से कम नहीं है । इस अनन्त धन का उचित रीतिसे व्यय होना चाहिये ! इस कार्य की सिद्धि के निमित्त प्रत्येक देशवासी को उचित है कि अपनी लेखनी द्वारा लेख प्रकाशित कर तथा उपदेशोकी सहायता से जनसमूह तथा रइसों का उपकार करें । साम्प्रदायिक नियंत्रणा किसी भी सम्प्रदाय के ऐतिहासिक वर्णनों का अवलोकन करने से प्रायः इस बात का पता लगता है कि सम्प्रदाय की डोरी नेताओं के ही हाथ में रही है। नेताओं से हमारा आशय धर्म प्रचारकों से है । और विशेष कर यह लोग साधु; संन्यासी; पोप पादरी; पण्डित; राजगुरु प्रभृति नामों से विविध वेशों से पहिचाने जाते हैं । उन में से जिस किसीने जिस धर्मको अपना मानकर स्वीकृत किया है वह उसकी हर प्रकार से रक्षा करता है जिस प्रकार कृषक बडी सावधानी से अपने क्षेत्र की निगहबानी रखता हुआ अन्यान्य पशुपक्षियों तथा यात्रियों से बचाने की योजना करता है । इसी प्रकार वह धर्मनायक भी अपने सम्प्रदाय को बलिष्ठ बनाने के प्रयत्न में लगा रहता है । हां ? इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि भारत वर्ष में छप्पन लाख साधुओं की संख्या मानी जाती है और इन का मार विशेष कर गृहस्थों पर ही है । इनमें से सन्मार्ग का सदुपदेश देनेवाले कितने हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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