Book Title: Mahavir Shasan
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmatilak Granth Society

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Page 31
________________ २४ करने योग्य है उन्होंने योग्य मनुष्य को उपदेश देनेका अधिकार वर्णन करते समय कह दिया है कि “ ये वैनेया विनयनिपुणैस्ते क्रियन्ते विनीताः, नावैनेया विनयनिपुणैः शक्यते संविनेतुम् । दाहादिभ्यः समलममलं स्यात्सुवर्ण सुवर्ण, नायस्पिण्डो भवति कनकं छेददाहक्रमेण ।। १ ।।” अर्थः- जो मनुष्य स्वभावसे ही विनयनिपुण होगा उसे ही उपदेष्टा विशेष ऊंचे दर्जेपर चढा सकता है । जो स्वभाव से ही कठोर परिणामी है, छला है, छिद्रान्वेषी है, परवंचक है, उसे कोटि उपदेश भी मार्गगामी नहीं कर सकते ! इस बात पर आचार्य एक प्रत्यक्ष दृष्टान्त देते हैं कि जा सुवर्ण कुछ अन्य कुधातुओंसे मिश्रित है परन्तु है जातिका सुवर्ण उसी को तेजाब वगैरह के योग से शुद्ध कुन्दन बनाया जा सकता है | परन्तु जो है ही लोहेका टुकडा उसको छेद - दाह - ताडन, तापनादि अनेक उपाय कर के भी कोई सुवर्ण नहीं बना सकता । कहावत है कि " सौमन साबन मलके धोवे गर्दभ गाय न थाय " ॥ संसार स्वरूप || ध्यान हुताशन में अरि ईंधन, झोक दियौ रिपु- रोक निवारी | शौक हर्यो भविलोकन कौ वर, केवलज्ञान मयूख उघारी || लोक अलोक विलोक भये शिव, जन्म जरा मृत पंक परकारी । सिद्धन थोक बसे शिव लोक, तिन्हें पग धोक त्रिकाल हमारी ॥ | १ || किसी भी राष्ट्र समाज या धर्मकी उन्नति का प्रधान कारण तद्वि षयक शिक्षा ही है । सुशिक्षितों को ही अपने अपने देश समाज धर्मकी यथार्थ परिस्थितिका भान हो सकता है । वही उसका उपाय सोच सकते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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