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॥ परमात्माका संदेश ॥ श्रूयतां धर्मसर्वस्वं; श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।। १ ।। संसार में प्राणिमात्र को सुख इष्ट है, और दुःख अनिष्ट है । विकलेन्द्रियसे लेकर इन्द्रपर्यंत सर्व प्राणी सुख के अमिलाषी हैं, परन्तु सुख की प्राप्तिके साधनों को कैसे संपादन करना, इस बात का समझना जरा कठिन है । कितनेक विचारे मोहमूढ पुदगलानन्दी जीव अपने सुख के लिये दूसरे को दुसमें डालने के उपाय करते हैं । कोई एक धनके नष्ट होनेपर अन्याय चोरी आदि अनाचार करते हैं । कितने ही प्रथम झूठ बोल कर जब किसी प्रसंग में खूब तंग हो जाते हैं तो फरेब कर मुक्त होना चाहते हैं । निःपापको सपाप और पापीको निष्कलङ्क बनानेका उद्यम करने में अपना कौशल प्रकट करते हैं | अपने माथे पर चढ आये हुए आपत्तिके बादल जब दूसरे किसी पर बरस जाते हैं तो धर्महीन अज्ञ खुशी मनाते फूले नहीं समाते हैं । परन्तु वे यह नहीं समझने कि
अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
नक्षीयते कृतं कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।। १ ।। ( बल्कि.) राग द्वेष के दृट आवेश में आकर धर्म से सर्वथा निरपेक्ष होकर यदि पापाचरण किया जावे तो उस कर्मका परमाणु मात्रसे मेरु होडर मी छूटना कठिन हो जाता है । अपने दोषको न देखकर सिर्फ दूसरे धीवात्माको संताप देकर और आप खुद अकृत्यसे निवृत्त न होकर अपने अमूल्य जीवनको व्यर्थ करने में मी मनुष्य पीछे नहीं हटता !! ऐसी. दशामें उसे उपदेश का देना, सन्मार्गका बतलाना व्यर्थ है । इस विषयमें आचार्य श्री हरिमद्र सूरिजीका एक सूत्र मनन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com