Book Title: Mahavir Shasan Author(s): Lalitvijay Publisher: Atmatilak Granth Society View full book textPage 9
________________ अज्ञान की तर्फ झुक रहा था, ब्राह्मणलोग प्राचीन काल के सुखों का स्वप्न देखते हुए और समय को न विचारते हुए दूसरी जातियों के स्वत्वों को छीन कर अपने अधिकार को बढाने का यत्न कर रहे थे । परमार्थमार्ग और अध्यात्मविद्या को थोडे से इने गिने मनुष्य भी जानते हों इसमें भी पूर्ण शंका थी। प्रवाहमार्ग ॥ आत्मनिरीक्षण-निरीहक्रिया -अन्तरदृष्टि-ज्ञानयोग-अपवर्ग कामनादि विशुद्ध मानव कर्तव्यों को छोडकर यज्ञपूजा-संसार वृद्धिनिबन्धन पशुवध आहूति प्रदानादिः क्रियाएँ सुखकर, सुगम और शास्त्रविहित मानी जाती थीं । ज्ञानप्राप्ति में उदासीनता होतीजाती थी, ज्ञानयोग के विपरीत कर्मकाण्ड का यथोचित पालन उनको स्वर्ग का देनेवाला प्रतीत होता था, परन्तु-वह यह नहीं समझते थे कि. दयाधर्मनदीतीरे, सर्वे धर्मास्तृणाकुराः तस्यां शोषमुपेत्तायां, कियत्तिष्ठन्ति ते चिरम् ? ॥ १ ।। सारांश यह कि स्वार्थरत और अज्ञान अधित हिन्दुओं की दशा उस समय अत्यन्त शोचनीय थी। जब जनता का हृदय इतना संकुचित हो तब वह कदापि श्रेष्ठतत्त्वों का अनुसरण नहीं कर सकती । ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्य कर्मकाण्ड के यज्ञमें झूठे मोहसे स्वर्गकामना के लालची हुए हुए अपने आत्मिक सुखों के पराङ्मुख होकर आत्मा की ही आहूति दे रहे थे | आत्मोन्नति का रास्ता वह मुला बैठे थे | जडवाद की महत्ता और असंयतियों की पूजा चारों तर्फ अपना महत्त्व जमा रही थी । अखिल जनसमाज को अपनी दृष्टि-अपना हृदय--अपना मन-और अपनी आत्मशक्ति-ब्राह्मणों की सेवा में ही लगा रखने की जबरदस्ती फर्ज समझो जाती थी । यही लोगोंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 108