Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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भयो लाभ चरना अमृत को महाप्रसाद की आसा । जाको जोग जग्गि तप कीजैं, सो सन्तन को पासा ॥ जा प्रसाद देवन को दुरलभ, संत सदा ही पाहीं । कहै कबीर हरि भगत बछल है, सो संतन के माहीं ॥
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स्पष्ट है कि कबीर ने सन्त शब्द का प्रयोग उन मायातीत महापुरुषों के अर्थ में किया है जो निर्वैर, निष्काम और निर्विषय होते हैं, कनक कामिनी के प्रति अनासक्त हैं, लोभ-मोह, मद-मत्सर, आशा तृष्णा आदि का जिन पर कोई असर नहीं होता है, जो इन्द्रियों और मन को वश में रखते हैं और साई के प्रति एकनिष्ठ प्रीति वाले होते हैं। कबीर 2 और सुन्दरदास ने सन्त को राम के समान ही माना है अर्थात् राम और सन्त को एक ही माना है। साथ वे यह भी कहते हैं कि -
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महाकवि भूधरदास :
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"सन्तन माहे हरि बसे, सन्त बसे हरि माही"
पलटूसाहब लिखते हैं कि सन्त के लिए भक्ति और प्रेम ही सब कुछ है। उसे न चार पदार्थ चाहिए, न मुक्ति । ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग-नरक, तीर्थ-व्रत, पुण्य प्रताप आदि किसी की भी उसे इच्छा नहीं रहती। वह ज्ञान के खड्ग से सांसारिक विपत्तियों का नाश करके दुःखी व्यक्ति को सुखी करता है। वही जीवों का उद्धार करता है। राम और सन्त में कोई भेद नहीं है। 'तुलसी साहब, सहजोबाई,' दयाबाई, 8 दरिया साहब ' ( मारवाड वाले),
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दादूदयाल आदि
सभी कहते हैं कि सन्त विवेकी, दयावान, क्षमाशील, त्यागी, विश्वबन्धुत्व में विश्वास करने वाला और समस्त विकारों से परे होता है। वह जहाँ भी रहता
1. कबीर पंथावली - डॉ. तिवारी तिवारी पृष्ठ 20 पद 33
2. कबीर ग्रंथावली संत राम है एको पृष्ठ 33
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3. सुन्दरसार उन्हें ब्रह्म गुरु सन्त उह, वस्तु विराजित एक | पृष्ठ 2
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4. वही पृष्ठ 264, 48
5. सन्त काव्य, कुण्डलिया 13 पृष्ठ 526, रेखता 2, पृष्ठ 532
6. यन्त बानी संग्रह भाग 1 पृष्ठ 229
7. वही भाग 1 पृष्ठ 158
9. वही भाग 1 पृष्ठ 128
8. वही भाग 1 पृष्ठ 177
10. वही भाग 1 पृष्ठ 86