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* ४० * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
कारण नहीं, वह आध्यात्मिक दृष्टि से तीव्र-मन्द कषाय पर या सुख-दुःख के संवेदन पर निर्भर है। जगत में : दो प्रकार की व्यवस्था है-एक है शाश्वतिक और दूसरी है-प्रयत्नसाददेवलोक, नरक और भोगभूमि में शाश्वतिक व्यवस्था होती है, जबकि कर्मभूमिक मनुष्यलोक में प्रयत्नसाध्य व्यवस्था है। इसी कारण कर्मभूमि के आदिकाल से लेकर अब तक मानव-जाति के विविध प्रयत्नों से भौतिक विकास हुआ। अतएव बाह्य साधन तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव आदि अनुकूल-प्रतिकूल निमित्त मिलने पर भी सुख-दुःख का संवेदन मनुष्य के अपने अनुकूल-प्रतिकूल संवेदन पर निर्भर है। पुण्य-पापकर्म का फल केवल परलोक में ही नहीं, इहलोक में भी मिलता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि और व्रती साधक को पुण्य-पाप के फल मिलने पर हर्षित या शोकग्रस्त, अथवा अंहकारी या दीनहीन नहीं बनना चाहिए। उसे दोनों ही परिस्थितियों में समभाव रखकर कर्मक्षय करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
कर्मविज्ञान ने आगमों तथा अरिहन्तों व सिद्धों के जीवन-वृत्तों के आधार पर यह भी सिद्ध किया है कि पुण्यकर्म का फल केवल भौतिक लाभ ही नहीं, आत्मिक लाभ भी है। पुण्योदय से उत्तम साधन मिलने पर रत्नत्रयरूप धर्म, क्षमादि दशविध उत्तम धर्म, अध्यात्म एवं कर्मास्रवों के निरोध एवं कर्मक्षय की साधना में गति-प्रगति हो सकती है।
पुण्य और पाप का फल भी केवल परलोक में ही मिलता है, इस लोक में नहीं. ऐसी गलत धारणा का भी निराकरण कर्मविज्ञान ने किया है और इस एकान्तिक धारणा का भी निराकरण किया है कि पापकर्मी सभी सुखी होते हैं, पुण्यकर्मी दुःखी; अपितु पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्मों के कारण ही प्राणी सुखी या दुःखी होते हैं, हुए हैं और होंगे। पुण्य और पाप का फल पाने पर भी विजयी कौन, पराजित कौन ?
पुण्य-पापकर्म-विज्ञाता कुशल खिलाड़ी पूर्वकृत पापकर्मवश बुरे संयोग, अनिष्ट द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभव और परिस्थिति के रूप में दष्कर्मफल मिलने पर भी अपने सत्पुरुषार्थ. सध्यवसाय, सत्कर्म-कौशल एवं विवेक से उसे पुण्यकर्म में परिवर्तित एवं संक्रमित कर लेता है; अथवा रत्नत्रयरूप धर्म एवं सम्यकतप में पुरुषार्थ करके उन कर्मों का क्षय करके आराधक बनकर या तो उच्च देवलोक को प्राप्त कर लेता है या सिद्ध-बुद्ध-सर्वकर्ममुक्त परमात्मा बनकर बाजी जीत जाता है।
इसके विपरीत पुण्यकर्म के रहस्य से अनभिज्ञ अकुशल खिलाड़ी पूर्वकृत पुण्यवश अच्छे संयोग तथा शुभ द्रव्य-क्षेत्रादि मिलने पर भी विषयासक्त, कषायोन्मत्त एवं अहंकारग्रस्त होकर संवर-निर्जरारूप धर्म, दशविध श्रमणधर्म, पुण्य या उनके फल को अर्जित करने का अवसर खोकर बाजी हार जाता है. पापकर्मों में फँसकर अन्त तक बाजी हारता ही हारता जाता है। पुण्य और पाप के शुभ और अशुभ फल की दृष्टि से स्थानांगसत्र-प्ररूपित एक चौभंगी देकर भी इस तथ्य को सिद्ध किया गया है विविधशास्त्रीय उदाहरणों के सहित। चौभंगी और उसका फलितार्थ इस प्रकार है
प्रथम भंग है-शुभ और शुभ। अर्थात्-कोई पुण्यकर्म शुभ प्रकृतियुक्त होता है और शुभानुबन्ध भी, इसे कर्मविज्ञान की भाषा में पुण्यानुबन्धी पुण्य कहा गया है। जो पुण्यकर्म वर्तमान में भी उत्तम फल देता है
और भविष्य में शुभानुबन्धी होने से पुण्यफलस्वरूप सुख देने वाला होता है। हरिभद्रसूरि के अनुसार यह वर्तमान और भविष्य की पुण्य-सम्पन्न दशा जीव को शुभ से शुभता की ओर ले जाती है, तथैव ऐसी उभय पुण्य-सम्पन्नता सम्यग्दर्शन-ज्ञानयुक्त एवं निदानरहित शुद्ध धर्म का आचरण करने से प्राप्त होती है। इस सम्बन्ध में भरत चक्रवर्ती आदि को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।
दूसरा भंग है-शुभ और अशुभ पापानुबन्धी पुण्य। अर्थात्-कोई पुण्यकर्म शुभ प्रकृतिदाता होता है, किन्तु होता है अशुभानुबन्धी। पुण्यकर्म का वर्तमान में तो सुखरूप फल मिलता है, किन्तु पापानुबन्धी होने से भविष्य में दुःखरूप फल देने वाला हो, वह पापानुबन्धी पुण्य है। जो व्यक्ति पूर्वकृत पुण्य का सुखरूप फल प्राप्त करके भी वर्तमान में पापकर्मरत रहकर भविष्य के लिए दुःख के वीज बोते रहते हैं। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। हिटलर, मुसोलिनी, नादिरशाह, औरंगजेब आदि भी इस पापानुबन्धी पुण्य के ज्वलन्त उदाहरण हैं। ऐसे व्यक्ति पुण्य-पाप के खेल में हार जाते हैं।
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