________________
ॐ २४ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
ग्रहण करे और उनकी स्थिर स्मृति के लिए उद्यत रहे; (३) संयम के द्वारा नये कर्मों का निरोध करने के लिए जागरूक रहे; (४) तपश्चरण के द्वारा प्राचीन (पूर्वबद्ध) कर्मों को पृथक् करने और उनका विशोधन करने के लिए तत्पर रहे; (५) असंगृहीत परिजनों (धर्मसंघीय साधकों) का संग्रह करने के लिए अभ्युद्यत रहे; (६) शैक्ष (नवदीक्षित) साधु को आचार-गोचर का सम्यक् बोध कराने के लिए उद्यत रहे; (७) ग्लान (रोगी, अशक्त एवं वृद्ध अथवा उद्विग्न) साधु की
अग्लानभाव से वैयावृत्य (सेवा = परिचर्या) करने के लिए तत्पर रहे; और (८) साधर्मिकों में परस्पर कलह (अधिकरण) उत्पन्न होने पर, ये मेरे साधर्मिक किस तरह अपशब्द, कलह और तू-तू मैं-मैं से मुक्त हों', ऐसा विचार करते हुए किसी प्रकार की लिप्सा (स्वार्थलिप्सा) और अपेक्षा (स्पृहा) से रहित होकर, किसी का पक्ष न लेकर, मध्यस्थभाव स्वीकार करके उसे उपशान्त करने के लिये तैयार रहे।"१
इस प्रकार इन आठ सत्कार्यों में प्रमाद न करने का निर्देश इसलिये किया गया है कि प्रत्येक साधक यदि शुद्धोपयोग में सतत न रह सके, तो कम से कम अपने मन-वचन-काय के योगों को अशुभोपयोग से हटाकर शुभोपयोग में लगा सके। निवृत्ति के नाम पर वह निठल्ला और अकर्मण्य बनकर न बैठा रहे। आलस्य, प्रमाद, शुभ कार्यों के प्रति अनादर, अरुचि और उपेक्षा या निराशा की भावना लेकर न बैठा रहे। एकान्त नियतिवाद के चक्र में न पड़कर शुभ योग-संवर में पुरुषार्थ करने का यहाँ संकेत है। अतः इन सर्वसुलभ सत्कार्यों में उपर्युक्त सम्यक् विधिवत् पुरुषार्थ करने से प्रमादास्रव दूर होने से पापकर्मों का बन्ध तो रुकेगा ही, शुभ योग से पुण्यकर्म का भी उपार्जन होगा और उत्कृष्ट आत्मौपम्यभावना या आत्म-स्वरूप में रमण करने की भावना आने पर सकामनिर्जरा का लाभ भी हो सकेगा। अतः अप्रमाद-संवर की ये साधनाएँ अवश्यमेव उपादेय हैं। कर्ममुक्ति के अभिलाषी साधकों को सब प्रकार के प्रमादों का त्याग करना ही अभीष्ट है।
१. अट्ठहिं ठाणेहिं सम्मं घडियव्वं जइयव्वं परक्कमियव्वं, अस्सिं च णं अढे णो पमाएयव्वं भवइ
(१) असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणताए अब्भुट्टेयव्वं भवति, (२) सुयाणं धम्माणं
ओगिण्हणयाए उवधारणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवति, (३) णवाणं कम्माणं संजमेणमकरणयाए अब्मुडेयव्वं भवति, (४) पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिचणयाए, विसोहणयाए अब्मुट्ठयव्वं भवति, (५) असंगिहीत-परिजणस्स संगिण्हणयाए अब्मुट्ठयव्वं भवति, (६) सेहं आयारगोयरं गाहर्णयाए अब्भुट्टेयव्वं भवति, (७) गिलाणस्स अगिलाए यावच्च-करणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवति, (८) साहम्मियाणमधिकरणंसि उप्पणंसि तत्य अणिस्सितोवस्सितो अपक्खगाही मज्झत्थ-भावभूते कहं णु साहम्मिया अप्पसद्दा, अप्पझंझा, अप्पतुमंतुमा? उवसामणयाए अब्मुट्टेयव्वं भवति।
-स्थानांगसूत्र, स्था. ८, सू. १११
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org