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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन कारण है कि संग्रह-नय रूप से जहाँ सांख्य का सद्वैत लिया गया है वहीं ब्रह्माद्वैत के विचार विकास के लिए संग्रहनय रूप से ब्रह्माद्वैत विचार ने भी स्थान प्राप्त किया है। इसी तरह ऋजुसूत्र नय रूप से बौद्ध क्षणिकवाद तथा वैभाषिक, सौत्रान्तिक, विज्ञानवाद और शून्यवाद-इन चारों प्रसिद्ध बौद्ध शाखाओं का संग्रह हुआ ।
संक्षेप में अनेकान्त-दष्टि इतनी सर्वसंग्राहक है कि इसमें समन्वय की अपूर्व क्षमता है। यही उसका हृदय है। जैन परम्परा में सत्य प्रकाशन की शैली का ही नाम अनेकान्त है । अनेकान्त के मूल में दो तत्त्व हैं पूर्णता और यथार्थता । जो पूर्ण है
और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप से प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता है । एक तो वस्तुस्वरूप इतना संश्लिष्ट है कि उसका त्रिकालाबाधित ज्ञान सम्भव नहीं और यदि हो भी जाय तो उसका कथन करना कठिन है। हम अपनी दृष्टि से यथार्थ का वर्णन कर सकते हैं लेकिन वह अपूर्ण ही होगा। अतः सत्यशियों में भी भेद तो होंगे ही क्योंकि वे सब अपूर्णदर्शी हैं। इसलिए राग-द्वेष से मुक्त होकर तेजस्वी मध्यस्थ भाव रखकर निरन्तर जिज्ञासा करते जाना एवं विरोधी पक्षों पर आदर पूर्वक विचार करना तथा अपने पक्ष की भी तीव्र समालोचक दृष्टि रखना और अन्त में अपनी प्रज्ञा से विरोधों का समन्वय करना एवं जहाँ अपनी भूल हो वहाँ मिथ्याभिमान परित्याग कर परिष्कार कर आगे बढ़ना चाहिए।
इसी अनेकान्त से दो सिद्धान्त फलित हुए-नयवाद और सप्तभंगी। विचार की विभिन्न पद्धतियों के समन्वय करने का काम नयवाद करता है और किसी वस्तु के विषय में प्रचलित विरोधी कथनों का समन्वय सप्तभंगी का काम है। लेकिन दुर्भाग्य है कि उदारता की पराकाष्ठा पर पहुँच कर सत्य को प्रकाशित करने वाले इस अनेकान्त दर्शन को भी जैनेतर विद्वानों ने साम्प्रदायिक स्वरूप में ग्रहण कर उसे खण्डन करने का प्रयास किया है। बादरायण ने तो 'नैकस्मिन् असम्भवात्' (६।२।३३) सूत्र की रचना कर डाली जिसपर शंकर, रामानुज से लेकर डॉ. राधाकृष्णन् एवं पं. बलदेव उपाध्याय तक वेदान्त के आचार्यों ने दिक्भ्रमित भाष्य कर डाले। फिर तो वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीति, प्रज्ञाकरगुप्त, अचंट, शान्तिरक्षित आदि प्रभावशाली बौद्धों ने भी अनेकान्तवाद पर निर्मम प्रहार किया है। फिर तो जैन विचारकों को आत्मरक्षा के लिए उनका सामना करना ही था। इसी तरह एक प्रचण्ड विचारसंघर्ष का जन्म हुआ और अनेकान्त-दृष्टि का तर्कबद्ध विकास हुआ। लेकिन खण्डनमण्डन के बावजूद अनेकान्त-दृष्टि का भारतीय संस्कृति पर व्यापक प्रभाव पड़ा । जैन विरोधी प्रखर आचार्य रामानुज ने मायावाद के विरोध में भले ही उपनिषद् का
परिसंवाद-४
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