Book Title: Jain Vidya evam Prakrit
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 325
________________ अपभ्रश एवं हिन्दी जैन साहित्य में शोध के नये क्षेत्र डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल विगत ५० वर्षों में अपभ्रश का विशाल साहित्य प्रकाश में आया है। इस साहित्य को प्रकाश में लाने की दृष्टि से जिन विद्वानों ने सर्वप्रथम खोज कार्य किया उनमें पं० नाथूराम प्रेमी, डॉ. हीरालाल जैन, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, मुनि जिनविजय जी, डॉ. ए० एन० उपाध्ये एवं डॉ परशुराम वैद्य के नाम उल्लेखनीय हैं । सन् १९५० में श्री महावीर जी क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग की ओर से प्रकाशित प्रशस्ति संग्रह में सर्वप्रथम ५० अपभ्रश ग्रन्थों की एक साथ प्रशस्तियों को देखकर हिन्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' नामक कृति में जो विचार व्यक्त किये थे वे निम्नप्रकार हैं : "सन् १९५० में श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए०, शास्त्री के सम्पादकत्व में आमेर शास्त्र भण्डार (जयपुर ) के ग्रन्थों का एक प्रशस्ति संग्रह प्रकाशित हुआ है जिसमें लगभग ५० अपभ्रंश ग्रन्थों को प्रशस्तियाँ संग्रहीत है। इनमें से कुछ का तो विद्वानों को पहिले से भी पता था कुछ नई हैं। इनमें स्वयम्भू, पुष्पदन्त, पद्मकीति, वीर, नयनन्दि, श्रीधर, श्रीचन्द, हरिषेण, अमरकीति, यशकीति, धनपाल, श्रुतकीर्ति और माणिक्कराज, रइधू आदि की कृतियाँ हैं। अधिकांश रचनाएं १३ वीं शताब्दी के बाद की बताई गई हैं। उसके बाद भी १६ वीं शताब्दी तक अपभ्रंश में रचनाएं होती रही। इस प्रशस्ति संग्रह के रइधू, यशकीति, धनपाल, श्रुतकीति और माणिक्कराज चौदहवीं और उसके बाद की शताब्दियों के कवि हैं। 'ये ग्रन्थ अधिकतर जैन ग्रन्थ भण्डारों से ही प्राप्त हुए हैं और अधिकांश जैन कवियों के लिखे हुए हैं। स्वभावतः ही इनमें जैनधर्म की महिमा गाई है और उस धर्म के स्वीकृत सिद्धान्तों के आधार पर ही जीवन बिताने का उपदेश दिया गया है। परन्तु इस कारण से इन पुस्तकों का महत्त्व कम नहीं हो जाता । परवर्ती हिन्दी साहित्य के काव्य रूप के अध्ययन करने में ये पुस्तकें बहुत सहायक हैं।" डॉ. द्विवेदी जी की उक्त धारणा के पश्चात् अपभ्रश साहित्य की ओर विद्वानों का और अधिक ध्यान जाने लगा और सर्व प्रथम इतिहास के रूप में डॉ. परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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