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अपभ्रंश एवं हिन्दी जैन साहित्य में शोध के नये क्षेत्र
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४. अपभ्रंश का प्रथम और अन्तिम महाकाव्य ५. अपभ्रंश के प्रमुख महाकवि ६. अपभ्रश के प्रतिनिधि कवि और उनके काव्य ७. महाकवि पदमकीर्ति-व्यक्तित्व एवं कृतित्व ८. हरिषेण की धम्मपरिक्खा का आलोचनात्मक अध्ययन ९. वीर एवं शृङ्गार रस प्रधान जंबूसामि चरिउ का सांस्कृतिक अध्ययन १०. महाकवि यशःकोति-व्यक्तित्व एवं कृतित्व ११. महाकवि धवल के हरिवंशपुराण का सांस्कृतिक अध्ययन १२. अपभ्रश का ऐतिहासिक काव्य : अमरसेनचरिउ-एक अध्ययन १३. महाकवि श्रुतकीति की अपभ्रंश साहित्य को देन १४. अपभ्रश के प्रबन्ध काव्य १५. अपभ्रश के खण्ड काव्य १६. महाकवि नयनन्दि–व्यक्तित्व एव कृतित्व १७. गणि देवसेन के सुलोचना चरित का सांस्कृतिक अध्ययन १५. हिन्दी भाषा के विकास में अपभ्रंश की देन १९ महाकवि धनपाल एवं उनका अपभ्रंश साहित्य २०. महाकवि रइधू के काव्यों का सांस्कृतिक अध्ययन २१. महाकवि जयमित्रहल --व्यक्तित्व एवं कृतित्व २२. छक्कम्मोपएस का सांस्कृतिक अध्ययन २३. अपभ्रश काव्यों में प्रयुक्त छन्दों का तुलनात्मक अध्ययन २४. १४वीं शताब्दि के प्रतिनिधि अपभ्रंश काव्य
अपभ्रंश की तरह हिन्दी में भी जैन विद्वानों ने उस समय लिखना प्रारम्भ किया जब उसमें कलम चलाना पांडित्य से परे समझा जाता था तथा वे भाषा के पंडित कहलाते थे। यह भेदभाव तो महाकवि तुलसीदास एवं बनारसीदास के बाद तक चलता रहा । हिन्दी में सर्व प्रथम रास संज्ञक रचनाओं में काव्य निर्माण प्रारम्भ हुआ । जब अपभ्रंश भाषा का देश में प्रचार था तब भी जैन कवियों ने अपनी दूरदर्शिता के कारण हिन्दी में भी लेखनी चलाई और साहित्य की सभी विधाओं को पल्लवित करते रहे। जिनदत्तचरित ( सं० १३५४ ) एवं प्रद्युम्नचरित ( सं० १४११) जैसी कृतियाँ अपने युग की प्रथम पुस्तकें हैं । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने प्रद्युम्न
परिसंवाद-४
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